सिंहासन बत्तीसी की कहानी भाग-1

 रत्नमंजरी पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की पहली कहानी

राजा भोज पहले दिन ही सिंहासन पर बैठने के लिए उत्सुक थे। जब पहले दिन राजा भोज ने सिंहासन पर बैठने की कोशिश की तभी सिंहासन से पहली पुतली रत्नमंजरी प्रकट हुई। पहली पुतली रत्नमंजरी ने राजा को अपना परिचय दिया और कहा कि यह सिंहासन विक्रमादित्य का है और उनके जैसा गुणवान और बुद्धिमान ही इस पर बैठने योग्य है। अगर यकीन नहीं होता, तो राजा विक्रमादित्य की यह कहानी सुनकर फैसला करना कि तुम में ऐसे गुण हैं या नहीं। इतना कहने के बाद पहली पुतली रत्नमंजरी ने राजा भोज को कहानी सुनाना शुरू किया।
            एक बार की बात है, अम्बावती नाम का एक राज्य था। वहां के राजा धर्मसेन ने चार वर्णों की स्त्रियों से चार शादियां की थीं। पहली स्त्री ब्राह्मण थी, दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र थी। ब्राह्मण स्त्री से हुए पुत्र का नाम ब्राह्मणीत था। क्षत्राणी से उन्हें तीन पुत्र थे, जिनके नाम थे  शंख, विक्रमादित्‍य और भर्तृहरि। वैश्‍य पत्नी से हुए पुत्र का नाम चंद्र था और शूद्राणी के बेटे का नाम धन्‍वतारि था। जब सभी लड़के बड़े हुए, तो ब्राह्मणी के बेटे को राजा ने दीवान बनाया। लेकिन, वह अपनी जिम्मेदारी ठीक तरह से संभाल न सका और वो राज्य छोड़कर चला गया। कुछ वक्त तक वो कई जगहों में भटका और फिर वह धारानगरी नाम के राज्य में पहुंचा और वहां उसे एक अच्छा ओहदा मिला। लेकिन, एक दिन उसने वहां के राजा को मार दिया और खुद राजा बन गया।
            कुछ वक्त बाद उसने उज्जैन आने का फैसला किया, लेकिन उज्जैन पहुंचते ही उसकी मौत हो गई। उसके बाद क्षत्राणी के बड़े बेटे शंख को लगा कि उसके पिता विक्रम को राज्य का राजा बना सकते हैं। ऐसे में उसने अपने सोते हुए पिता पर हमला कर उसे मार डाला और खुद को राजा घोषित कर दिया। सभी भाइयों को शंख के षड्यंत्र का पता चल गया और सब इधर-उधर निकल पड़ें। शंख ने ज्योतिषियों का सहारा लिया और उन्हें अपने भाइयों के बारे में ज्योतिष विद्या के सहारे से पता लगाने को कहा।
            ज्योतिषियों ने बताया कि विक्रम को छोड़कर उनके सभी भाई जंगली जानवरों का शिकार बन गए थे। विक्रम अब बहुत ज्ञानी हो चुका है और आगे चलकर बहुत बड़ा सम्राट बनेगा। यह सुनकर शंख को बहुत चिंता होने लगी और उसने विक्रम को मारने की योजना बनाई। शंख के मंत्रियों ने विक्रम को ढूंढ निकाला और शंख को इसकी जानकारी दी। शंख ने एक तांत्रिक के साथ विक्रम को मारने की योजना बनाई। उसने तांत्रिक से कहा कि वो विक्रम को काली की आराधना की बात बताए और उसे सिर झुकाकर काली की पूजा करने को कहे। जैसे ही विक्रम गर्दन झुकाएगा, तो वो उसकी गर्दन काट देगा। तांत्रिक विक्रम के पास गया और उसने शंख के कहे अनुसार विक्रम को काली की अराधना के लिए सिर झुकाने को कहा। शंख भी वहीं छिपा बैठा था। विक्रम ने खतरा महसूस कर लिया था। उसने तांत्रिक को सिर झुकाने की विधि बताने को कहा और तांत्रिक जैसे ही झुका शंख ने उसे विक्रम समझ कर उसकी गर्दन काट दी। इतने में विक्रमादित्य ने शंख के हाथ से तलवार लेकर उसकी भी गर्दन काट दी और अपने पिता की हत्या का बदला ले लिया।
            फिर विक्रमादित्य राजा बने और अपने राज्य और प्रजा का पूरा ध्यान रखने लगे। हर तरफ उनकी जय-जयकार होने लगी। एक दिन राजा विक्रमादित्य शिकार करने जंगल गए। उस जंगल में जाने के बाद राजा विक्रमादित्य को बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। इतने में उनकी नजर एक खूबसूरत महल पर पड़ी। वो अपने घोड़े पर सवार होकर उस महल में पहुंचे। वो महल राजा बाहुबल का था। राजा विक्रम जैसे ही वहां पहुंचे, तो वहां के दीवान ने राजा विक्रमादित्य को कहा कि वो बहुत मशहूर राजा बनेंगे। लेकिन, उसके लिए राजा बाहुबल को उनका राजतिलक करना होगा। साथ ही उसने यह भी कहा कि राजा बाहुबल बहुत दानी है और जैसे ही विक्रमादित्य को मौका मिले वो राजा से स्वर्ण जड़ित सिंहासन मांग लें। यह स्वर्ण जड़ित सिंहासन भगवान शंकर ने राजा को भेंट दिया था। वह सिंहासन राजा विक्रमादित्य को सम्राट बना सकता है।
            राजा बाहुबल ने विक्रमादित्य का अतिथि सत्कार और राज तिलक किया। इस दौरान विक्रमादित्य ने सिंहासन की मांग की और राजा बाहुबल ने विक्रमादित्य को उसका सही हकदार समझते हुए बिना संकोच सिंहासन दे दिया। कुछ दिनों तक बाहुबल के महल में रहने के बाद राजा विक्रमादित्य सिंहासन लेकर अपने राज्य वापस आ गए। सिंहासन की बात दूर-दूर तक फैल गई। हर कोई राजा विक्रमादित्य को बधाई दे रहा था।
            इतना सुनाते ही पुतली रत्नमंजरी ने कहा कि राजा भोज अगर ऐसा कोई काम आपने भी किया है, तो आप इस सिंहासन पर बैठ सकते हैं। यह कहने के बाद पहली पुतली रत्नमंजरी उड़ गई। यह सुनकर राजा भोज ने उस दिन सिंहासन पर बैठने का फैसला टाल दिया और सोचा कि अगले दिन आऊंगा और सिंहासन पर बैठूंगा।

