शाला पूर्व शिक्षा ( Pre school education) भाग — 2

  • व्यक्ति और समाज का कल्याण इसी बात में निहित है कि व्यक्तियां को अपने संवेगों को अच्छी तरह काम में लाना चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु संवेगात्मक परिमार्जन तथा उनकी अभिव्यक्ति् के ढंग को सुधारने की आवश्यकता है। इस प्रकार के संवेदात्मक प्रशिक्षण हेतु जो विधियॉ काम में लाई जाती है, वे है - 
  1. दमन या निषेध 
  2. परिश्रमशीलता या मानसिक व्यस्तता 
  3. मार्गान्तरीकरण और शोधन तथा 4 रेचन। 
  • बालकों के उचित संवेगात्मक विकास में अध्यापकों द्वारा काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जा सकती है इसके लिए उनके द्वारा जो उपाय किए जा सकते है, उनमें से मुख्य है — 
  1. बालकों के स्वास्थ्य और शारीरिक विकास पर पूरा ध्यान देना। 
  2. उनके माता—पिता को उचित मार्गदर्शन प्रदान करना। 
  3. अपने स्वयं के व्यवहार का उदाहरण प्रस्तुत करना तथा 
  4. पाठ्य एवं पाठ्य सहगामी अनुभवों के माध्यम से बालकों की संवेगात्मक शक्तियों के प्रवाह के लिए उचित माध्यम प्रदान करना आदि। 
  • किसी की संवेगात्मक बुद्धि से तात्पर्य उसकी उस समग्र क्षमता से है जो उसे उसकी विचार प्रक्रिया का उपयोग करते हुए अपने तथा दूसरे के संवेगों को जानने, समझने तथा उनका सर्वोत्तम प्रबन्धन करने में उसकी सहायता करती है। किस मे कितनी संवेगात्मक बुद्धि है उसके इस स्तर को माप के लिए जिस इकाई विशेष का प्रयोग करते हैं उसे संवेगात्मक लब्धि (Emotional Quotient) और संक्षेप मे ईक्यू (E.Q.) कहा जाता हैं। यह उसी प्रकार का पैमाना है जैसा आई क्यू (I.Q.) के रूप मे सामान्य बुद्धि स्तर की माप के लिए काम में लाया जाता है। 
  • संवेगात्मक बुद्धि का विकास व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों ही दुष्टि से बहुत ही उपयोगिता रखता है इसलिए बालकोें के दूसरे उपयुक्त विकास हेतु शुरू से ही काफी गम्भीर प्रयत्न किये जाने चाहिए। उन्हें स्वयं अपने तथा दूसरों के संवेगों को जानने समझने तािा उनका उचित प्रबन्धन करने का ऐसा प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि वे अन्त: सम्बन्धों को बनाये रख कर अपने और अपने वातावरण से ठीक प्रकार समायोजन करने में कुशल एवं प्रवीण सिद्ध हो सकें समय समय पर उनके संवेगात्मक स्तर का मापन करते रहने की भी चेष्टा की जाती रहनी चाहिए। उचित मानकीय संवेगात्मक बुद्धि परीक्षणेां जैसे मेयर इमोशनल इन्टैलीजेन्स स्केल, मंगल संवेगात्मक बुद्धि मापनी द्वारा इस प्रकार का मापन किया जा सकता है। 
  • सामाजिक विकास से अभिप्राय उस प्रक्रिया विशेष से है जिसके फलस्वरूप एक बालक अपने सामाजिक वातावरण के साथ लगातार अन्त:क्रिया करते हुए सामाजिक गुणों एवं कुशलताओं को ग्रहण कर उचित सामाजिक सम्बन्ध बनायें रखने में सफल रहता है। 
  • सामाजिक विकास की प्रक्रिया उसी समय से अपना कार्य प्रारम्भ कर देती है जिस समय एक अबोध शिशु का अपनी मॉ परिवार के सदस्यों तथा अन्य व्यक्तियों के साथ कोई सम्पर्क सूत्र बनना प्रारम्भ हो जाता है और फिर यह काय्र अनवरत रूप से जिन्दगी भर चलता रहता है। सामाजिक व्यवहार के विकास की प्रारम्भिक अवस्था में शिशुओं मे नकारात्मक सामाजिक गुणों जैंसे दब्बूपन, लज्जाशीलता, ईष् र्या , प्रतिद्वन्द्विता, संग्रह प्रवृत्ति घर करने लगती है। बाल्यावस्था के अन्त तक बालक में सामाजिकता की प्रकृति