त्रिलोचनी पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की ग्यारहवीं कहानी
हर बार की तरह इस बार भी राजा भोज सिंहासन पर बैठने के लिए राज दरबार पहुंचते हैं। इस बार सिंहासन की ग्यारहवीं पुतली त्रिलोचना उन्हें रोक देती है। फिर वह राजा विक्रमादित्य के गुणों के बारे में बताने के लिए महायज्ञ का एक किस्सा सुनाने लगती है।
एक बार राजा विक्रमादित्य ने राज्य की खुशहाली के लिए महायज्ञ करने की घोषणा की। इसमें उन्होंने सभी राजा-महाराजा, पंडित-ब्राह्मण, देवी-देवताओं और ऋषी-मुनियों को आमंत्रित करने का फैसला लिया। सभी को आमंत्रण भेजने के बाद राजा विक्रमादित्य ने पवन देव को खुद जाकर निमंत्रण देने की ठानी और समुद्र देव को आमंत्रित करने के लिए एक ब्राह्मण का चयन किया।
राजा का आदेश मिलते ही ब्राह्मण देव निमंत्रण पत्र लेकर समुद्र देवता के पास जाने के लिए निकल पड़े। साथ ही राजा विक्रमादित्य भी पवन देव की खोज के लिए एक जंगल पहुंचे। यहां उन्होंने कुछ दिनों तक ध्यान लगाया, ताकि उन्हें पवन देव के बारे में कुछ जानकारी मिल सके। मां काली ने उनके ध्यान से खुश होकर राजा विक्रमादित्य को बताया कि पवन देव सुमेरू पर्वत पर रहते हैं।
पवन देव के बारे में पता चलते ही राजा ने बेताल को बुलाया। बेताल कुछ ही देर में उन्हें लेकर सुमेरू पर्वत पर पहुंचा दिया। पर्वत पर तेज हवाएं चल रही थीं, लेकिन पवन देव कहीं नहीं दिखे। फिर राजा विक्रमादित्य ने पवन देव का ध्यान लगाया। उनकी साधना से खुश होकर पवन देव वहां प्रकट हुए और कहा, “हे राजन! बताओ, मुझे क्यों याद किया।” जवाब देते हुए महाराज ने कहा, “हे देव, मेरी इच्छा है कि आप मेरे राज्य में होने वाले महायज्ञ में आएं। यज्ञ का निमंत्रण देने के लिए ही मैंने आपका ध्यान किया था।”
राजा विक्रमादित्य की बातें सुनने के बाद पवन देव ने मुस्कुराते हुए कहा कि वह यज्ञ में नहीं आ सकते। राज्य में उनके आने से भयंकर तूफान आएगा, जिससे सब कुछ तबाह हो सकता है। पवन देव ने विक्रमादित्य को समझाते हुए कहा कि वो संसार के हर कोने में मौजूद हैं। उनके यज्ञ में भी वो उपस्थित रहेंगे, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से।
पवन देव ने इतना कहने के बाद राजा विक्रमादित्य को आशीर्वाद दिया कि उनके राज्य में कभी सूखा और अकाल नहीं पड़ेगा। साथ ही इच्छाओं को पूरा करने वाली एक कामधेनु गाय भी उन्हें दी और वहां से चले गए। उसके बाद राजा भी बेताल की मदद से राज्य वापस आ गए।
इधर, राजा पवन देव से मिलकर लौट आए। उधर, समुद्र देवता से मिलने के लिए ब्राह्मण कई मुसीबतों का सामना कर रहे थे। जैसे-तैसे वह सागर के पास पहुंचे और समुद्र देवता को कई बार बुलाया, लेकिन समुद्र देवता प्रकट नहीं हुए। ब्राह्मण देव भी थकने वालों में से नहीं थे, वो बार-बार समुद्र देवता को बुलाते रहे। उनकी पुकार से खुश होकर समुद्र देवता प्रकट हुए और ब्राह्मण ने विक्रमादित्य के महायज्ञ के बारे में उन्हें बताया।
निमंत्रण मिलने के बाद समुद्र देव ने कहा कि उन्हें पवन देव से इस महायज्ञ के बारे में पता चल गया था, लेकिन वो यज्ञ में नहीं आ सकते। उन्होंने बताया कि अगर वो प्रत्यक्ष रूप से वहां आएंगे, तो पूरा राज्य बह जाएगा। इसी वजह से वो यज्ञ के दौरान जल की हर बूंद में अप्रत्यक्ष रूप से मौजूद रहेंगे।
इतना कहकर समुद्र देवता ने ब्राह्मण को पांच रत्न और एक घोड़ा देते हुए कहा कि ये सब उपहार महाराज विक्रमादित्य को दे देना। इतना कहने के बाद समुद्र देवता अदृश्य हो गए। अब ब्राह्मण तेजी से सारे उपहार लेकर राज्य की ओर चलने लगे। ब्राह्मण को पैदल चलता देखकर समुद्र देवता से मिले घोड़े ने ब्राह्मण से पूछा कि आप पैदल जाने की जगह मुझे अपनी सवारी क्यों नहीं बना लेते? ब्राह्मण चलते रहे, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। इस पर घोड़े ने उन्हें समझाया कि वह राजा के दूत हैं, इसलिए उपहार का इस्तेमाल कर सकते हैं। यह सुनकर ब्राह्मण घोड़े पर बैठे और कुछ ही देर में राजमहल पहुंच गए।
राज दरबार पहुंचते ही ब्राह्मण ने सारी बातें महाराज विक्रमादित्य को बताई। साथ ही समुद्र देवता द्वारा दिए गए उपहार भी उनको दे दिए। राजा ने खुश होकर कहा कि आपने अपना काम बहुत अच्छे से किया है, इसलिए इन सभी भेंट को आप रख लें। ब्राह्मण घोड़ा और रत्न लेकर खुशी-खुशी अपने घर को लौट गए।
इस कहानी को सुनाने के बाद ग्यारहवीं पुतली सिंहासन से उड़ गई।
कहानी से शिक्षा :-
कोशिश करने से हर काम पूरा हो जाता है। राजा विक्रमादित्य ने भी अंतिम समय तक कोशिश नहीं छोड़ी और आखिरकार पवन देव को उनके सामने आना ही पड़ा। इसलिए, बच्चों आपको भी जब तक सफलता न मिले, प्रयास करते रहना चाहिए।
पद्मावती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की बारहवीं कहानी
विक्रमादित्य की खूबियों के बारे में बताने के लिए इस बार बारहवीं पुतली सिंहासन से निकलती है। वह राजाभोज को राजा विक्रमादित्य और एक राक्षस की कहानी सुनाती है।
एक दिन राजा विक्रमादित्य अपने राज-पाठ का काम खत्म करके सुहाने मौसम का आनंद उठा रहे थे। तभी उन्हें एक महिला की चीख सुनाई दी। वह मदद के लिए के लिए लोगों को पुकार रही थी। उसकी आवाज सुनते ही राजा तलवार लेकर घोड़े पर सवार हुए और तेजी से आगे बढ़ने लगे। कुछ समय बाद राजा उस जगह पहुंच गए, जहां से महिला के चीखने की आवाज आ रही थी।
राजा ने देखा कि उस महिला के पीछे एक भयानक राक्षस पड़ा हुआ है। विक्रमादित्य बिना देरी किए अपने घोड़े से कूद गए। महाराज को अपने सामने देखकर महिला बिलखते हुए उनसे मदद मांगने लगी। तब राजा विक्रमादित्य ने कहा, “बहन, अब तुम्हारी जान मैं बचाऊंगा। तुम चिंता मत करो।”
इतने में वहां राक्षस पहुंच गया और राजा विक्रमादित्य से कहने लगा कि एक साधारण इंसान उससे युद्ध में जीत नहीं सकता है। फिर जोर-जोर से हंसते हुए राक्षस कहता है कि मैं पल भर में तुम्हें मार सकता हूं। इतना कहते ही राक्षस, तुरंत महाराज पर हमला करने के लिए आगे बढ़ता है।
राजा विक्रमादित्य राक्षस को चेतावनी देते हैं, लेकिन राक्षस ने उनकी एक नहीं सुनी। तभी विक्रमादित्य तलवार से राक्षस पर हमला कर देते हैं। राक्षस ने खुद को तलवार के हमले से बचाया और युद्ध करना शुरू किया। महाराज विक्रमादित्य काफी चतुर थे, इसलिए उन्होंने पहले राक्षस को थकाया। उसके बाद राक्षस का सिर काट दिया।
सिर कटने के बाद राजा को लगा कि राक्षस मर गया, लेकिन तभी उसके शरीर पर दोबारा कटा हुआ सिर जुड़ गया। साथ ही जहां उस राक्षस का रक्त गिरा था, वहां से दूसरा राक्षस पैदा हो गया। यह देखकर राजा विक्रमादित्य हैरान हो गए। फिर दोनों राक्षसों ने महाराज से लड़ाई करना शुरू कर दिया।
सबसे पहले रक्त से जन्मा हुआ राक्षस राजा पर हमला करता है। राजा चतुराई से उसके प्रहार से बचते हुए अपनी तलवार से उसके दोनों हाथ और पैर काट देते हैं। अपने साथी राक्षस को दर्द से तड़पता हुआ देखकर दूसरा राक्षस उसे लेकर वहां से भाग जाता है। राजा के पास उस दूसरे राक्षस पर हमला करने का मौका था, लेकिन राजा ने सोचा पीठ दिखाकर भागते हुए राक्षस पर हमला नहीं किया जाना चाहिए।
