prechildeducation
- मानसिक वृद्धि एवं विकास से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके फलस्वरूप बालक की सीाी संज्ञानात्कम, मानसिक अथवा बौद्धिक शक्तियों(जो एक तरह से अन्त: सम्बन्धित होती है।) जैसे — संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, कल्पनाशक्ति, बुद्धि और भाषायी योग्यता, समस्या सामाधान योग्यता और निर्णय लेने की क्षमता आदि का पर्याप्त मात्रा में विकास सम्पन्न होता है। मानसिक वृद्धि एवं विकास से सम्बन्धित ये सभी पक्ष आयु में वृद्धि के साथ — साथ यानी परिपक्वन तथा अधिगम दोनों की ही संयुक्त प्रक्रिया के परिणामस्वरूप फलते फूलते रहते हैं।
- बालकों का मानसिक विकास कैसे होता है यह बताने के लिये जीन पियाजे ने अपना मानसिक या संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त सामने रखा। उसने बताया कि प्रत्येक बालक अपने जन्म के समय कुछ जन्मजात प्रवृत्तियों एवं योग्यताओं जैसे — चूसना, देखना, वस्तुओं को पकड़ना तथा उन तक पहुॅचने आदि को लेकर पैदा होता है। अत: जन्म के समय बालक के पास बौद्धिक संरचना के रूप में इन्हीं क्रियाओं को करने की क्षमता होती है, परन्तु आयु में वृद्धि के साथ ही उसकी बौद्धिक क्रियाओं तथा क्षमताओं का दायरा बढ़ने लगता है। बुद्धि का यह क्रमिक विकास पियाजे के अनुसार जिन विशेष चरणों तथा अवस्थाओं में सम्पन्न होता है, वे हैं इन्द्रियजनित गामक अवस्था, पूर्व संक्रियात्मक अवस्था मूर्त संक्रियात्मक अवस्था तथा अमूत् र्त संक्रियात्मक अवस्था। इन अवस्थाओं को बालक किशोरावस्था के सक्रिय वर्षो 11 से 15 वर्षो तक पूरा करके मानसिक विकास की ऊॅचाइयों को छूने का प्रयत्न करता है। इसमें जो कुछ कमी रह जाती है वे अनुभवों के सहारे आगामी जीवन वर्षो में पूरी कर ली जाती है।
- मानसिक वृद्धि और विकास ककी प्रक्रिया को नियन्त्रित करने में परिपक्वन और सीखने की काफी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। जिस तरह अभ्यास और प्रशिक्षण से शारीरिक शक्ति् और कुशलताओं में वृद्धि होती है वैसे ही अनौपचारिक तथा औपचारिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण द्वारा मानसिक विकास की मंजिलें तय की जा सकती है।
- मानसिक वृद्धि और विकास प्रक्रिया के स्वरूप की जानकारी तथा इसके फलस्वरूप बालकों की मानसिक शक्तियों में होने वाले परिवर्तनों का अनुमान अध्यापकों को आयु स्तरों के अनुरूप पाठ्य तथा सहपाठ्य क्रियाओं तथा अनुभवों के चयन एवं आयेजन, शिक्षण विधियों तथा सहायक सामग्री के चयन और उनको उपयोग में लाने के तरीके ढूॅढने तथा मानसिक स्तर के अनुकूल व्यक्तिगत विकास की दिशायें तय करने में भली—भॉति सहायोगी सिद्ध हो सकता है।
- संवेगों की अभिव्यक्ति के समय व्यक्ति विशेष के शरीर में आन्तरिक और बाह्य दोनों ही प्रकार के उल्लेखनीय परिवर्तन दृष्टिगोचर होते है। इस प्रकार के आन्तरिक परिवर्तन के रूप में हम ह्दय की धड़कन का तेज होना, रक्तचाप में वृद्धि या कमी होना, श्वास की गति में बहुत अधिक परिवर्तन होना, पाचन क्रिया का मंद और शिथिल हो जाना, रक्त की रासायनिक संरचना में परिवर्तन आ जाना, शरीर के तापमान में अन्तर आ जाना, नलिका युक्त तथा नलिकाविहीन ग्रन्थियों के स्त्रावों में अन्तर आ जाना, शरीर की मॉसपेशियों में खिंचाव या तनाव उत्पन्न हो जाना, त्वचा की विद्युत अनुक्रिया में अन्तर आना तथा मस्तिष्क की प्रक्रिया का प्रभावित होना आदि का नाम ले सकते हैं। बाह्य शारीरिक परिवर्तनों (जिन्हें किसी यन्त्र की सहायता के बिना देेखा, जा सकता है।) के उदाहरणों के रूप में हम मुख मुद्रा, शारीरिक मुद्रा तथा वाणी या स्वर अभिव्यक्ति में आने वाले परिवर्तनों का नाम ले सकते है।
- वृद्धि एवं विकास की विभिन्न अवस्थाओं में निरन्तर होने वाले संवेगात्मक विकास में मुख्य रूप से जिन तीन बातों के दर्शन होते है, वे है -
- जन्म के बाद बच्चे में धीरे—धीरे विभिन्न संवेगों का जागृत होना,
- संवेगों को जागृत करने वाले उद्दीपकों की प्रकृति में अन्तर आना,
- अभिव्यक्त करने के तरीके में परिवर्तन आना।
- बालकों और संवेगात्मक परिवक्वता से युक्त प्रौढ़ों के संवेगात्मक व्यवहार में काफी अन्तर पाया जाता है। मुख्य रूप से यह अन्तर जिन बातों में दिखाई देता है, वे हैं —
- संवेगों की तीव्रता,
- संवेगों की संक्षिप्तता,
- संवेगों की आवृत्ति में अन्तर,
- संवेगों की पहचान में अन्तर,
- एक संवेग से दूसरे संवेग में बदलाव होना और
- संवेगात्मक अभिव्यक्ति में पर्याप्त अन्तर आ जाना।
- बालकों का संवेगात्मक विकास बहुत से आन्तरिक एवं बाह्य कारणेां से प्रभावित होता है, जिसमें से उल्लेखनीय है — बालक का स्वास्थ्य एवं शारीरिक विकास, बौद्धिक स्तर, घरेलू वातावरण और पारस्परिक सम्बन्ध, विद्यालय का वातावरण तथा अध्यापक, सामाजिक विकास और हमजोलियों के साथ सम्बन्ध, पास—पड़ोस और समुदाय का प्रभाव इत्यादि।
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