- जिन विशेष तरीकों या प्रावधानों को अपनाकर बालकों का समुचित चारित्रिक या नैतिक विकास किया जा सकता है उनमें से प्रमुख है मूल प्रवृत्तियों और संवेगों का उचित प्रशिक्षण, इच्छा या संकल्प शक्ति का प्रशिक्षण, अच्छी आदतों एवं उचित आदर्शो का विकास, उचित स्थायी भावों का विकास एवं संगठन, अनुकरण, सुझाव, पुरस्कार एवं दंड आदि की समुचित सहायता लेना, नैतिक और धार्मिक शिक्षा प्रदान करना, बच्चों का उचित शारीरिक, सामाजिक, मानसिक एवं संवेगात्मक विकास करना, चारित्रिक विकास कार्य में परिवार, विद्यालय और समाज सभी का संगठित सहयोग लेना आदि।
- व्यवहार के तीनों पक्षों या अनुक्षेत्रों से जुड़े हुये विभिन्न विकासात्मक कार्य — 1 क्रियात्मक विकासात्मक कार्य। 2 ज्ञानात्मक विकासात्मक कार्य और 3 भावात्मक विकासात्मक कार्य आदि तीन श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं और इस तरह से विकासात्मक कार्य बालक विशेष की उन सम्पूर्ण व्यवकार क्रियाओं से सम्बन्धित रहते है जिनका संपादन बालक विशेष से (उसकी आयु तथा अवस्था विशेष से सम्बन्धित किसी विकासात्मक काल के संदर्भ में) अपेक्षित होता है।
- बालक के किसी एक आयु या विकास स्तर पर एक विशेष प्रकार के विकासात्मक कार्यो को संपादित करने की अपेक्षा की जाती है। इसके पीछे जिन विशेष कारक या परिस्थिति विशेष सम्बन्धी आवश्यकताओं का हाथ रहता है उनमें प्रमुख रूप से परिपक्वन की प्रक्रिया तथा बालक की अपने भौतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवेश से समायेाजन सम्बन्धी आवश्यकताओं का उल्लेख किया जा सकता है।
- विकासात्मक कार्यो का सीधा सम्बन्ध जहॉ बालकों की आयु तथा वृद्धि एवं विकास की अवस्थाओं—शैशव, बचपन, किशोरावस्था इत्यादि से होता है वही इसका सम्बन्ध बालकों के सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेश से भी होता है। प्रत्येक सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश अपने रीति—रिवाज, रहन—सहन के ढंग तथा समायोजन आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुये विभिन्न विकासात्मक कालों में अपने बालकों से अलग—अलग प्रकार के विकासात्मक कार्यो के संपादन की अपेक्षा करता है।
- किस विकास स्तर पर बालकों द्वारा किस प्रकार के विकासात्मक कार्य किये जाने चाहिये इस बात का सही ज्ञान एक अध्यापक को अपने कत् र्तव्य निर्वाह में यथेष्ट सहयोगी सिद्ध हो सकता है। बालक विशेष का योग्यता और उपलब्धियेां की दृष्टि से क्या स्तर है और उसकी अपनी आयु तथा विकास काल की दृष्टि से उससे क्या कुछ अपेक्षित है इस बात की जानकारी अध्यापक को इस बात के लिये पूरी तरह तैयार कर सकती है कि वह अपनी ओर से ऐसे गंभीर प्रयत्न कर सके जिससे बालकों से उनके विकास स्तर के अनुरूप विकासात्मक कार्यो के सफल संपादन का लक्ष्य सही ढंग से पूरा हो सके।
- किशोरावस्था एक तरफ तो अत्यधिेक वृद्धि एवं विकास का काल है तो दूसरी ओर अत्यन्त तनाव एवं दबाव की अवस्थ। किशोर अपनी वय संधि के ऐसे चौराहे पर खड़ा होता है जहॉ उसे बचपन तथा वयस्क दोनों प्रकार की भूमिकाओं से उत्पन्न विरोधी अपेक्षाओं का शिकार होना पड़ता है तथा अपनी आवश्यकताओं, समस्याओं एवं महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के संदर्भ में आवश्यक मार्गदर्शन एवं परामर्श की आवश्यकता रहती है। मॉ—बाप अध्यापकों तथा समाज के उत्तरदायी सदस्यों को ऐसा सब कुछ प्रदान करने के लिये आगे आना चाहिये तथा किशोरों को सभी प्रकार से ऐसी शिक्षा तथा समायोजन सम्बन्धी परिस्थितियॉ प्रदान करनी चाहियें जिनसे उनका अधिक से अधिक सर्वागीण विकास हो सके।
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शाला पूर्व शिक्षा ( Pre school education) भाग — 3
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