इसके बाद राजा सीधे उस महिला के पास चले गए। विक्रमादित्य ने उससे कहा “राक्षस डर कर भाग गया है, तुम मेरे साथ चलो। मैं तुम्हें तुम्हारे माता-पिता के पास पहुंचा दूंगा।” तभी वह महिला कहती है “अभी खतरा टला नहीं है, क्योंकि राक्षस मरा नहीं सिर्फ भागा है। वो दोबारा से आएगा।” उसकी बातें सुनकर राजा ने उसका नाम पूछा।
महिला बताती है “वह सिंहुल द्वीप में रहने वाले एक ब्राह्मण की बेटी है। एक दिन वो तालाब में अपनी सहेलियों के साथ नहाने गई थी। उसी दिन इस राक्षस की नजर मुझ पर पड़ी और वो मुझे उठाकर यहां अपने साथ ले आया। वह मुझसे शादी करना चाहता है, लेकिन मुझे उस राक्षस की पत्नी नहीं बनना।”
यह सुनकर राजा उस ब्राह्मण पुत्री से कहते हैं “मैं उस राक्षस को मारकर तुम्हें उससे आजाद करा दूंगा।” फिर विक्रमादित्य ने उससे राक्षस के बारे में पूछा कि वो दोबारा जिंदा कैसे हो रहा है। तब उस महिला ने बताया “राक्षस के पेट में एक मोहिनी रहती है, जो तुरंत उसके मुंह में अमृत डाल देती है। इसलिए, वह दोबारा जीवित हो जाता है, लेकिन वह रक्त से जन्मे दूसरे राक्षस को अमृत नहीं दे सकती है। इसलिए, उसके रक्त से जन्मा राक्षस दर्द से तड़प रहा था।”
फिर राजा ने स्त्री से मोहिनी के संबंध में पूछा, लेकिन ब्राह्मण पुत्री को उसके बारे में कुछ मालूम नहीं था। मोहिनी के बारे में सोचते हुए विक्रमादित्य पास के पेड़ के नीचे आराम करने लगे। तभी उन पर एक शेर ने हमला कर दिया। शेर के पहले हमले से राजा के हाथ पर चोट लग गई।
जैसे ही शेर ने राजा पर दूसरा हमला किया, महाराज विक्रमादित्य ने उस शेर के पैरों को पकड़कर उसे दूर फेंक दिया। तभी शेर अपने राक्षस रूप में आ गया। यह देखकर राजा समझ जाते हैं कि यह मायावी राक्षस है, जो छल से मुझसे हराने की कोशिश कर रहा है।
राजा तेजी से राक्षस के पीछे भागे और उससे युद्ध शुरू कर दिया। लड़ते-लड़ते जब राक्षस थक गया, तब राजा ने अपनी तलवार से उसके पेट पर हमला किया। राक्षस दर्द के कारण चिल्लाने लगा। इसके बाद विक्रमादित्य ने उसके पेट को तलवार से काट दिया। पेट के फटते ही मोहनी उससे बाहर निकलती है और अमृत लाने के लिए भागने लगती है।
इस देखकर विक्रम अपने बेतालों को बुलाकर मोहिनी को पकड़ने का आदेश देते हैं। काफी देर तक अमृत न मिलने की वजह से राक्षस तड़पकर मर जाता है। फिर महाराज विक्रमादित्य उस मोहिनी से पूछते हैं कि तुम कौन हो? मोहिनी बताती है “वह भगवान शिव की एक भक्त है, जिसे उसकी गलती के वजह से राक्षस की सेवा करनी पड़ रही थी। अब वह श्राप मुक्त हो गई है।”
इतना सुनते ही राजा अपने साथ मोहिनी और उस ब्राह्मण पुत्री को महल लेकर आते हैं। महिला के माता-पिता का पता लगाकर महाराज उसे उसके घर सकुशल पहुंचा देते हैं। उसके बाद राजा मोहिनी से शादी करके खुशी-खुशी अपने महल में रहने लगते हैं।
यह कहानी सुनाने के बाद बारहवीं पुतली राजा भोज से पूछती है कि क्या आप में हैं राजा विक्रमादित्य जैसे गुण और फिर वहां से उड़ जाती है।
कहानी से शिक्षा :-
लोगों की मदद करने से बड़ा कोई धर्म नहीं होता है और किसी तरह का काम मुश्किल नहीं होता। बस थोड़ा सोच-विचार कर कदम उठाना पड़ता है।
कीर्तिमती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की तेरहवीं कहानी
बारहवीं पुतली की कहानी को सुनकर जैसे ही राजा भोज महाराज विक्रमादित्य के सिंहासन की ओर बढ़े तभी वहां पर तेरहवीं पुतली आ गई। तेरहवीं पुतली का नाम कीर्तिमती था। उसने राजा भोज को यह पूछते हुए रोक लिया कि क्या राजा विक्रमादित्य में मौजूद सभी खूबियां आपके अंदर है? राजा भोज ने हाथ जोड़ते हुए निवेदन किया कि हे देवी! क्या आप उस खूबी के बारे में मुझे बता सकती हैं। तब कीर्तिमती ने महाराज विक्रमादित्य की कहानी कहना शुरू की।
बहुत समय पहले की बात है राजा विक्रमादित्य ने बड़े-बड़े विद्वानों को अपने दरबार में मंत्रणा के लिए बुलाया और निमंत्रण के तौर पर उन्हें खूब सारा धन दान में दिया। जब राजा विक्रमादित्य का दरबार लगा था, तो सभी विद्वान एक स्वर में बोलने लगे कि इस धरती पर महाराज विक्रमादित्य सबसे बड़े दानी है।
वहीं, महाराज ने एक ब्राह्मण को देखा जो शांत बैठा था। महाराज ने जब ब्राह्मण से उसके शांत होने का कारण पूछा, ताे ब्राह्मण ने कहा कि यदि राजा उसे अभय दान दें, तो वह कुछ बोलने की हिम्मत करेगा। तब राजा ने उसे वचन दिया। इसके बाद ब्राह्मण ने कहा कि महाराज बेशक आप बहुत बड़े दानी हैं, लेकिन सबसे बड़े दानी नहीं हैं।
ब्राह्मण के वचनों को सुनकर सभी दरबारी ब्राह्मण की ओर देखने लगे और महाराज ने ब्राह्मण की निडरता की तारीफ की। इसके बाद विक्रमादित्य ने पूछा कि तो फिर इस धरती पर सबसे बड़ा दानी कौन है? तब ब्राह्मण ने कहा कि समुद्र की दूसरी ओर बहुत सम्पन्न राज्य है, जिसके राजा कीर्कित्तध्वज सबसे बड़े दानी हैं। वे राेजाना जब तक एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दान नहीं करते, तब तक वह कुछ भी ग्रहण नहीं करते हैं। मैंने भी कुछ दिन तक उनके दरबार में जाकर दान ग्रहण किया था।
महाराज विक्रमादित्य ने ब्राह्मण की यह बात सुनकर उन्हें बहुत सारा धन देकर विदा किया और स्वयं बेताल की मदद से समुद्र के पार राजा कीर्कित्तध्वज के राज्य पहुंच गए। वे सीधा कीर्कित्तध्वज के दरबार में पहुंचे और उनसे अपने लिए एक नौकरी की मांग की।
कीर्कित्तध्वज ने महाराज से उनका परिचय पूछा, तो विक्रमादित्य ने कहा कि वे एक साधारण नागरिक हैं और नौकरी की तलाश कर रहे हैं। तब कीर्कित्तध्वज ने उनसे पूछा कि आप क्या काम कर सकते हैं। तब राजा विक्रमादित्य ने कहा कि जो काम कोई नहीं कर सकता, वह मैं कर सकता हूं।
राजा कीर्कित्तध्वज ने महाराज की यह बात सुनकर उन्हें अंगरक्षक के रूप में नियुक्त कर दिया। महाराज ने देखा कि राजा कीर्कित्तध्वज सच में रोजाना एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दान करता है, लेकिन इतनी स्वर्ण मुद्राएं राजा कीर्कित्तध्वज कहां से लाता है, यह जानने की विक्रमादित्य के मन में लालसा हुई।
महाराज विक्रमादित्य ने देखा था कि राजा कीर्कित्तध्वज रोज शाम को कहीं जाता है और लौटते समय एक थैली में स्वर्ण मुद्राएं लेकर आता है। आखिर कीर्कित्तध्वज स्वर्ण मुद्राओं से भरी थैली कहां से लाता है, यह जानने के लिए एक दिन विक्रमादित्य कीर्कित्तध्वज का पीछा करते हैं।
विक्रमादित्य नें देखा कि कीर्कित्तध्वज एक मंदिर में जाता है और नहा धोकर वहां पर मौजूद देवी की मूर्ति के सामने बड़े कड़ाहे में तेल डालकर उसमें कूद जाता है। महाराज यह देखकर चौंक जाते हैं। विक्रमादित्य आगे बढ़ने वाले होते ही हैं, लेकिन यह देखकर रूक जाते हैं कि वहां पर दो जोगनियां आती हैं और कीर्कित्तध्वज के शरीर को नोच-नोच कर खा जाती हैं।
जब जोगनियां चली जाती हैं, तो देवी प्रकट होती है और अमृत की बूंद से कीर्कित्तध्वज को जीवित कर देती हैं। कीर्कित्तध्वज के जीवित होने के बाद देवी कीर्कित्तध्वज को एक लाख स्वर्ण मुद्राएं देती हैं। उसके बाद राजा कीर्कित्तध्वज उन मुद्राएं को पाकर खुश होता है और वहां से चला जाता है।