कहानी से शिक्षा – इस कहानी से यही शिक्षा मिलती है कि कभी लालच नहीं करना चाहिए और दूसरों का बुरा नहीं सोचना चाहिए। जो दूसरों का बुरा चाहते हैं, उनके साथ कभी अच्छा नहीं होता है।

चित्रलेखा पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की दूसरी कहानी

एक बार राजा विक्रमादित्य की इच्छा योग साधने की हुई। अपना राजपाट अपने छोटे भाई भर्तृहरि को सौंपकर जंगल में चले गए।
            एक दिन राजा भर्तृहरि शिकार खेलते-खेलते एक ऊँचे पहाड़ पर आए। वहाँ उन्होंने देखा एक साधु तपस्या कर रहा है। साधु की तपस्या में विघ्न नहीं पड़े यह सोचकर वे उसे श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके लौटने लगे। उनके मुड़ते ही साधु ने आवाज़ दी और उन्हें रुकने को कहा। राजा भर्तृहरि रुक गए और साधु ने उनसे प्रसन्न होकर उन्हें एक फल दिया। उसने कहा- "जो भी इस फल को खाएगा तेजस्वी और यशस्वी पुत्र प्राप्त करेगा। फल प्राप्त कर जब वे लौट रहे थे, तो उनकी नज़र एक तेज़ी से दौड़ती महिला पर पड़ी। दौड़ते-दौड़ते एक कुँए के पास आई और छलांग लगाने को उद्यत हुई। राजा भर्तृहरि ने उसे थाम लिया और इस प्रकार आत्महत्या करने का कारण जानना चाहा। महिला ने बताया कि उसकी कई लड़कियाँ हैं पर पुत्र एक भी नहीं। चूँकि हर बार लड़की ही जन्म लेती है, इसलिए उसका पति उससे नाराज है और गाली-गलौज तथा मार-पीट करता है। वह इस दुर्दशा से तंग होकर आत्महत्या करने जा रही थी। राजा ने साधु वाला फल उसे दे दिया तथा आश्वासन दिया कि अगर उसका पति फल खाएगा, तो इस बार उसे पुत्र ही होगा। कुछ दिन बीत गए।
            एक दिन एक ब्राह्मण राजा भर्तृहरि के पास आया और उसने वही फल उसे भेट किया। ब्राह्मण को विदा करने के बाद वे फल लेकर अपनी पत्नी के पास आए और उसे वह फल दे दिया। राजा की पत्नी भी चरित्रहीन थी और नगर के कोतवाल से प्रेम करती थी। उसने वह फल नगर कोतवाल को दिया ताकि उसके घर यशस्वी पुत्र जन्म ले। नगर कोतवाल एक वेश्या के प्रेम में पागल था और उसने वह फल उस वेश्या को दे दिया। वेश्या ने सोचा कि वेश्या का पुत्र लाख यशस्वी हो तो भी उसे सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त हो सकती है। उसने काफी सोचने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि इस फल को खाने का असली अधिकारी राजा ही है। उसका पुत्र उसी की तरह योग्य और सामर्थ्यवान होगा तो प्रजा की देख-रेख अच्छी तरहा होगी और सभी खुश रहेगे। यही सोचकर उसने राजा को वह फल भेंट कर दिया। फल को देखकर राजा ठगे-से रह गए। उन्होंने पड़ताल कराई तो नगर कोतवाल और रानी के सम्बन्ध का पता चल गया। वे इतने दुखी और खिन्न हो गए कि राज्य को ज्यों का त्यों छोड़कर वन चले गए और कठिन तपस्या करने लगे।
            चूँकि विक्रमादित्य देवताओं और मनुष्यों को समान रुप से प्रिय थे, देवराज इन्द्र ने उनकी अनुपस्थिति में राज्य की रक्षा के लिए एक शक्तिशाली देव भेज दिया। वह देव नृपविहीन राज्य की बड़ी मुस्तैदी से रक्षा तथा पहरेदारी करने लगा। कुछ दिनों के बाद विक्रमादित्य का मन अपनी प्रजा को देखने को करने लगा। जब उन्होंने अपने राज्य में प्रवेश करने की चेष्टा की तो देव सामने आ खड़ा हुआ। उसे अपनी वास्तविक पहचान देने के लिए विक्रम ने उससे युद्ध किया और पराजित किया। पराजित देव मान गया कि उसे हराने वाले विक्रमादित्य ही हैं और उसने उन्हें बताया कि उनका एक पिछले जन्म का शत्रु यहाँ आ पहुँचा है और सिद्धि कर रहा है। वह उन्हें खत्म करने का हर सम्भव प्रयास करेगा।
            यदि विक्रम ने उसका वध कर दिया तो लम्बे समय तक वे निर्विघ्न राज्य करेंगे। योगी के बारे में सब कुछ बताकर उस देव ने राजा से अनुमति ली और चला गया। राजा की चरित्रहीन पत्नी तब तक ग्लानि से विष खाकर मर चुकी थी। विक्रम ने आकर अपना राजपाट सम्भाल लिया और राज्य का सभी काम सुचारुपूर्वक चलने लगा। कुछ दिनों के बाद उनके दरबार में वह योगी आ पहुँचा। उसने विक्रम को एक ऐसा फल दिया जिसे काटने पर एक कीमती रत्न निकला। पारितोषिक के बदले उसने विक्रम से उनकी सहायता की कामना की। विक्रम सहर्ष तैयार हो गए और उसके साथ चल पड़े। वे दोनों श्मशान पहुँचे तो योगी ने बताया कि एक पेड़ पर बेताल लटक रहा है और एक सिद्धि के लिए उसे बेताल की आवश्यकता है। उसने विक्रम से अनुरोध किया कि वे बेताल को उतार कर उसके पास ले आएँ।
            विक्रम उस पेड़ से बेताल को उतार कर कंधे पर लादकर लाने की कोशिश करने लगे। बेताल बार-बार उनकी असावधानी का फायदा उठा कर उड़ जाता और पेड़ पर लटक जाता। ऐसा चौबीस बार हुआ। हर बार बेताल रास्ते में विक्रम को एक कहानी सुनाता। पच्चीसवीं बार बेताल ने विक्रम को बताया कि जिस योगी ने उसे लाने भेजा है वह दुष्ट और धोखेबाज़ है। उसकी तांत्रिक सिद्धी की आज समाप्ति है तथा आज वह विक्रम की बलि दे देगा जब विक्रम देवी के सामने सर झुकाएगा। राजा की बलि से ही उसकी सिद्धि पूरी हो सकती है।
            विक्रम को तुरन्त इन्द्र के देव की चेतावनी याद आई। उन्होंने बेताल को धन्यवाद दिया और उसे लादकर योगी के पास आए। योगी उसे देखकर अत्यन्त हर्षित हुआ और विक्रम से देवी के चरणों में सर झुकाने को कहा। विक्रम ने योगी को सर झुकाकर सर झुकाने की विधि बतलाने को कहा। ज्योंहि योगी ने अपना सर देवी चरणों में झुकाया कि विक्रम ने तलवार से उसकी गर्दन काट दी। देवी बलि पाकर प्रसन्न हुईं और उन्होंने विक्रम को दो बेताल सेवक दिए। उन्होंने कहा कि स्मरण करते ही ये दोनों बेताल विक्रम की सेवा में उपस्थित हो जाएँगे। विक्रम देवी का आशीष पाकर आनन्दपूर्वक वापस महल लौटे।
कहानी से शिक्षा :-
अपनी जानकारी पर भरोसा रखना चाहिए। कई बार गलतफहमी की वजह से लोग ऐसी जानकारी दे देते हैं, जो सही नहीं होती। 