और अच्छी तरह से विकसित हो जाती है और उनकी सामाजिक दुनिया काफी बड़ी और विस्तृत होती जाती है। जैसे — ही वह किशोरावस्था में प्रवेश करता है, वैसे ही सामाजिक विकास की दृष्टि से वह अधिक से अधिक ऊॅचाईयों को छूने की दिशा में बढ़ने लगता हैं। इसीलिये किशोरावस्था को प्राय: अत्यधिक सामाजिक चेतना बढ़ते हुये सामाजिक सम्बन्धों और प्रगाढ़ मित्रता की अवस्था की संज्ञा दी जाती है। इस अवस्था के अन्त तक बालक विशेष में पर्याप्त रूप से सामाजिक परिपक्वता का विकास हो जाता है। 
  • बालकों के विकास में दोनों ही प्रकार के कारकों — वेयक्तिक तथा वातावरण जन्य, की प्रमुख भूमिका रहती है। वैयक्तिक कारकों में प्रमुख रूप से जिनका उल्लेख किया जा सकता है वे है — 1 शारीरिक ढॉचा और स्वास्थ्य। 2 बुद्धि तथा 3 संवेगात्मक विकास। इसी तरह वातावरण सम्बन्धी कारकों में प्रमुख रूप से जिन कारकों का उल्लेख किया जा सकता है वे है — 1 परिवार का वातावरण, 2 विद्यालय और उसका वातावरण, 3 वय — समूह या मित्र — मण्डली का प्रभाव, 4 पास—पड़ोस और समुदाय तथा 5 धार्मिक संस्थाये और क्लब आदि। 
  • आध्यात्मिक विकास से तात्पर्य बालक में जन्म से ही विद्यमान आध्यात्मिकता का इस प्रकार विकास करना है कि वह आत्मज्ञान या आत्मानुभूति की प्राप्ति कर ईश्वर तथा उसकी सृष्टि के साथ अपना तादात्भ्य स्थापित कर सके। आत्मानुभूति और आध्यात्मिक विकास का यह मार्ग निस्संदेह नैतिक या चारित्रिक विकास से ही गुजरता है इस दृष्टि से जब तक बालक के आध्यात्मिक विकास की बात करते है। तो हमें निश्चित रूप से उसके नैतिक एवं चारित्रिक विकास की ही बात पहले अच्छी तरह सोचनी चाहिए। 
  • व्यक्ति का चरित्र वास्तव मे और कुछ नहीं उसका अपना संगठित आत्म ही है। मूल प्रवृत्तियों, संवेग, आदते, स्वभाव, संकल्प शक्ति और स्थायी भाव ये सभी चरित्र के ही तत्व हैं। जब ये सभी तत्व संगठित होकर एक ऐसी स्थायी मानसिक संरचना का रूप ले लेते हैं जो व्यक्ति विशेष के सामाजिक व्यवहार को निर्धारित करने में अपनी समर्थ भूमिका निभाने लग जाये तब उसे उस व्यक्ति के चरित्र की संज्ञा दी जाती है। 
  • चरित्र निर्माण और विकास की प्रक्रिया वृद्धि और विकास की विभिन्न अवस्थाओं तथा आयु सीमाओं से गुजरती हुई कुछ निश्चित क्रमों में आगे बढ़ती है। मनोवैज्ञानिको ने इन्हें चरित्र निर्माण या नैतिक विकास के स्तर या अवस्थाओं का नाम दिया है। मुख्य रूप से इस विकास प्रक्रिया में जिन स्तर या अवस्थाओं की चर्चा की जा सकती है वे हैं — 
  1. पूर्व नैतिक अवस्था (जन्म से 2 वर्ष तक)। 
  2. स्व केन्द्रित अवस्था (तीसरे वर्ष से 6 वर्ष तक)। 
  3. परम्पराओं को धारण करने की अवस्था (7 वें वर्ष से लेकर किशोरावस्था के प्रारम्भिक काल तक)। 
  4. आधारहीन आत्मचेननावस्था (किशोरावस्था) तथा 
  5. आधारयुक्त आत्मचेनावस्था (परिपक्वता ग्रहण करने के बाद)। इस प्रकार ये अवस्थायें यह बताती हैं कि किस प्रकार एक अबोध बालक जिसमें नैतिकता और सामाजिकता संपर्क, अनुभव और प्रशिक्षण के माध्यम से नैतिकता और चारित्रिक विकास की मंजिले तय करता हुआ चरित्र विकास के ऐसे शिखर पर आसीन हो जाता है जहॉ वह मूल्य और मान्यताओं से अपने भावात्मक लगाव, झिझक या भय को त्याग कर अपनी आत्मा की आवाज और तर्कयुक्तता का दामन थामकर नैतिकता को अपने ढंग से परिभाषित करने के सामथर्य का प्रदर्शन कर सके।   
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