राजा कीर्कित्तध्वज के जाने के बाद महाराज विक्रमादित्य ने भी स्नान करके वही प्रक्रिया दोहराई, जो राजा कीर्कित्तध्वज ने की थी। इसके बाद देवी ने प्रकट होकर महाराज विक्रमादित्य को भी जीवित कर दिया और उन्हें स्वर्ण मुद्राएं देनी चाही, लेकिन विक्रमादित्य ने यह कह कर मना कर दिया कि देवी की कृपा ही उनके लिए सब कुछ है।
इस प्रकार से विक्रमादित्य ने 7 बार इस क्रिया को लगातार दोहराया और सातवीं बार देवी ने उनसे बहुत प्रसन्न होकर उन्हें वरदान मांगने के लिए कहा। तब महाराज ने देवी से उस थैली को मांग लिया, जिसमें से वह एक लाख स्वर्ण मुद्राएं निकाल कर कीर्कित्तध्वज को देती थीं।
देवी वह थैली महाराज विक्रमादित्य को दे देती हैं, इसके बाद पूरा मंदिर वहां से गायब हो जाता है। दूसरे दिन जब राजा कीर्कित्तध्वज वहां जाता है, तो उसे वहां सिर्फ मैदान ही दिखाई देता है। मंदिर न मिलने पर कीर्कित्तध्वज दुखी हो जाता है। वह सोचता है कि उसकी रोजाना एक लाख स्वर्ण मुद्राएं देने का नियम अब टूट जाएगा। इस विचार के साथ वह अपने महल वापस आ जाता है और उदास होकर बैठ जाता है।
तभी विक्रमादित्य वहां पहुंच जाते हैं और कीर्कित्तध्वज से उनकी उदासी का कारण पूछते हैं। तब राजा कीर्कित्तध्वज उन्हें सारी बात बताते हैं। राजा कीर्कित्तध्वज की बात सुनकर महाराज विक्रमादित्य उनके हाथों में वह जादूई थैली रख देते हैं, जो उन्होंने देवी से हासिल की थी।
थैली को पाकर राजा कीर्कित्तध्वज को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ और उन्होंने विक्रमादित्य से उनकी सच्चाई जाननी चाही और पूछा कि आखिर देवी की यह थैली उन्हें कैसे मिली। तब महाराज विक्रमादित्य ने राजा कीर्कित्तध्वज को सारी बात बताई।
राजा कीर्कित्तध्वज को जब विक्रमादित्य की असलियत पता चली, तो उन्होंने विक्रमादित्य को गले से लगा लिया और कहा कि आप ही इस धरा पर सबसे बड़े दानी है। राजा कीर्कित्तध्वज से विदा लेकर महाराज विक्रमादित्य अपने राज्य वापस आ गए।
तेरहवीं पुतली से महाराज विक्रमादित्य के दान की बात सुनकर राजा भोज गदगद हो गए और इस कहानी को सुनाकर कीर्तिमती भी पहले वाली पुतलियों की तरह उड़ गई।
कहानी से शिक्षा :-
बच्चों इस कहानी से यही सीख मिलती है कि आप जितनी संयम और दयावान होंगे, आप विश्व में उतने ही ज्यादा प्रसिद्ध होंगे।
सुनयना पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की चौदहवीं कहानी
तेरहवीं पुतली कीर्तिमती की कहानी को सुनकर राजा भोज कुछ देर सोचने लगे और फिर वापस से सिंहासन पर बैठने के लिए आतुर हो गए। तभी उन्हें चौदहवीं पुतली जिसका नाम सुनयना था, उसने राेक लिया। उसने कहा कि राजा क्या आप में भी वो गुण है, जो आपको इस सिंहासन के योग्य बनाता है? जब राजा ने पूछा कि वो कौन-सा गुण है, जो महाराज विक्रमादित्य में था और मुझमें नहीं है। तब चौदहवीं पुतली ने उसे महाराज विक्रमादित्य की कहानी सुनाई।
महाराज विक्रमादित्य एक सर्व गुण सम्पन्न राजा थे। उनके राज्य में कोई भी दुखी नहीं था और वे छोटे-छोटे नागरिक की समस्या का समाधान भी करते थे। एक दिन उनके दरबार में कुछ किसान आए और प्रार्थना करने लगे कि महाराज हमारे राज्य में जंगल से निकल कर एक शेर आ गया है। वो राेजाना हमारे पशुओं को मारकर खा जाता है। कृप्या आप हमें इस मुसीबत से बचाइए। तब राजा ने उनसे कहा कि चिंता न करें हम कल ही उस शेर को इस राज्य से दूर किसी जंगल की ओर भगा देंगे।
चूंकि, महाराज विक्रमादित्य बहुत पराक्रमी थे, लेकिन वे किसी भी निहत्थे प्राणी को नहीं मारते थे, इसलिए उन्होंने सोचा कि वे कल उस शेर को किसी दूर जंगल में छोड़ आएंगे। अगले ही दिन वो कुछ सैनिकों के साथ उस शेर की तलाश में निकल पड़े। वह किसी खेत के पास वाली झाड़ियों में छुपा हुआ था। राजा ने देखते ही उसके पीछे अपना घोड़ा दौड़ा दिया। शेर ने जैसे ही घोड़े की टापों को सुना वह जंगल की ओर भागने लगा।
राजा विक्रमादित्य भी तेजी से उसका पीछा करने लगे और शेर का पीछा करते-करते वह अपने सभी सैनिकों को बहुत पीछे छोड़ देते हैं। वहीं, घना जंगल होने के कारण राजा रास्ता भी भटक जाते हैं। फिर भी वह शेर को ढूंढने का पूरा प्रयास करते हैं और एक जगह रूक कर अनुमान लगाने लगते हैं कि शेर किस ओर गया होगा।
तभी अचानक शेर ने झाड़ियों के पीछे से छलांग लगाई और राजा के घोड़े को घायल कर दिया। राजा ने शेर के इस वार को अपनी तलवार से रोक लिया और शेर को घायल कर दिया। शेर घायल होकर जंगल में कहीं दूर चला गया।
अब जबकि विक्रमादित्य का घोड़ा घायल हो गया था और वह रास्ता भी भटक गए थे, इसलिए वो चलते-चलते एक नदी के किनारे पर पहुंचे, जहां पर पानी पीते-पीते घोड़े ने दम तोड़ दिया। राजा को यह देखकर बहुत दुख हुआ। बहुत थका होने के कारण राजा वहीं एक पेड़ के नीचे बैठकर आराम करने लगे। तभी नदी में उन्हें एक शव बहता हुआ दिखाई दिया, जिसे दोनों ओर से कोई पकड़े हुए था। राजा ने गौर से देखा तो उसे पता चला कि शव को एक ओर से बेताल और दूसरी ओर से कापालिक ने पकड़ा हुआ है और दोनों शव पर अपना अधिकार जमा रहे हैं।
दोनों लड़ते हुए शव को किनारे पर ले आते हैं और राजा को देखकर उससे ही न्याय करने को बोलने लगते हैं और साथ ही शर्त रखते है कि यदि सही न्याय नहीं किया, तो वो राजा का वध कर देंगे। कापालिक ने कहा कि मैं इस शव के द्वारा अपनी साधना करना चाहता हूं और बेताल ने कहा कि मैं इससे अपनी भूख मिटाऊंगा। दोनों की बात सुनकर राजा ने भी कहा कि मैं जो कहूंगा दोनों उस बात को मानेंगे और न्याय के लिए आपको शुल्क देना होगा।
दोनों ने राजा की बात मान ली और बेताल ने राजा को एक मोहिनी काष्ठ का टुकड़ा दिया, जिसका चंदन घिसकर लगाकर राजा गायब हो सकते थे। कापालिक ने एक बटुआ दिया, जिससे कुछ भी मांगने पर वह दे सकता था। तब राजा ने बेताल से कहा कि तुम मेरे घोड़े से अपनी भूख मिटा सकते हो और कापालिक को उसने शव दे दिया। दोनों ने राजा के न्याय की प्रसंशा की और वहां से चले गए।
राजा को भूख लगी, तो उसने बटुए से भोजन मांग लिया और जंगली जानवरों से बचने के लिए अदृश्य हो गया। अगली सुबह वह बेतालों का स्मरण कर राज्य की सीमा पर पहुंच गए। रास्ते में राजा को एक भिखारी मिला, तो उन्होंने उसे कापालिक वाला बटुआ दे दिया, ताकि जिससे उसे कभी भोजन की कमी न रहे।
कहानी से शिक्षा:-
हमें इस कहानी से यह सीख मिलती है कि मुसीबत आने पर भी हमको कभी नहीं डरना चाहिए और अपनी बुद्धि का उपयोग करना चाहिए।
सुंदरवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की पन्द्रहवीं कहानी
जब राजा भोज फिर से सिंहासन की ओर बढ़ने लगे, तो पंद्रहवीं पुतली सुंदरवती ने उन्हें रोक दिया। उसने पूछा कि क्या आपके अंदर भी महाराज विक्रमादित्य जैसे ही प्रजा प्रेमी हैं? इतना कहकर पंद्रहवीं पुतली ने एक किस्सा सुनाना शुरू किया।
राजा विक्रमादित्य के शासन से उज्जैन की पूरी प्रजा खुश थी। सभी को राजा की दानवीरता और दयालुता पर गर्व था। उसी राज्य में महाराज विक्रमादित्य जैसा ही एक दयालु व्यापारी पन्नालाल भी रहता था। वो बिना किसी लालच के लोगों की हर दम मदद करता था। पन्नालाल का एक बेटा भी उसी के जैसा गुणवान था। दोनों बाप-बेटे की अच्छाई के बारे में पूरा उज्जैन जानता था।