चन्द्रकला पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की तीसरी कहानी

राजा विक्रमादित्य के गुणों का बखान करने के लिए उनके सिंहासन से इस बार तीसरी पुतली निकलती है। वह राजाभोज को विक्रमादित्य की ‘भाग्य और पुरुषार्थ’ की कहानी सुनाती है, जो इस प्रकार है।
            एक बार भाग्य और पुरुषार्थ के बीच इस बात को लेकर बहस हुई कि उन दोनों में से सबसे बड़ा कौन है। भाग्य ने कहा कि हर किसी को जो भी मिलता है, वह भाग्य से ही मिलता है। यह सुनकर पुरुषार्थ कहने लगा कि बिना मेहनत किए कुछ भी हासिल नहीं होता है। दोनों के बीच कई दिनों तक इस बात पर बहस होती रही। देखते-ही-देखते बात इतनी बढ़ गई कि दोनों ने इसके समाधान के लिए देवताओं के राजा इन्द्र के पास जाने की ठान ली।
            दोनों इंद्र देव के पास पहुंचकर इस सवाल का जवाब मांगने लगे, लेकिन मामला गंभीर होने की वजह से देवराज को भी कुछ समझ नहीं आया। फिर देवराज इंद्र ने उन दोनों को राजा विक्रमादित्य के पास जाने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि राजा ही इस बात का जवाब दे सकते हैं कि आप दोनों में से कौन सबसे बड़ा है। इतना सुनते ही भाग्य और पुरुषार्थ तुरंत मानव भेष में विक्रमादित्य के पास पहुंच गए।
            राजा के दरबार पहुंचकर भाग्य और पुरुषार्थ ने अपने झगड़े की वजह उन्हें बताई। उस वक्त विक्रमादित्य को भी इसका कोई उचित जवाब नहीं सूझा। तब राजा ने दोनों से 6 महीने का समय मांगा। इस दौरान भाग्य और पुरुषार्थ के सवाल का उन्हें कोई जवाब समझ नहीं आता। तब राजा सही जवाब की तलाश में अपने राज्य में जनता के बीच सामान्य नागरिक का भेष बनकर घूमने लगते हैं।
            राजा को काफी कोशिश के बाद भी अपने राज्य में इस बात का सही जवाब नहीं मिलता। फिर राजा भेष बदलकर दूसरे राज्य में जाने का फैसला लेते हैं। ऐसा करते-करते राजा कई राज्य पहुंच जाते हैं, लेकिन उन्हें जवाब नहीं मिलता। इस दौरान राजा एक व्यापारी के पास जाकर काम मांगते हैं और कहते हैं कि वो ऐसे काम कर सकते हैं, जो कोई अन्य नहीं कर सकता।
            कुछ दिन बाद व्यापारी बाहर काम के लिए राजा विक्रमादित्य के साथ जहाज से जाता है। कुछ दूर जाते ही अचानक तेज तूफान आने लगता है और जहाज एक टापू के पास फंस जाता है। तूफान थमने के बाद जहाज को टापू से बाहर निकालने के लिए लोहे का कांटा उठाना होता है। व्यापारी ने राजा को उसे उठाने के लिए कहा। जैसे ही राजा ऐसा करता है, तो जहाज तेजी से आगे निकल जाता है और विक्रमादित्य टापू पर ही छूट जाते हैं।
            टापू पर छूटने के बाद राजा कुछ देर आगे चलते हैं, तो उन्हें वहां एक नगर दिखाई दिया। नगर के गेट में लिखा हुआ था कि यहां के राजा की बेटी का विवाह महाराज विक्रमादित्य के साथ होगा। यह पढ़कर राजा चौंक गए और महल में चले गए। वहां पहुंचते ही उनकी मुलाकात राजकुमारी से होती है। कुछ दिनों के बाद दोनों की शादी हो जाती है।
            महल में कुछ दिन बीताने के बाद राजा विक्रमादित्य अपनी पत्नी व राज्य की राजकुमारी को लेकर अपने राज्य की ओर निकल जाते हैं। रास्ते में राजा की भेंट एक संन्यासी से होती है। वह संन्यासी चमत्कारी माला व एक छड़ी राजा को देता है। संन्यासी ने राजा को बताया कि इस माला को पहनने पर व्यक्ति अदृश्य हो जाता है और छड़ी से सोने से पहले जो भी मांगा जाए, वो मिल जाता है। राजा संन्यासी को उपहार के लिए धन्यवाद कहते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।
            राजा महल पहुंचकर राजकुमारी को अंदर कमरे में भेज देते हैं और खुद बगीचे में चले जाते हैं। वहां उनकी मुलाकात एक गायक और ब्राह्मण से होती है। दोनों ने राजा को बताया कि वो इस दिन का सालों से इंतजार कर रहे थे। राजा विक्रमादित्य ने पूछा कि ऐसी क्या बात है कि वो सालों से उनकी राह देख रहे थे। दोनों ने बताया कि वो गरीब हैं और सालों से बगीचे में ये सोचकर मेहनत कर रहे हैं कि एक दिन राजा उनके सब दुखों को दूर कर देंगे।
            इतना सब सुनते ही राजा ने संन्यासी से मिली माला गायक को दे दी और छड़ी ब्राह्मण को। उसके बाद राजा अपने दरबार चले गए। 6 महीने बीतने के बाद भाग्य और पुरुषार्थ दोनों राजा के सभा में आए। विक्रमादित्य उन दोनों को बीते छह महीने की सभी घटनाएं सुनाते हैं। इतना कहकर राजा दोनों को समझते हुए कहते हैं कि छड़ी और माला का उन्हें मिलना भाग्य था और गायक व ब्राह्मण को यह पुरुषार्थ की वजह से मिला। इसी वजह से भाग्य और पुरुषार्थ दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इनमें कोई छोटा या बड़ा नहीं हो सकता है। दोनों राजा का जवाब सुनकर संतुष्ट हो गए और वहां से चले गए।
                        इतनी कहानी सुनाकर पुतली राजा विक्रमादित्य के सिंहासन से उड़ जाती है।
कहानी से शिक्षा :-
कोई भी बड़ा और छोटा नहीं होता। हर चीज और हर कर्म का अपना महत्व होता है।

कामकंदला पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की चौथी कहानी

एक बार फिर राजा भोज सिंहासन पर बैठने के लिए पहुंचते हैं। इस बार उन्हें चौथी पुतली रोककर राजा विक्रामादित्य की दानवीरता और त्याग की कहानी सुनाने लगती है।
            एक बार की बात है, राजा विक्रमादित्य से दरबार में मिलने के लिए कुछ लोग पहुंचे। तभी एक ब्राह्मण भी भागते हुए वहां आए और कहने लगे कि मुझे आपको कुछ जरूरी बात बतानी है। राजा ने पूछा ऐसा क्या जरूरी है कि आपको इतनी तेजी से भागते हुए आना पड़ा?
            जवाब में ब्राह्मण ने कहा कि मानसरोवर में अजीब-सी घटना हो रही है। वहां सूरज उगने के साथ ही एक खंभा भी जमीन से निकलता है। यह खंभा सूरज की रोशनी के साथ-साथ ऊपर बढ़ता है। जैसे ही सूरज की किरणें तेज हो जाती हैं, तो खंभा सूरज को छू लेता है। जब धीरे-धीरे सूरज की रोशनी कम होती है, तो खंभा छोटा हो जाता है। फिर सूरज के ढलते ही खंभा भी गायब हो जाता है।
            इन बातों को सुनने के बाद राजा विक्रामादित्य हैरान रह गए। उनके मन में सवाल आया कि आखिर ऐसी कौन सी चीज है, जो सूरज को छू रही है। तभी ब्राह्मण ने बताया कि वह खंभा भगवान इंद्र का रूप है। सूर्य देव को घमंड है कि उनके तेज को कोई सहन नहीं कर सकता, लेकिन इंद्र देव ने उनसे दावा किया है कि धरती का एक राजा उनका तेज सहन कर सकता है।
            यह सब सुनकर राजा विक्रमादित्य सारी बात समझ गए। तभी ब्राह्मण ने बताया कि देवराज इंद्र ने ही उन्हें राजमहल भेजा है। महाराज ने ब्राह्मण को ढेर सारी मुद्रा देकर महल से विदा किया। उनके जाते ही विक्रमादित्य ने अपने बेताल को बुलाकर मानसरोवर पहुंचाने को कहा। वहां पहुंचते ही विक्रमादित्य खंभा निकलने वाली जगह पर गए और सुबह होने का इंतजार करने लगे।
            सुबह सूरज के उगते ही खंभा भी निकल गया। राजा विक्रमादित्य ने जैसे ही खंभे को देखा, वो उस पर चढ़ गए। धीरे-धीरे सूरज की रोशनी बढ़ने लगी और खंभा भी ऊपर बढ़ता गया। उस खंभे के साथ-साथ राजा विक्रमादित्य भी सूरज के करीब पहुंचते गए। दोपहर होते-होते खंभा सूरज के एकदम नजदीक पहुंच गया, लेकिन तब तक राजा पूरी तरह से जल कर राख हो गए।
            जब सूर्य देवता ने खंभे पर जला हुआ मानव शरीर देखा, तो वो समझ गए कि यह राजा विक्रमादित्य ही हैं। उन्होंने भगवान इंद्र के दावे को बिल्कुल सही पाया और तुरंत अमृत की कुछ बूंदे राजा के मुंह में डालकर उन्हें जिंदा कर दिया। सूर्य देवता ने राजा की हिम्मत से खुश होकर उन्हें ऐसे सोने के कुंडल दिए, जो व्यक्ति की हर इच्छा को पूरा करते थे। फिर सूरज की रोशनी कम होने लगी और खंभा भी नीचे आ गया।

            नीचे आते ही राजा विक्रमादित्य ने बेताल को बुलाया और अपने महल वापस चले गए। उसी दौरान उन्हें एक ब्राह्मण मिला, जिसने राजा से कुछ दान करने को कहा। महाराज ने खुशी-खुशी उस ब्राह्मण को सूर्य देव से मिले कुंडल दे दिए और बताया कि कुंडल उनकी सभी इच्छा को पूरी कर सकते हैं। 
इतना कहकर राजा अपने कमरे में चले गए।

यह कहानी सुनाने के बाद चौथी पुतली सिंहासन से उड़ गई।
कहानी से शिक्षा :-

इंसान के मन में हमेशा त्याग और दान की भावना होनी चाहिए। जैसे इस कहानी में राजा विक्रमादित्य ने उपहार में मिले कुंडल ब्राह्मण को दान में दे दिए, उसी तरह हमें भी निस्वार्थ भाव से दूसरों की मदद करनी चाहिए।