कुछ समय बाद व्यापारी अपने बेटे की शादी के लिए लड़की ढूंढने लगे। तभी एक पंडित ने उन्हें बताया कि समुद्र के दूसरी ओर धनी राम नाम का एक व्यापारी रहता है, जो अपनी सुंदर और गुणवान बेटी के लिए लड़का ढूंढ रहा है। यदि आप कहें, तो उनसे विवाह की बात कर सकता हूं।
यह सुनते ही पन्नालाल ने पंडित को खर्च के लिए मुद्राएं देकर उसे धनी राम व्यापारी के पास भेज दिया। धनी राम को पंडित का प्रस्ताव अच्छा लगा और उन्होंने शादी के लिए हां कर दी। दोनों परिवार की सहमति के बाद शादी का शुभ मुहूर्त भी तय हो गया।
विवाह होने के कुछ दिन पहले उज्जैन में बहुत तेज बारिश होने लगी। तब पन्नालाल सेठ ने सोचा कि अगर इसी तरह बारिश होती रही, तो दूसरे राज्य जाकर बेटे की शादी कैसे कराएंगे? अगर वहां नहीं पहुंच पाए, तो बदनामी भी होगी। वह ऐसा सोच ही रहे थे कि पंडित ने पन्नालाल के चेहरे को देखकर उनकी चिंता समझ ली। पंडित से कहा, “सेठ जी, चिंता मत कीजिए। बस आप अपनी सारी समस्या महाराज विक्रमादित्य को जाकर बता दीजिए। उनके पास हवा से भी तेज चलने वाले रथ और घोड़े हैं। वो जरूर आपकी मदद करेंगे।”
सेठ सीधे महाराज विक्रमादित्य के दरबार पहुंचा और अपने मन की बात हिचकिचाते हुए कही। व्यापारी की परेशानी सुनकर महाराज ने कहा कि हर राजा की असली संपत्ति उसकी प्रजा ही होती है। आप राजमहल से रथ और घोड़े ले जा सकते हैं। व्यापारी के जाते ही विक्रमादित्य ने बेतालों को बुलाया और कहा कि बारिश बहुत तेज है, जाओ जाकर व्यापारी और उसके परिवार की रक्षा करो।
तभी व्यापारी अपने बेटे की शादी के लिए पूरे परिवार और रिश्तेदारों के साथ रथ लेकर दूसरे राज्य के लिए निकल गए। चलते-चलते वो समुद्र के किनारे पहुंच गए। गहरा पानी देखते ही व्यापारी के मन में हुआ कि अब रथ से समुद्र कैसे पार हो पाएगा। पन्नालाल यह सोच ही रहा था कि देखते ही देखते रथ पानी पर दौड़ने लगा। व्यापारी समय रहते ही पूरे परिवार के साथ विवाह स्थल पर पहुंच गए और धूमधाम से बेटे की शादी करके अपने नगर वापस आ गए।
नगर पहुंचते ही सबसे पहले पन्नालाल अपने बेटे और बहू को लेकर राज महल पहुंचे और राजा से मुलाकात की। राजा ने उन दोनों को आशीर्वाद देते हुए पन्नालाल को कहा कि आप रथ और घोड़े बच्चों को दे देना। ये सब मेरी तरफ से उनके लिए शादी का तोहफा है।
इतनी कहानी सुनाकर पंद्रहवीं पुतली भी उड़ गई और राजा भोज महाराज विक्रमादित्य का प्रजा प्रेम का किस्सा सुनकर खुश हो गए।
कहानी से शिक्षा:-
जरूरत पड़ने पर हमेशा दूसरों की मदद करनी चाहिए।
सत्यवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की सोलहवीं कहानी
राजा भोज दोबारा सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़े। तभी 16वीं पुतली सत्यवती सिंहासन से बाहर आई और राजा भोज को गद्दी पर बैठने से रोकते हुए कहा, “ हे राजन, मैं आपको राजा विक्रमादित्य का एक किस्सा सुनाऊंगी। अगर आपको लगता है कि आप भी उतने ही महान हैं, तो इस सिंहासन पर बैठ जाना।” इतना कहकर 16वीं पुलती सत्यवती ने कहानी सुनाना शुरू किया।
उज्जैन शहर में राजा विक्रमादित्य के शासन काल में उनके न्याय और महानता की चर्चा दूर-दूर तक थी। राजा ने अपने बड़े- बड़े फैसलों और सुझावों के लिए 9 लोगों की समिति बना रखी थी। इन लोगों से ही राजा विक्रमादित्य राज-काज संबंधित सुझाव भी लेते थे। एक बार धन-संपत्ति को लेकर कुछ बात शुरू हुई। तभी पाताल लोक की बात भी सामने आई और एक जानकार ने पाताल लोक के राजा शेषनाग की तारीफ की। उन्होंने बताया कि उनके लोक में सारी सुख-सुविधाएं हैं, क्योंकि वो भगवान विष्णु के खास सेवकों में से एक हैं। शेषनाग का स्थान भगवान के बराबर माना गया है और जो भी उनके दर्शन करता है उसका जीवन धन्य हो जाता है।
इतना सुनते ही राजा विक्रमादित्य ने पाताल लोक जाकर उनसे मिलने का मन बना लिया। तभी राजा विक्रमादित्य ने अपने बेतालों को याद किया और उनके साथ पाताल लोक पहुंच गए। वहां उन्होंने जानकारों की कही सारी बातों को सही पाया। जब शेषनाग को राजा विक्रमादित्य के आने की खबर मिली, तो वो उनसे मिलने पहुंच गए। राजा विक्रमादित्य ने शेषनाग को नमस्ते करते हुए अपना नाम और पाताल लोक आने का कारण बताया। राजा विक्रमादित्य की बातें सुनकर और उनके व्यवहार से शेषनाग इतने खुश हुए कि राजा विक्रमादित्य को जाते-जाते उपहार के तौर पर चार चमत्कारी रत्न दिए।
चारों रत्न की अपनी-अपनी खूबी थी। पहले रत्न से मनचाहा धन, दूसरे रत्न से मनचाहे कपड़े व गहने, तीसरे रत्न से किसी भी तरह की पालकी, घोड़ा या रथ और चौथे रत्न से मान-सम्मान मिल सकता था। रत्न मिलने के बाद राजा विक्रमादित्य ने शेषनाग को प्रणाम किया और अपने बेतालों के साथ राज्य लौट गए।
चारों रत्न लेकर राजा विक्रमादित्य अपने राज्य में प्रवेश कर ही रहे थे कि रास्ते में उनकी मुलाकात एक ब्राह्मण से हुई। ब्राह्मण ने राजा से पाताल लोक की यात्रा के बारे में पूछा। राजा ने वहां हुई सारी बातें बता दी। सब कुछ जानने के बाद अचानक ब्राह्मण ने राजा से कहा कि आपकी हर सफलता में प्रजा का भी सहयोग होता है। ब्राह्मण की इस बात को सुनते ही राजा विक्रमादित्य उनके मन की बात को समझ गए और तुरंत उन्होंने ब्राह्मण को अपनी इच्छा से एक रत्न लेने को कहा। यह देखकर ब्राह्मण थोड़ी उलझन में पड़ गए और उन्होंने कहा कि वो अपने परिवार के हर सदस्य की राय लेने के बाद ही रत्न लेंगे। राजा विक्रमादित्य उनकी बात मान गए।
फिर ब्राह्मण अपने घर पहुंचे और अपने परिवार में पत्नी, बेटे और बेटी को सारी बात बताई। तीनों ने ही तीन अलग-अलग रत्न लेने की इच्छा जताई। ब्राह्मण की उलझन अब और बढ़ गई थी। परिवार वालों की बात सुनकर ब्राह्मण दोबारा राजा विक्रमादित्य के पास पहुंचे और उन्हें अपनी दुविधा बताई। ब्राह्मण की बात सुनते ही राजा विक्रमादित्य ने हंसते हुए ब्राह्मण को चारों रत्न उपहार के रूप में दे दिए।
इतना कहते ही 16वीं पुतली सत्यवती ने कहा, “क्या तुम भी इतने दानी हो? अगर तुम्हारा दिल भी राजा विक्रमादित्य जितना बड़ा है, तो सिंहासन पर बैठ जाओ। अगर यह गुण तुम में नहीं है, तो इस सिंहासन पर बैठने के लायक बनकर आओ।” इतना कहकर 16वीं पुतली सिंहासन से उड़ गई और एक बार फिर राजा भोज सिंहासन पर नहीं बैठ पाए।
कहानी से शिक्षा:-
सच्चा राजा, राजनेता या संचालक वही होता है, जो धन-दौलत का लालच न करते हुए अपनी प्रजा और अपने साथ कार्य करने वालों को प्राथमिकता दे।
विद्यावती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की सत्रहवीं कहानी
राजा भोज एक बार फिर सिंहासन पर बैठने की इच्छा लेकर राजमहल पहुंचे। इस बार सिंहासन से 17वीं पुतली विद्यावती बाहर निकली और राजा भोज को सिंहासन पर बैठने से रोक दिया। 17वीं पुतली विद्यावती ने कहा, “सिंहासन पर बैठने से पहले राजा विक्रमादित्य की यह कहानी सुन लो।” इतना कहकर 17वीं पुतली ने विक्रमादित्य का किस्सा सुनाना शुरू किया।