लीलावती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की पांचवीं कहानी

हर बार की तरह पांचवें दिन फिर से राजा भोज सिंहासन पर बैठने के लिए उत्सुकता से आगे बढ़े। सिंहासन की तरफ कदम बढ़ाते ही उसमें से पांचवीं पुतली बाहर आई और उसने अपना नाम लीलावती बताया। लीलावती ने राजा भोज से कहा, “राजन, राजा विक्रमादित्य वीर होने के साथ-साथ बड़े दानी भी थे। अगर आप भी उन्हीं की तरह एक दानवीर हैं, तो ही आप इस सिंहासन पर बैठ सकते हैं। इतना कहकर लीलावती ने विक्रमादित्य की दानवीरता की कथा सुनानी शुरू की।
            एक बार राजा विक्रमादित्य के दरबार में एक ब्राह्मण आया। वह राजा से मिला और उसने कहा कि अगर आप तुला लग्न में एक महल बनवाएंगे, तो उनकी प्रजा में खुशहाली आएगी और उनकी कीर्ति चारों ओर हो जाएगी। राजा को उस ब्राह्मण की बात सही लगी और उन्होंने महल बनवाने का फैसला लिया।
            हीरे-जवाहरात, सोने-चांदी और मोती से उन्होंने एक भव्य महल का निर्माण करवाया। महल तैयार होने के बाद राजा का पूरा परिवार, उनके रिश्तेदार और प्रजा उस महल को देखने के लिए आई। राजा विक्रमादित्य ने उस ब्राह्मण को भी आकर महल देखने का न्योता भेजा। सभी महल की खूबसूरती को देखते ही रह गए। वह ब्राह्मण भी महल देखकर दंग रह गया।
            महल की सुंदरता देखने के बाद ब्राह्मण के मुंह से अचानक निकल गया, “काश! यह महल मेरा होता।” ब्राह्मण की इच्छा जानकर राजा ने तुरंत वह महल उस ब्राह्मण को दान में देने की घोषणा कर दी। महाराज की बात सुनकर ब्राह्मण हैरान रह गया। वह दौड़ता हुआ अपने घर पहुंचा और उसने यह बात अपनी पत्नी को बताई। उसकी पत्नी को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ और उसने सोचा कि ब्राह्मण पागल हो गया है। अपनी पत्नी को यकीन दिलाने के लिए वह उसे महल लेकर गया।
            महल को देखकर और लोगों की बातें सुनकर ब्राह्मणी भी हैरान रह गई। उसने पूरा महल देखने की इच्छा जताई। पत्नी की इच्छा को पूरा करने के लिए ब्राह्मण उसे महल दिखाने लगा। महल इतना बड़ा था कि देखते-ही-देखते रात हो गई और वो दोनों बहुत थक गए। थकान की वजह से दोनों महल के ही एक कमरे में सो गए।
            आधी रात को कुछ आवाजें आने लगीं, तो उन दोनों की नींद खुल गई। महल में भीनी-भीनी खुशबू आ रही थी और ठंडी हवा चल रही थी। उसी समय उनका पूरा कमरा रोशनी से भर गया और फिर उन्होंने एक महिला की आवाज सुनी। उनकी आवाज सुनकर दोनों को ऐसा लगा, जैसे मां लक्ष्मी धरती पर आ गई हों।
            उन्हें बार-बार एक ही आवाज सुनाई दे रही थी, “मैं, तुम्हारी इच्छा पूरी करने आई हूं। तुम मुझसे कुछ भी मांग सकते हो।” यह आवाज सुनकर वो दोनों डर गए। मां लक्ष्मी ने अपनी बात तीन बार दोहराई, लेकिन उन दोनों ने कुछ नहीं मांगा तो वो वहां से चली गईं।
            इसके बाद ब्राह्मणी बोली, “जरूर इस महल में भूतों का साया है, तभी राजा ने हमें यह महल दान में दिया है। तुम कल ही जाकर उनसे कहो कि हमें यह महल नहीं चाहिए। हम अपनी कुटिया में ही ठीक हैं। वहां कम से कम हम चैन से सो तो पाते थे।” ब्राह्मण को अपनी पत्नी की बात बिल्कुल सही लगी और किसी तरह महल में रात काटकर दोनों सुबह वापस अपनी कुटिया में चले गए।
            हाथ-मुंह धोकर ब्राह्मण तुरंत राजा विक्रमादित्य के पास पहुंचा और कहा कि महल वापस ले लीजिए। हम इतने भव्य महल में नहीं रह सकते। इस पर राजा ने कहा, “हे ब्राह्मण देव, वो महल मैंने आपको दान में दिया है। उसे मैं वापस कैसे ले सकता हूं?” ब्राह्मण ने राजा की एक बात नहीं सुनी और बार-बार उनसे महल वापस लेने को कहने लगा।
            ब्राह्मण की जिद को देखते हुए राजा विक्रमादित्य ने कहा कि वह उस महल को उनसे वापस नहीं लेंगे, लेकिन खरीद सकते हैं। ब्राह्मण ने राजा की बात मान ली। विक्रमादित्य ने महल का उचित मूल्य देकर ब्राह्मण से वह महल खरीद लिया और अपने पूरे परिवार के साथ नए महल में रहने आ गए।
            एक रात जब राजा विक्रमादित्य महल में सो रहे थे, तो दोबारा मां लक्ष्मी वहां आईं। उन्होंने कहा, “राजन, तुम्हें जो चाहिए मुझसे मांग लो। मैं तुम्हारी हर इच्छा पूरी कर सकती हूं।” इस पर राजा ने कहा, “मां, आपके आशीर्वाद से मेरे पास सब कुछ है। मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए। हां, अगर आप कुछ देना ही चाहती हैं, तो मेरी पूरी प्रजा पर धन की वर्षा कर दीजिए। ऐसा होने पर मेरी पूरी प्रजा संपन्न हो जाएगी।”
            राजा की इच्छा जानकर, मां लक्ष्मी ने पूरी रात राज्य पर धन की वर्षा कर दी। सुबह उठकर जब लोगों ने इतना धन देखा, तो वो सारा धन राजा विक्रमादित्य को सौंपने के लिए महल आ गए। राजा ने प्रजा के इस प्यार को देखकर उन्हें बताया कि यह सारा धन उनकी प्रजा के लिए ही है। इसी वजह से सब अपने-अपने हिस्से का धन अपने पास ही  रखें। उनकी बात सुनते ही पूरी जनता प्रसन्न हो गई और राजा की जय-जयकार करने लगे।
इतनी कहानी सुनाते ही पांचवीं पुतली वहां से उड़ गई।

कहानी से शिक्षा :-
हमेशा अपना दिल बड़ा रखना चाहिए। खुद के पास अगर सबकुछ हो, तो दूसरों की भलाई के बारे में सोचना चाहिए।