राजा विक्रमादित्य के राज्य में उनकी प्रजा को किसी बात की कमी नहीं थी। राजा अपनी प्रजा को खूब खुश रखते थे, जब भी उनके दरबार में कोई अपनी परेशानी लेकर आता, तो राजा उसे तुरंत हल कर देते थे। अगर उनकी प्रजा को कोई तंग करता था, तो उसे वो कठोर सजा देते थे। इतना ही नहीं राजा विक्रमादित्य एक आदमी बनकर राज्य का दौरा भी करते थे, इसलिए उनकी प्रजा हमेशा खुश, निडर और संतुष्ट रहती थी।
एक बार राजा विक्रमादित्य वेश बदलकर अपने राज्य में घूम रहे थे। तभी उन्हें एक झोपड़ी से दो लोगों की आवाज सुनाई दी। उन्होंने सुना कि एक महिला राजा को जाकर कुछ बताने को कह रही थी, लेकिन वो व्यक्ति कह रहा था कि वो अपने स्वार्थ के लिए राजा की जान खतरे में नहीं डाल सकता है।
इन बातों को सुनते ही राजा समझ गए कि उन्हें कोई समस्या है और राजा भी इससे जुड़े हुए हैं। राजा विक्रमादित्य हमेशा अपनी प्रजा की परेशानियों को हल करना अपना कर्तव्य मानते थे। ऐसे में राजा विक्रमादित्य से रहा नहीं गया और उन्होंने झोपड़ी का दरवाजा खटखटाया। दरवाजे पर आवाज सुनकर ब्राह्मण दंपत्ति ने दरवाजा खोला। उनके दरवाजा खोलते ही राजा विक्रमादित्य ने अपने बारे में बताया और उनकी परेशानी पूछी।
राजा घर आए हैं जानते ही, दोनों पति-पत्नी डर गए। राजा ने उन्हें हिम्मत और भरोसा दिलाते हुए कहा कि आप अपनी बात बिना डरे कह सकते हैं। तब उन्होंने बताया कि उनकी शादी को बारह साल हो गए हैं, लेकिन उन्हें कोई बच्चा नहीं हुआ।
इन बारह सालों में उन्होंने संतान सुख के लिए कई व्रत-उपवास, पूजा-पाठ किए, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। फिर एक दिन ब्राह्मण की पत्नी ने सपना देखा कि एक देवी ने उन्हें कहा है कि तीस कोस दूर पूर्व दिशा में एक घने जंगल में कुछ साधु-संन्यासी शिव की आराधना करते हुए भगवान शिव को खुश करने के लिए वो हवन कुंड में अपने अंगों को काटकर डाल रहे हैं। उनकी तरह ही अगर राजा विक्रमादित्य भी वहां जाकर हवन कुंड में अपने अंग काटकर डाल दे, तो भगवान शिव उनसे खुश होकर उनकी इच्छा पूछेंगे। फिर राजा विक्रमादित्य भगवान शिव से उनके लिए बच्चे की मांग करेंगे। ऐसा करने से उन्हें संतान सुख मिल जाएगा।
इतना सुनते ही राजा विक्रमादित्य ने ब्राह्मण पति-पत्नी को भरोसा दिलाते हुए कहा कि वो ये सब जरूर करेंगे। इतना कहते ही राजा विक्रमादित्य वहां से निकल गए और रास्ते में बेतालों को याद किया। बेताल उनके सामने प्रकट हुए, तो राजा विक्रमादित्य ने उन्हें हवन की जगह पहुंचाने को कहा। राजा जैसे ही उस जगह पहुंचे, तो उन्होंने पाया कि वहां सच में कुछ साधु बैठकर हवन करते हुए अपने अंगों को काटकर हवन में डाल रहा था।
ये देखते ही राजा विक्रमादित्य भी वहां संन्यासी के बगल में बैठकर उनकी तरह ही अपने अंगों को काटकर हवन कुंड में डालने लगे। जब राजा विक्रमादित्य और साधु सारे जल गए, तो वहां एक शिवगण पहुंचा और सभी साधुओं को अमृत देकर जिंदा कर दिया, लेकिन गलती से उसने राजा विक्रमादित्य को अमृत नहीं दिया।
जब सारे साधु जिंदा हो गए, तो उनका ध्यान विक्रम पर गया, जो राख बन चुके थे। फिर सभी संन्यासियों ने मिलकर शिव की पूजा की और विक्रम को जिंदा करने की प्रार्थना की। भगवान शिव ने उनकी प्रार्थना सुन ली और राजा विक्रमादित्य को अमृत डालकर जिंदा कर दिया।
राजा विक्रमादित्य जैसे ही जीवित हुए, तो उन्होंने भगवान शिव के सामने हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर ब्राह्मण दंपत्ति के लिए संतान मांगी। भगवान शिव, राजा विक्रमादित्य के त्याग से खुश हुए और उनकी प्रार्थना सुन ली। इसके कुछ वक्त बाद ही ब्राह्मण दंपत्ति को संतान सुख प्राप्त हुआ।
ये कहानी सुनाते ही 17वीं पुतली विद्यावती ने राजा भोज से कहा, “क्या तुम में भी है ऐसी हिम्मत और त्याग की भावना? अगर हां, तो तुम इस सिंहासन के योग्य हो।” इतना कहने के बाद 17वीं पुतली विद्यावती उस सिंहासन से उड़ गई।
कहानी से शिक्षा :-
अगर कोई बिना किसी स्वार्थ के त्याग करता है, तो उसका कभी कुछ बुरा नहीं होता।
तारामती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की अठारहवीं कहानी
18वीं बार फिर राजा भोज सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ें। उन्होंने सोचा कि इस बार चाहे कुछ भी हो जाए, वो सिंहासन पर बैठकर ही रहेंगे। तभी सिंहासन से 18वीं पुतली तारामती बाहर निकली और राजा भोज को रोकते हुए बोली, “सिंहासन पर बैठने से पहले राजा विक्रमादित्य का यह किस्सा सुनिए।” उसके बाद पुतली तारामती ने कहानी सुनाना शुरू किया।
राजा विक्रमादित्य कलाकारों और विद्वानों का खूब सम्मान किया करते थे। उनके दरबार में कई महान कलाकार थे। अन्य राज्यों से भी योग्य कलाकार उनके दरबार आते-जाते रहते थे। एक दिन राजा विक्रमादित्य के दरबार में दक्षिण भारत से एक विद्वान पहुंचे। उनका मानना था कि किसी को धोखा देना सबसे बुरा और गिरा हुआ काम होता है। अपनी बात सही साबित करने के लिए उस विद्वान ने राजा विक्रमादित्य को एक कहानी सुनाई।
उस विद्वान ने कहा कि सालों पहले आर्यावर्त राज्य में एक राजा राज करता था। उसका भरा-पूरा और सुखी परिवार था। उस राजा ने सत्तर साल की उम्र में एक लड़की से शादी कर ली। वो नई रानी की खूबसूरती से इतना आकर्षित था कि उससे एक पल भी अलग नहीं होता था। राजा चाहता था कि हर वक्त रानी का चेहरा उसके सामने रहे। यहां तक कि राज दरबार में भी वो अपने बगल में नई रानी को बैठाने लगा।
नई रानी को बगल में बैठा देख कई लोग राजा के पीठ पीछे उनका मजाक बनाने लगे। राजा के महामंत्री को इस बात का बहुत बुरा लगता। एक दिन अकेले में महामंत्री ने राजा को इस बात की जानकारी दी। उसने राजा को कहा कि अगर वो हर पल रानी को अपने सामने देखना चाहते हैं, तो उनकी एक सुंदर तस्वीर बनवाकर राज दरबार में सिंहासन के सामने लगवा लें। जैसे कि राज दरबार में राजा के अकेले बैठने की ही परंपरा सालों से चली आ रही है। ऐसे में रानी को राज दरबार ले जाना उन्हें शोभा नहीं देता है।
महामंत्री राजा का खास था, इसलिए राजा ने उसकी बात को गंभीरता से लेते हुए अच्छे चित्रकार से रानी की तस्वीर बनाने को कहा। चित्रकार ने भी राजा का आदेश मिलने के बाद जल्दी रानी की तस्वीर बनाई और उसे राज दरबार लेकर चला गया। राज दरबार में जब लोगों ने रानी का चित्र देखा, तो हर कोई चित्रकार की तारीफ करने लगा। उस चित्रकार ने रानी की तस्वीर ऐसी बनाई थी कि वो तस्वीर एकदम असली लगती थी। राजा को भी रानी की तस्वीर बहुत पसंद आई।
तस्वीर को निहारते हुए राजा की नजर चित्र में रानी की जंघा पर गई। उस जगह पर चित्रकार ने एक तिल बनाया था। राजा को इस बात पर काफी गुस्सा आया। उन्हें लगा कि चित्रकार ने जांघों में तिल कैसे बना दिया। यह सोचकर राजा को बहुत गुस्सा आया और उसने चित्रकार से इसको लेकर सवाल पूछा। जवाब देते हुए चित्रकार ने कहा कि प्रकृति से उसे ऐसा गुण मिला है कि वो छिपी हुई बातें भी जान सकता है। इसी गुण की वजह से उसने यह तिल बनाया। साथ ही तिल से तस्वीर की सुंदरता भी बढ़ती है, इसलिए उसने तिल बनाया है।
राजा को उसकी बात पर भरोसा नहीं हुआ। उसने बिना देर किए जल्लादों को बुलाया और चित्रकार को जंगल ले जाकर मारने का आदेश दे दिया। साथ ही उसकी आंखें निकालकर राजमहल लाने को भी कहा। भले ही राजा को चित्रकार की बात पर भरोसा नहीं था, लेकिन महामंत्री को चित्रकार की विश्वास था। ऐसे में जंगल ले जाने के बाद मंत्री ने जल्लादों को धन का लालच देकर चित्रकार को रिहा करवा दिया। साथ ही उन्हें यह सुझाव दिया कि सबूत के तौर पर वो किसी हिरण की आंखें ले जाकर राजा को दे दें। इसी बीच महामंत्री चित्रकार को अपने घर ले आया और वो रूप बदलकर महामंत्री के घर में रहने लगा।
इतना सब होने के कुछ दिनों बाद राजा का बेटा शिकार करने के लिए जंगल गया। तभी उसके पीछे एक शेर पड़ गया। राजकुमार अपनी जान बचाने के लिए एक पेड़ पर जा चढ़ा। पेड़ पर वह बैठा ही था कि उसकी नजर वहां पहले से ही बैठे भालू पर पड़ी। राजकुमार और डर गया। उसको डरा हुआ देखकर भालू ने कहा, “ तुम डरो मत, मैं भी तुम्हारी तरह ही पेड़ पर शेर को देखकर चढ़ा हूं।” इसी बीच भूखा शेर उसी पेड़ के नीचे उन दोनों पर नजरें जमाकर बैठ गया। काफी देर तक पेड़ पर बैठे-बैठे राजकुमार को नींद आने लगी।
यह देखकर भालू ने राजकुमार को अपनी तरफ आने का इशारा किया और कहा कि वो थोड़ी देर उसका सहारा लेकर सो सकता है। भालू ने राजकुमार से कहा कि जबतक तुम सोओगे मैं तुम्हारी रखवाली करूंगा। फिर तुम जागने के बाद मेरी रखवाली करना और मैं सो जाऊंगा।”
राजकुमार ने भालू की बात मान ली और वो सो गया। इसी बीच शेर ने भालू को फुसलाते हुए कहा कि वो और भालू जंगल के जानवर हैं और उन दोनों को एक दूसरे का साथ देना चाहिए। मनुष्य कभी जंगल के जानवर के दोस्त नहीं हो सकते हैं। यह सब कहते हुए शेर ने राजकुमार को नीचे गिरा देने की बात कही, लेकिन भालू ने शेर की बात नहीं मानी और कहा कि वो राजकुमार के साथ धोखा नहीं कर सकता है।
शेर दुखी होकर चुपचाप वहीं बैठा रहा। इतने में कुछ घंटों की नींद पूरी करके राजकुमार उठ गया। उसके उठने के बाद अब भालू की सोने की बारी आई। जैसे ही भालू सोया, तो शेर ने राजकुमार को बहलाने-फुसलाने की कोशिश की। उसने राजकुमार से कहा कि वो भालू को नीचे गिरा दे, तो शेर उसे खाकर अपनी भूख मिटा लेगा और राजकुमार आराम से राजमहल लौट सकेगा।
राजकुमार शेर की बातों में आ गया और भालू को पेड़ से गिराने की कोशिश करने लगा। इसी बीच भालू की नींद खुल गई और भालू ने राजकुमार को विश्वासघाती बोलकर खूब खरी-खोटी सुनाई। राजकुमार को मन ही मन बहुत बुरा लगा। तभी उसकी आवाज चली गई और वो गूंगा हो गया।
इसी बीच शेर थक-हारकर जंगल की ओर अन्य शिकार ढूंढ़ने के लिए वहां से चला गया। फिर राजकुमार वापस अपने महल पहुंचा। उसकी आवाज जाने की वजह से वो कुछ नहीं बोल पा रहा था। राजकुमार की आवाज जाने से हर कोई परेशान हो गया। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि और वैद्य राजकुमार को देखने के लिए आएं, लेकिन राजकुमार की इस अवस्था का वो पता नहीं लगा पाएं।
इतने में महामंत्री अपने घर में छुपे उस चित्रकार को चिकित्सक बनाकर वहां ले आएं। चिकित्सक बने चित्रकार ने राजकुमार के चेहरे के हाव-भाव से सारी बात जान ली। उसने इशारों-इशारों में राजकुमार से पूछा कि क्या मन ही मन वो खुद को दोषी समझकर अपनी आवाज खो बैठा है?
इशारों में राजकुमार उसकी बात समझ गया और फिर फूट-फूट कर रोने लगा। रोती ही उसकी आवाज वापस आ गई। राजा बहुत हैरान हो गए और उन्होंने सोचा कि यह चिकित्सक राजकुमार का चेहरे देखकर सारी कैसे जान सकता है। तब उस चित्रकार ने कहा कि जैसे एक चित्रकार ने रानी का तिल देख लिया था, वैसे ही मैंने आपके बेटे का चेहरा देखकर ही सब कुछ जान लिया।
यह सुनते ही राजा को समझ आ गया कि वो कोई चिकित्सक नहीं, बल्कि कलाकार है। राजा ने चित्रकार से अपनी गलती की माफी मांगी और उसे कुछ उपहार देकर सम्मानित किया।
इतनी कहानी राजा विक्रमादित्य को सुनाकर विद्वान चुप हो गया। राजा विक्रमादित्य इस कहानी को सुनकर बहुत खुश हुए और उनकी बात मान ली कि धोखा देना सबसे बुरा काम है। इसके बाद राजा ने विद्वान को एक लाख सोने के सिक्कों से सम्मानित किया।
इतना कहते ही अठारहवीं पुतली तारामती ने कहा कि अगर तुम में भी दूसरों की बातों से सहमत होने और दूसरों की बातों का सम्मान करने का गुण है, तो तुम इस सिंहासन पर बैठ सकते हो। इतना कहकर अठारहवीं पुतली तारामती सिंहासन से उड़ गई और राजा भोज एक बार फिर सिंहासन पर बैठते-बैठते रह गए।
कहानी से शिक्षा : –
किसी के साथ कभी धोखा नहीं करना चाहिए। विश्वासघात का अंजाम बहुत बुरा होता है।
रूपरेखा पुतली की कथा - सिंहासन बत्तीसी की उन्नीसवी कहानी
हर बार की तरह इस बार भी राज भोज फिर से सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ते हैं, लेकिन तभी सिंहासन की उन्नीसवीं पुतली रूपरेखा उन्हें रोकती है और राजा विक्रमादित्य के गुणों की चर्चा करते हुए एक कहानी सुनाती है। अब पढ़ें आगे –
एक समय की बात है, राजा विक्रमादित्य के दरबार में दो तपस्वी अपने सवाल लेकर आए। राजा ने उनसे कहा, “हे साधु! बताइए आप दोनों के मन में कौन-से सवाल हैं।” इस पर एक तपस्वी ने कहा, “हे राजन! मेरा मानना है कि मनुष्य के मन का नियंत्रण उसके सभी कामों पर रहता है। वह कभी भी उसके खिलाफ नहीं जा सकता है।” जबकि, साथ आए दूसरे तपस्वी ने कहा, “नहीं राजन, मेरा मानना है कि मनुष्य का ज्ञान ही उसके सभी कामों को नियंत्रित करता है और मन भी
ज्ञान के अनुसार ही चलता है।”
राजा विक्रमादित्य ने दोनों तपस्वियों की बातें सुनी और उन्हें कुछ दिन बाद दरबार में आने को कहा। तपस्वियों के जाने के बाद राजा विक्रमादित्य दोनों सवालों के बारे में सोचने लगे और उन्हें ये सवाल बड़े अटपटे लगे।
एक पल के लिए उन्होंने सोचा कि पहले तपस्वी का कथन सही है। मन सच में चंचल होता है और इंसान उसके वश में आसानी से आ जाता है। दूसरे ही पल राजा ने ज्ञान के बारे में सोचा। उन्हें लगा कि दूसरे तपस्वी की बातें भी सही है। इंसान अपने मन की करने से पहले जरूर सोचता है और तभी निर्णय लेता है, ऐसे तो ज्ञान मन से ज्यादा प्रभावी है।
इन दोनों उलझे सवालों का जवाब ढूंढने के लिए राजा वेश बदलकर राज्य में निकल पड़े। कुछ दिनों तक घुमने के बाद उनकी नजर एक गरीब युवक पर पड़ी, जो एक पेड़ के नीचे बैठकर आराम कर रहा था। उस युवक के बगल में उसकी बैलगाड़ी खड़ी थी। राजा विक्रमादित्य उस युवक के पास गए और उन्होंने उस युवक को पहचान लिया। पेड़ के नीचे बैठा वह युवक उनके दोस्त सेठ गोपाल दास का छोटा बेटा था।
राजा को याद आया कि उनका दोस्त तो एक बहुत बड़ा व्यापारी था, जिसने खूब सारा धन कमाया था, लेकिन उनके छोटे बेटे की हालत देखकर महाराजा विक्रमादित्य सोच में पड़ गए। उन्होंने उस युवक से पूछा, “बालक तुम्हारा यह हाल कैसे हो गया? तुम्हारे पिता ने तो मरने से पहले सारा धन तुम दोनों भाइयों में बांट दिया था। तुम्हें तो इतना धन मिला होगा कि तुम्हारी जिंदगी आसानी से कट सकती थी, लेकिन तुम तो गरीब नजर आ रहे हो।”