रविभामा पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की छठी कहानी

पांचवीं पुतली से महाराज विक्रमादित्य की कहानी सुनकर जैसे ही राजा भोज सिंहासन पर बैठने लगे, तभी उन्हें छठवीं पुतली रविभामा ने रोक लिया। उसने राजा से पूछा कि क्या सच में वो इस सिंहासन पर बैठने योग्य हैं। रविभामा ने पूछा, क्या आप में महाराज विक्रमादित्य का वो गुण है, जो उन्हें सिंहासन पर बैठने योग्य बनाता था। जब राजा भोज ने निवेदन किया कि आप मुझे महाराज विक्रमादित्य के उस गुण के बारे में विस्तार से बताएं। तब राजा के निवेदन करने पर पुतली ने राजा विक्रमादित्य के छठवें गुण की कहानी शुरू की, जो कुछ इस प्रकार है।
            बहुत समय पहले जब महाराज विक्रमादित्य का राज्य था और चारों ओर खुशहाली ही खुशहाली थी, तब एक दिन महाराज वन विहार के लिए अपने रथ पर सवार होकर निकले। वह नदी के किनारे-किनारे अपने रथ पर सवार होकर जा रहे थे कि उन्हें कुछ दूरी पर एक परिवार नदी के किनारे खड़ा दिखाई दिया।
            उस परिवार में एक पुरुष एक स्त्री और साथ में उनका एक पुत्र था। उनके कपड़े देखने भर से उनकी गरीबी साफ पता चल रही थी। उन सभी के चेहरे चिंता और परेशानी से भरे दिखाई दे रहे थे। विक्रमादित्य उन सभी को देख ही रहे थे कि अचानक तीनों ने नदी में छलांग लगा दी।
            राजा ने जैसे ही उन सभी को नदी में डूबते देखा, वह फौरन उन्हें बचाने के लिए खुद नदी में कूद पड़े। वह अकेले उन तीनों को नहीं बचा सकते थे, इसलिए उन्होंने मदद के लिए वरदान में मिले दो बेतालों को बुलाया। राजा विक्रमादित्य ने परिवार में शामिल पुरुष को बचाया। वहीं बेतालों ने स्त्री और पुत्र की जान बचाई।
            सभी को सुरक्षित नदी से बाहर निकालने के बाद राजा ने उस पुरुष से पूछा कि आप कौन हो और क्यों ऐसे अपने पूरे परिवार के साथ नदी में कूद गए? तब पुरुष ने रोते हुए कहा कि मैं एक गरीब ब्राह्मण हूं और आपके ही राज्य में रहता हूं। आपके राज्य में सभी आत्मनिर्भर हैं, इसलिए कोई भी मुझे काम देने के लिए तैयार नहीं है।
            इस हालात में न तो मेरे पास रहने के लिए घर है और न ही खाने के लिए भोजन। इस कारण मेरा पूरा परिवार कई दिनों से भूखा है। मैं अपने परिवार को इस तरह भूख से बिलखते नहीं देख सकता। यही वजह है कि प्राण त्यागने का विचार बनाकर मैं और मेरा परिवार नदी में कूद गए थे।
            राजा ने उनकी बात सुनी और निवेदन किया कि हे ब्राह्मण देव! आपको प्राण त्यागने की जरूरत नहीं है। कृप्या करके आप मेरे अतिथि भवन में चलकर रहिए। वहां आप जब तक चाहे सुख पूर्वक रह सकते हैं। राजा की बात सुनकर ब्राह्मण ने कहा कि अगर कुछ समय के बाद हमसे कुछ गलती हो और हमें अपमानित करके निकाल दिया गया, तो हम कहां जाएंगे।
            राजा ने उसकी यह बात सुनकर वचन दिया कि उन्हें किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होगा और वह जब तक चाहें तब तक सपरिवार उनके अतिथि भवन में आराम से रह सकते हैं। ब्राह्मण ने राजा के वचन को स्वीकार किया और राजा के साथ अपने परिवार को लेकर अतिथि भवन में रहने चले गए। वहां वे सुख और आराम से रहने लगे। उनकी सेवा में कभी कोई कमी नहीं की जाती थी।
            ब्राह्मण परिवार अच्छे से रहने लगा, लेकिन उनकी एक आदत बहुत खराब थी। वह यह थी कि वे जहां रहते और खाते-पीते थे, वहीं गंदगी कर देते थे। पहने हुए कपड़े कई दिनों तक नहीं बदलते थे। इस वजह से धीरे-धीरे पूरा अतिथि भवन गंदा हो गया और वहां चारों ओर उस गंदगी की वजह से बदबू भी फैल गई। इस वजह से ब्राह्मण परिवार की सेवा में लगाए गए सभी नौकर वहां से भाग गए।
            राजा को जब इस बात का पता चला तो उसने दूसरे नौकरों को वहां भेजा, लेकिन वो भी उस गंदगी और बदबू को अधिक दिन सहन नहीं कर पाए। इस वजह से परेशान होकर वो नौकर भी वहां से भाग खड़े हुए। तब राजा ने खुद ब्राह्मण परिवार की सेवा करने की जिम्मेदारी ली।
            राजा विक्रमादित्य ने खूब मन लगाकर उस ब्राह्मण परिवार की सेवा की और समय पड़ने पर वह ब्राह्मण के पैर दबाने से भी पीछे नहीं हिचकते थे। ब्राह्मण ने राजा के वचन का फायदा उठाते हुए एक दिन उनसे कहा कि मेरे शरीर पर लगा हुआ मल साफ करके मुझे अच्छी तरह से स्नान करा दो और साफ वस्त्र पहना दो।
            राजा ने खुशी से उनकी यह बात भी स्वीकार की और जैसे ही वे मल साफ करने के लिए आगे बड़े अचानक वह ब्राह्मण देव देवता के रूप में सामने आ गए। अतिथि गृह में फैली सारी गंदगी अपने आप साफ हो गई। इतना ही नहीं वह स्थान स्वर्ग के जैसा हो गया और चारों ओर सुगंधित हवा भी बहने लगी।
            तब देवता ने अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं वरुण देव हूं और आपके नगर में आपकी परीक्षा लेने के लिए आया था। हमने आपके आतिथ्य की बहुत प्रसंशा सुनी थी, जिस कारण मैं पूरे परिवार के साथ यहां आया था। मैं आपकी इस सेवा से बहुत प्रसन्न हूं और वरदान देता हूं कि आपके नगर में कभी सूखा नहीं पड़ेगा। आपके नगर के हर खेत से तीन प्रकार की फसलें उगेंगी। राजा ने हाथ जोड़कर वरुण देव को नमस्कार किया और इसके बाद वरुण देव परिवार के साथ वहां से स्वर्ग की ओर चल दिए।
महाराज विक्रमादित्य की यह कहानी सुनाते ही रविभामा वहां से उड़ गई।
कहानी से शिक्षा :-