इस पर युवक ने कहा, “पिता द्वारा धन बांटने के बाद उसके भाई ने बड़ी समझदारी के साथ धन का उपयोग किया। उसने अपने मन की चंचलता को शांत रखकर जरूरतों के हिसाब से पैसे खर्च किए। साथ ही दिन-रात मेहनत की और अपने व्यापार को आगे बढ़ाया, लेकिन मैंने धन को केवल बुरी आदतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया। मैंने जरा-सी भी सूझबूझ नहीं दिखाई। धन के नशे में मैं इतना चूर हो गया था कि अपने भाई के दिए हुए ज्ञान को समझ न पाया और आज मेरी यह हालत है।”
युवक ने आगे कहा, “अपने चंचल मन को नियंत्रित न कर पाने के कारण मैं एक साल के अंदर ही कंगाल हो गया। आज मैं दर-दर की ठोकरें खाता फिर रहा हूं, लेकिन मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है।”
पूरी बात सुनकर राजा विक्रमादित्य ने युवक से पूछा, “क्या दोबारा धन मिलने पर तुम फिर से अपने मन का ही सुनोगे?” युवक ने कहा, “नहीं, अब ऐसा कभी नहीं करूंगा। इन ठोकरों को खाने के बाद यह ज्ञान मुझे मिल गया है कि इंसान ज्ञान के बल पर अपने मन को भी वश में कर सकता है।”
युवक की बातों को सुनने के बाद राजा ने उसे अपना परिचय दिया। साथ ही कई स्वर्ण मुद्राएं देकर सद्बुद्धि के साथ व्यापार शुरू करने की सलाह दी। इसके बाद राजा वापस अपने महल लौट आए।
उस युवक से मिलने के बाद राजा विक्रमादित्य को दोनों तपस्वियों द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब मिल गए थे। इसलिए, उन्होंने अगले दिन दोनों को दरबार में बुलवाया। दोनों तपस्वी जब राजा के सामने पेश हुए, तो उन्होंने उन सवालों के जवाब दिए।
राजा ने कहा, “इंसान का मन बार-बार उसके शरीर पर नियंत्रण पाने की कोशिश करता है, लेकिन उसका ज्ञान उसे कभी हावी होने नहीं देता है। एक ज्ञानी व्यक्ति कभी भी मन के आगे नहीं हारता है और वह हमेशा अपने ज्ञान से ही चलता है।”
राजा ने उन दोनों तपस्वियों को उस गरीब युवक की कहानी सुनाई और कहा, “अगर मन रथ है, तो ज्ञान उसका सारथी होता है। बिना सारथी के रथ कुछ नहीं है।” राजा की बातें सुनने के बाद दोनों तपस्वियों को अपने सवालों के जवाब मिल गए थे।
राजा की बातों से प्रसन्न होकर दोनों तपस्वियों ने उन्हें एक खड़िया उपहार में दिया। इस खड़िया की एक खासियत थी कि इससे बनाए गए चित्र रात में जीवित हो सकते थे और उनकी बातों को भी सुना जा सकता है।
राजा विक्रमादित्य ने यह जानने के लिए कि खड़िया सच्चा है या नहीं, उन्होंने कई चित्र बनाए। खड़िया सचमुच वैसा ही निकला जैसा तपस्वी ने कहा था।
धीरे-धीरे राजा उसमें मग्न होते चले गए। यहां तक कि उन्हें अपनी रानियों की भी चिंता नहीं थी। कई दिनों बाद जब रानियां उनसे मिलने आईं, तो राजा का ध्यान बंटा। राजा ने जब खुद को देखा, तो जोर से हंस पड़े। इसपर रानियों ने पूछा, ” महाराज आप हंस क्यों रहे हैं?” तब राजा ने कहा, “दूसरों को शिक्षा देने वाला मैं खुद भी मन के आगे विवश हो गया था, लेकिन अब मुझे अपने कर्तव्य का पूरा ज्ञान है।”
इस कहानी को सुनाने के बाद उन्नीसवीं पुतली रूपरेखा राजा भोज से कहती है, “अगर तुम्हारे पास भी राजा विक्रमादित्य जैसी काबिलियत है, तो ही सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ना।” इतना कहकर पुतली वहां से उड़ जाती है और राजा भोज भी वहां से चले जाते हैं।
कहानी से शिक्षा :-
इस कहानी को पढ़ने के बाद बच्चों हमें यह सीख मिलती है कि इंसान को अपने मन को नियंत्रण में रखना चाहिए और सद्बुद्धि से काम लेना चाहिए। ऐसा नहीं करने वाला इंसान बर्बादी की तरफ ही बढ़ता है।
ज्ञानवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की बीसवीं कहानी
उन्नीसवीं पुतली की कहानी सुनने के बाद राजा भोज अगले दिन फिर से सिंहासन बत्तीसी पर बैठने आते हैं, तभी बीसवीं पुतली ज्ञानवती प्रकट होती है और उन्हें रोकती है। ज्ञानवती कहती है, “रुको राजन! इसपर बैठने से पहले राजा विक्रमादित्य के इस गुण के बारे में तो जान लो। इतना कहने के बाद बीसवीं पुतली ज्ञानवती कहानी सुनाना शुरू करती है, जो इस प्रकार है –
एक समय की बात है, राजा विक्रमादित्य जंगल में भ्रमण के लिए निकले थे। इसी दौरान उन्होंने दो लोगों को आपस में बातें करते सुना, जिनमें से एक ज्योतिषी था। ज्योतिषी ने वहां मौजूद अपने दोस्त से कहा, “मुझे ज्योतिष विद्या का पूरा ज्ञान प्राप्त है। मैं तुम्हारे भूत, वर्तमान और भविष्य के बारे में सब कुछ बता सकता हूं।” लेकिन, उसके दोस्त को उसकी बातों में कोई रुचि नहीं थी। इसलिए, उसने ज्योतिषी से कहा, “तुम्हें मेरे भूत और वर्तमान के बारे में पूरी जानकारी है, इसलिए तुम ये सब बता सकते हो और भविष्य के बारे में जानने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। इसलिए, अच्छा होगा अगर तुम अपने ज्ञान का बखान न करो।”
ज्योतिषी इतने पर भी नहीं चुप हुआ। उसने आगे कहा, “जंगल में बिखरी हुई इन हड्डियों को देखकर मैं यह बता सकता हूं कि यह कौन से जानवर की है और उसकी मृत्यु कैसे हुई।” इस बात में भी उसके दोस्त ने रुचि नहीं ली।
इसी दौरान उस ज्योतिषी की नजर जमीन पर छपे पंजों के निशानों पर पड़ी। यह देख उसने कहा, “ये पंजों के निशान किसी राजा के हैं, तुम चाहो तो इसकी जांच कर सकते हो।” ज्योतिषी ने बताया, “राजा-महाराजा के पैरों पर कमल के निशान होते हैं, जो यहां भी हैं। ये बात बिल्कुल सत्य है।” इस पर उसके दोस्त ने सोचा कि क्यों ने इस बार ज्योतिषी की बात की जांच कर ली जाए, नहीं तो वो अपने ज्ञान का बखान ऐसे ही करता रहेगा।
इसके बाद दोनों दोस्तों ने उन निशानों का पीछा करना शुरू किया और चलते-चलते उसकी समाप्ति तक पहुंचे। वहां उन्होंने एक लकड़हारे को देखा। ज्योतिषी ने उसे अपने पैरों को दिखाने को कहा। जब लकड़हारे ने अपना पैर दिखाया, तो ज्योतिषी चौंक गया। उसके पैरों पर वो कमल के निशान मौजूद थे। ज्योतिषी को लगा कि वह किसी राजा का ही पुत्र होगा, लेकिन शायद वो किसी कारण वश इस काम को करने के लिए मजबूर होगा। इसलिए, उसने लकड़हारे से उसका परिचय पूछा। तब लकड़हारे में बताया कि उसका जन्म लकड़हारे के घर में ही हुआ है। सदियों से उसके यहां यही काम चलता आ रहा है।
यह सुनने के बाद ज्योतिषी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसका भरोसा ज्योतिष विद्या से उठने लगा। उसका दोस्त भी उसकी इस विद्या का मजाक उड़ाने लगा। इसपर ज्योतिषी ने कहा, “ऐसा कैसे हो सकता है, चलो एक बार चलकर राजा विक्रमादित्य के पैरों को देखते हैं। अगर उनके पैरों पर ये निशान नहीं हुए, तो मैं अपनी हार स्वीकार कर लूंगा और समझूंगा कि ये सब बेकार है।” इस पर उसका दोस्त भी राजी हो गया और दोनों राजमहल की ओर चल दिए।
राज दरबार पहुंचकर उन्होंने महाराजा विक्रमादित्य से मिलने की इच्छा जताई। राजा ने दोनों को अंदर आने का आदेश दिया। यहां उस ज्योतिष ने राजा से अपना पैर दिखाने का आग्रह किया। राजा विक्रमादित्य ने जब अपने पैर दिखाए, तो ज्योतिषी फिर चकित हुआ। उसके बताए अनुसार राजा के पैरों पर किसी प्रकार के कोई चिन्ह नहीं थे, बल्कि उनका पैर भी आम लोगों जैसा ही था।
यह देखने बाद उस ज्योतिषी का भरोसा पूरे ज्योतिष विज्ञान से उठ गया। उसने राजा को बताया, “ज्योतिष विद्या के अनुसार, राजा-महाराजा के पैरों पर कमल का निशान होता है, लेकिन यहां ऐसा नहीं है। जबकि जंगल में एक लकड़हारे के पैरों पर ऐसा निशान मौजूद है, जिसका संबंध किसी भी राजघराने से नहीं है।”
ज्योतिषी की बातों को सुनने के बाद राजा विक्रमादित्य को बहुत हंसी आई। उन्होंने उससे पूछा, “ये सब देखने के बाद क्या तुम्हारा विश्वास ज्योतिष विद्या से उठ गया?” ज्योतिषी ने कहा, “जी महाराज, ये सब कुछ अपनी आंखों से देखने के बाद मेरा अब ज्योतिष विद्या पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं रहा।” इतना कहकर उसने राजा को प्रणाम किया और अपने दोस्त के साथ जाने की आज्ञा ली।
तभी राजा विक्रमादित्य ने दोनों को रुकने का आदेश दिया। फिर उन्होंने अपने सेवक से एक चाकू मंगवाया और अपने पैरों को कुरेदने लगे। जैसे-जैसे उनके पैरों की नकली चमड़ी हटती गई, कमल का निशान दिखने लगा। यह देखकर ज्योतिषी और उसका दोस्त चकित रह गए। उन्होंने राजा से पूछा, “हे राजन ये सब क्या है।” इस पर राजा ने कहा, “आप बहुत बड़े ज्ञानी हैं। आपके ज्ञान की सीमा बहुत बड़ी है, लेकिन यह तब तक अधूरी रहेगी जब तक आप इसका बखान करते रहेंगे।”
राजा ने बताया, “जंगल में आप दोनों की बातें मैंने सुन ली थी। वन में आपने जिस लकड़हारे से मुलाकात की वह मैं ही था। यह सब मैंने इसलिए किया ताकि आपको यह समझा सकूं कि एक ज्ञानी को कभी अपने ज्ञान का बखान करने की आवश्यकता नहीं होती।”
इस कहानी को सुनाने के बाद बीसवीं पुतली ज्ञानवती ने राजा भोज से कहा कि अगर आप भी राजा विक्रमादित्य की तरह गुणवान हैं, तो ही सिंहासन की ओर बढ़ें। इतना कहकर बीसवीं पुतली ज्ञानवती वहां से उड़ जाती है।
कहानी से शिक्षा :-
इस कहानी को पढ़ने के बाद बच्चों हमें यह सीख मिलती है कि इंसान को कभी भी अपने ज्ञान का बखान नहीं करना चाहिए। जिसके पास ज्ञान होता है, वह कभी उसका प्रचार नहीं करता है, बल्कि समय आने पर अपने ज्ञान का इस्तेमाल करता है।
चन्द्रज्योति पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की इक्कीसवीं कहानी
इस बार भी राजा भोज सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ते हैं और तभी इक्कीसवीं पुतली चन्द्रज्योति वहां प्रकट होती है। चन्द्रज्योति राजा भोज को रोकती है और साथ ही उन्हें राजा विक्रमादित्य के गुणों से जुड़ी एक कहानी सुनाती है, जो इस प्रकार है –
एक बार राजा विक्रमादित्य ने राज्य में एक यज्ञ कराने का सोचा। वह उस यज्ञ में चंद्र देव को भी बुलाना चाहते थे, लेकिन वो इस सोच में पड़ गए कि आखिर चंद्र देव को बुलाने कौन जाएगा। कुछ देर तक सोचने के बाद उन्होंने इस काम के लिए अपने महामंत्री को चुना।
राजा ने महामंत्री को अपने पास बुलाया और अपने विचार प्रकट किए। तभी एक नौकर दौड़ते-दौड़ते वहां पहुंचा। नौकर को देखकर महामंत्री उसके पास गए। नौकर ने उनके कान में धीरे से कुछ कहा, जिसे सुनने के बाद महामंत्री दुखी हो गए और राजा से विदा लेकर वहां से चले गए।
महामंत्री के यूं अचानक जाने से राजा को लगा कि कुछ परेशानी की बात है। इस बारे में उन्होंने उस नौकर से पूछा। तब नौकर ने बताया, “महामंत्री की एक ही बेटी है, जो लंबे समय से बीमार है। उसका इलाज कई वैद्य-हकीमों से कराया गया, पर वो ठीक नहीं हुई। दुनिया की हर दवाई और औषधि उसे दी गई, पर उसकी तबीयत और खराब होते जा रही है। आज तो उसकी हालत इतनी खराब हो गई कि वह हिल भी नहीं पा रही है, उसका बचना मुश्किल लग रहा है।”
इन बातों को सुनकर राजा बहुत दुखी हुए। उन्होंने तुरंत राजवैद्य को बुलवाया और पूछा, “क्या उन्होंने महामंत्री की बेटी का इलाज किया है?” इसपर राजवैद्य ने कहा, “महामंत्री की बेटी को अब बस ख्वांग बूटी से ही बचाया जा सकता है। इसके अलावा, उसका इलाज किसी और चीजों से नहीं हो सकता है। लेकिन यह बूटी बहुत मुश्किल से मिलती है। उसे खोजने में कई महीने लग जाएंगे।”
यह सुनने के बाद राजा ने वैद्य से पूछा, “वो जगह कौन सी है, जहां यह बूटी मिलती है?” तब राजवैद्य ने बताया, “नील रत्नागिरी की घाटियों में यह बूटी मिलती है, लेकिन इसे खोजना बहुत मुश्किल है। इसका रास्ता बहुत ही कठिन है।” लेकिन राजा इससे डरे नहीं। उन्होंने राज वैद्य से उस बूटी की पहचान पूछी, ताकि वो उसे पहचान सके। राज वैद्य ने बताया, “उस पौधे में आधे नीले और आधे पीले रंग का फूल खिलता है। उसकी पत्तियां लाजवन्ती नामक पौधे की तरह ही होती हैं और छूने से वे सिकुड़ जाती हैं।
इतना सुनने के बाद राजा यज्ञ को छोड़कर बूटी लाने के लिए निकल गए। उन्होंने तुरंत दोनों बैतालों को याद किया। बैताल उन्हें लेकर नील रत्नागिरी पहुंचे। राजा यहां से अकेले बूटी खोजने के लिए आगे बढ़ गए। तभी उन पर एक शेर ने हमला कर दिया। लेकिन राजा इतने ताकतवर थे कि उन्होंने शेर को मार दिया।
इसके बाद वो और आगे बढ़े, तभी एक बड़े से सांप ने उन्हें खा लिया। लेकिन राजा ने उसके पेट में चाकू मार कर खुद को बचा लिया। बूटी खोजते-खोजते शाम हो गई। राज ने सोचा कि थोड़ा आराम कर लिया जाए, फिर बूटी खोजेंगे। रात में उन्होंने सोचा कि काश चंद्र देव बूटी खोजने में उनकी मदद कर दें। तभी एक चमत्कार हुआ और चारों तरफ रोशनी फैल गई।
राजा ने जब उठकर देखा, तो उन्हें वो नीले और पीले रंग का फूल लगा पौधा दिखाई दिया। जब उन्होंने उसकी पत्तियों को छूआ, तो वो सिकुड़ गईं। राजा को समझ आ गया कि यह वही बूटी है, जिसे वो ढूंढने आए थे। उन्होंने तुरंत उस बूटी को अपने झोले में भर लिया। जैसे ही वो जाने लगे, तभी चंद्र देव उनके सामने आ गए और उन्होंने राजा को अमृत दिया। साथ ही कहा कि अब यह अमृत ही महामंत्री की बेटी को ठीक कर सकता है।
चंद्र देव ने राजा को कहा कि तुम्हारी मदद की भावना देख मैं बहुत खुश हूं। उन्होंने राजा को यह भी बताया कि अगर वो यज्ञ में आएंगे, तो दुनिया के कई भागों में अंधेरा छा जाएगा। इसलिए, वो वहां नहीं आ सकते। इसके बाद उन्होंने राजा को आशीर्वाद दिया और वहां से चले गए। इसके बाद राज तुरंत अपने महामंत्री के घर पहुंचे और अमृत पिलाकर उनकी बेटी को ठीक कर दिया। इसके बाद महामंत्री खुश हो गए और उन्होंने राजा को धन्यवाद दिया।
कहानी समाप्त होते ही इक्कीसवीं पुतली चन्द्रज्योति ने राजा भोज से कहा कि अगर आप में भी राजा विक्रमादित्य की तरह हिम्मत और अपनी प्रजा के लिए प्रेम की भावना है, तो ही सिंहासन की ओर आगे बढ़ें। यह कहकर चन्द्रज्योति वहां से उड़ जाती है और राजा भोज सोच में पड़ जाते हैं।
कहानी से शिक्षा :-
इस कहानी को पढ़ने के बाद बच्चों हमें यह सीख मिलती है कि हमें हमेशा दूसरों की मदद करनी चाहिए। जैसा इस कहानी में राजा ने मंत्री की बेटी के लिए किया।
बत्तीस पुतलियों के नाम :-
- रत्नमंजरी
- चित्रलेखा
- चन्द्रकला
- कामकंदला
- लीलावती
- रविभामा
- कौमुदी
- पुष्पवती
- मधुमालती
- प्रभावती
- त्रिलोचना
- पद्मावती
- कीर्तिमती
- सुनयना
- सुन्दरवती
- सत्यवती
- विद्यावती
- तारावती
- रुपरेखा
- ज्ञानवती
- चन्द्रज्योति
- अनुरोधवती
- धर्मवती
- करुणावती
- त्रिनेत्री
- मृगनयनी
- मलयवती
- वैदेही
- मानवती
- जयलक्ष्मी
- कौशल्या
- रानी रुपवती
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