हमें भी अपने घर आए अतिथि की अच्छे से सेवा करना चाहिए और उन्हें पूरा सम्मान देना चाहिए। हमारे देश में अतिथि को देवता का स्थान दिया गया है, इसीलिए कहा जाता है “अतिथि देवो भव:”।

कौमुदी पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की सातवीं कहानी

राजा भोज सातवें दिन फिर दरबार पहुंचकर सिंहासन की तरफ बढ़ने लगे, तभी सातवीं पुतली कौमुदी ने राजा से कहा, “यहां बैठने की जिद छोड़ दो, इस पर सिर्फ राजा विक्रमादित्य जैसा गुणवान ही बैठ सकता है।” राजा के गुणों को बताने के लिए सातवीं पुतली ने एक कहानी सुनानी शुरू की।
            एक दिन राजा विक्रमादित्य अपने कमरे में सो रहे थे। आधी रात में उन्हें रोने की आवाज सुनाई दी। इस आवाज को सुनकर राजा बाहर निकले। जैसे ही वह क्षिप्रा के तट पर पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि एक महिला जोर-जोर से रो रही है। वो उससे उसके रोने का कारण पूछने लगे।
            तब महिला ने बताया कि वो चोर की पत्नी है और राजा ने उसे पेड़ से उल्टा लटका दिया है। राजा ने पूछा, “तो क्या तुम्हें इस सजा से कोई परेशानी है?” उसने कहा, “सजा के फैसले से कोई परेशानी नहीं है, लेकिन यह बात बुरी लग रही है कि मेरा पति भूखा-प्यासा उल्टा लटका हुआ है।”
            इतना सुनकर राजा ने झट से पूछ लिया कि उसने अब तक उसे कुछ खिलाया-पिलाया क्यों नहीं? तब उसने कहा,  “वो बहुत ऊंचाई पर लटका हुआ है और मैं किसी की मदद के बिना उस तक खाना नहीं पहुंचा सकती हूं।” तब विक्रामादित्य ने कहा, “चलो! मैं तुम्हारे साथ चलता हूं?”
            यह सब सुनकर महिला बहुत खुश हुई। वो महिला उस व्यक्ति की पत्नी नहीं, बल्कि एक भूत थी, जो उस लटके हुए शख्स को खाना चाहती थी। उसने राजा विक्रमादित्य के साथ वहां पहुंचकर उस इंसान को खा लिया। भूख मिटते ही उसने राजा से मनचाहा वरदान मांगने को कहा। तब नरेश विक्रमादित्य ने उससे अन्नपूर्णा पात्र मांगते हुए कहा कि इससे उनकी प्रजा का भला होगा। इस वरदान को सुनने के बाद उस राक्षसी ने कहा कि अन्नपूर्णा पात्र देना उसके बस में नहीं है, लेकिन वो अपनी बहन को कहकर उसे दिला सकती है।
            वह राक्षसी अपनी बहन के पास पहुंची और सारी बात बताते हुए उससे अन्नपूर्णा पात्र मांगा। उसकी बहन ने खुशी-खुशी वह पात्र राजा विक्रमादित्य को दे दिया। उस पात्र को लेकर राजा आगे बढ़ ही रहे थे कि उन्हें एक ब्राह्मण रास्ते में भूख से तड़पता हुआ दिखाई दिया। उसने कहा, “हे राजन! मैंने बहुत दिनों से कुछ खाया नहीं है। मुझे जल्दी से कुछ खिला दो।” राजा ने तुरंत अन्नपूर्णा पात्र से भोजन मांगा और ब्राह्मण को खिला दिया। भोजन खिलाने के बाद राजा ने ब्राह्मण से दक्षिणा मांगने को कहा। ब्राह्मण ने राजा से वह पात्र मांग लिया और कहा कि इसकी मदद से वो कभी भूखा नहीं रहेगा। राजा ने बिना किसी झिझक के उसे तुरंत पात्र दे दिया और राजमहल की ओर आगे बढ़ गए।
            इतनी कहानी सुनाते ही सातवीं पुतली उड़ गई। यह सब सुनकर राजा भोज सोच में पड़ गए। उन्होंने मन में सोचा कि अब यहां बैठने का कोई और उपाय सोचना पड़ेगा।
कहानी से शिक्षा :-

निस्वार्थ भाव से सभी की मदद करनी चाहिए। दूसरों के लिए अच्छा सोचने वाले के साथ अच्छा ही होता है।

पुष्पवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की आठवीं कहानी

आठवीं बार राजा भोज सिंहासन पर बैठने के लिए राज दरबार पहुंचे। रोज-रोज पुतलियों से राजा विक्रमादित्य की महानता के किस्से सुनकर वो तंग आ चुके थे। फिर भी सत्ता और उस सिंहासन का मोह उन्हें राज दरबार खींच लाता था। इस बार उन्हें आठवीं पुतली ने राजा विक्रमादित्य के सिंहासन पर बैठने से रोक दिया और उनकी महानता का एक किस्सा सुनाया।
            राजा विक्रमादित्य को अपने दरबार में सुंदर चीजें रखने का शौक था। एक दिन उनके दरबार में एक बढ़ई आया। उसके पास साज-सज्जा के कई सामान थे। बढ़ई को देखते ही दरबान उसे सीधे राजा के पास लेकर गया। राजा विक्रमादित्य ने उसे देखकर पूछा, “क्या आपके पास ऐसा कुछ है, जो इस महल की शोभा बन सके या फिर हमारे काम आ सके।”
            बढ़ई ने कहा, “महाराज! सामान तो बहुत हैं, लेकिन आपके लायक मुझे यह काठ का घोड़ा लगता है।” राजा ने दूर से उसे देखा, तो वह लकड़ी का घोड़ा नहीं असली घोड़ा लग रहा था। कुछ देर सोचने के बाद विक्रमादित्य ने बढ़ई से पूछा, “जरा इसकी खूबियां तो बताओ।”
            उनके सवाल के जवाब में बढ़ई ने कहा, “हे राजन! आप इसे देख ही चुके हैं। इसे कुछ ऐसे बनाया गया है कि यह असली घोड़ा लगता है। साथ ही इस पर कोई सवार हो जाए, तो यह इतनी तेज दौड़ता है कि व्यक्ति हवा से बाते करने लगे। इसे न कुछ खाने की जरूरत पड़ती है और न किसी तरह के देखभाल की। बिना किसी खर्च के यह आपकी सेवा कर सकता है।”
            राजा यह सब बात सुनकर खुश हुए। उन्होंने बढ़ई से उस काठ के घोड़े की कीमत पूछी। बढ़ई ने कहा, “देखिए महाराज आपसे क्या छुपाना। मेरे पूरे जीवन की मेहनत यह काठ का घोड़ा ही है। इसे बेचने की कीमत मैं कैसे लगाऊं। आप जान ही गए हैं कि मैंने अपनी पूरी जिंदगी इसे बनाने में दी है। अब खुद ही इसका मोल लगाकर पैसे दे दीजिए।” विक्रमादित्य ने तुरंत मंत्री से बढ़ई को एक लाख स्वर्ण मुद्राएं देने को कहा। इतनी बड़ी कीमत सुनकर बढ़ई का मन प्रसन्न हो गया।
            इधर, बढ़ई एक लाख स्वर्ण मुद्राएं लेकर अपने घर को चला गया। उधर, राजा ने काठ का घोड़ा सुरक्षित तरीके से तबेले में रखने का सेवक को आदेश दिया। कई दिन बीतने के बाद विक्रमादित्य के मन में हुआ कि क्यों न काठ के घोड़े की सवारी की जाए। पता भी चल जाएगा कि घोड़ा कैसा दौड़ता है। उन्होंने अपने मंत्रियों से जंगल विचरण के लिए काठ का घोड़ा तैयार करने को कहा। उसे अच्छे से सजाकर अन्य मंत्री भी राजा के साथ जाने को तैयार हो गए।
            सभी असली घोड़े पर बैठे और राजा काठ के घोड़े पर बैठ गए। राजा ने घोड़े को दौड़ने के लिए जैसे ही पैर मारा घोड़ा तेजी से दौड़ने लगा। वह घोड़ा राजा को तेज गति से बहुत दूर ले आया। राजा ने आस-पास देखा, तो उनके मंत्री और दरबार के लोग कहीं दिखाई नहीं दिए। राजा अनजान व सुनसान जगह पहुंच चुके थे।
            कुछ देर बाद राजा ने एक बार फिर अपना पैर मारा। फिर से राजा का इशारा मिलने पर घोड़ा ऊपर आसामन में हवा की गति से दौड़ने लगा। अब राजा को घबराहट होने लगी। उन्होंने तुरंत घोड़े को जमीन पर उतरने का इशारा दिया। घोड़ा आज्ञा का पालन करते हुए नीचे आने लगा, लेकिन घोड़े की रफ्तार इतनी तेज थी कि वो एक पेड़ से टकरा गया। पेड़ से टकराते ही घोड़ा चूर-चूर हो गया और राजा किसी जंगल में गिए गए। नीचे गिरते ही उन्होंने अपने पास एक बंदरी को देखा, वो राजा को कुछ इशारा कर रही थी। विक्रमादित्य उसकी बात को नहीं समझ पाए।
            राजा जैसे ही जमीन से उठे, तो उन्हें पास में ही एक कुटिया दिखी। वहां जाकर राजा ने हाथ-पैर धोए और पेड़ से कुछ फल तोड़कर खा लिए। अब राजा एक पेड़ पर चढ़कर विश्राम करने लगे। शाम के समय उस कुटिया में एक संन्यासी पहुंचा। उसने भी हाथ-पैर धोकर पानी पिया और कुछ पानी की बूंदों को बंदरी पर छिड़क दिया। शरीर पर पानी पड़ते ही वह बंदरी एक सुंदर राजकुमारी बन गई। उस राजकुमारी ने जल्दी-जल्दी संन्यासी के लिए खाना बनाया और फिर उनके पैर दबाने लगी।
            सुबह होते ही दोबारा संन्यासी कुटिया से बाहर चला गया, लेकिन जाने से पहले उसने राजकुमारी पर जल छिड़क कर उसे दोबारा से बंदरी बना दिया। अब विक्रमादित्य भी नींद से जागे और पेड़ से नीचे उतरे। फिर बंदरी उन्हें देखकर कुछ संकेत करने लगी। राजा उसे नहीं समझ पाए और अंदर जाकर हाथ-मुंह धोया। उसी जगह पर बंदरी आकर खड़ी हो गई। उसी समय बंदरी पर पानी की कुछ छींटे पड़ गईं। देखते-ही-देखते बंदरी फिर राजकुमारी बन गई। राजा ने जैसे ही बंदरी को राजकुमारी बनते देखा, तो वह हैरान रह गए। विक्रमादित्य ने उससे इस बारे में पूछा।
            राजकुमारी ने बताया, “मैं कामदेव-पुष्पावती की बेटी हूं। सालों पहले मुझसे गलती से एक बाण संन्यासी को लग गया था। तब उन्होंने गुस्से में मुझे श्राप दे दिया कि मुझे उम्र भर बंदरिया बनकर संन्यासी की सेवा करनी होगी। मैंने संन्यासी को बहुत समझाया कि तीर उन्हें गलती से लगा था, लेकिन गुस्से में उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी। कुछ देर बाद संन्यासी ने बताया कि राजा विक्रमादित्य आकर मुझे इस श्राप से मुक्ति दिलाएंगे और पत्नी बनाकर अपने साथ हमेशा रखेंगे, लेकिन ऐसा तभी हो पाएगा जब संन्यासी से मुझे कुछ भेंट में मिले।”
            राजा विक्रमादित्य सब कुछ समझ गए। उस राजकुमारी की परेशानी को देखकर उन्होंने उससे शाम को संन्यासी से उपहार मांगने को कहा और संग ले जाने का वादा कर दिया। इसके बाद राजा ने उस राजकुमारी पर पानी डालकर उसे दोबारा बंदरी बना दिया।
            शाम को फिर संन्यासी घर आया और उसने बंदरी पर पानी छिड़कर उसे राजकुमारी बना दिया। राजकुमारी बनते ही उस महिला ने कहा कि उसे कुछ उपहार में चाहिए। उन्होंने तुरंत एक कमल का फूल उसे दे दिया। संन्यासी ने राजकुमारी को बताया कि यह फूल कभी नहीं मुरझाएगा और रोज एक विशेष रत्न देगा। फिर संन्यासी ने कहा, “हे सुंदरी! मुझे पता है विक्रमादित्य यहां आ चुके हैं। तुम उन्हें बुला लो और खुशी-खुशी उनके राजमहल चली जाओ।” इतना सुनते ही राजा स्वयं वहां आ गए और राजकुमारी को अपने संग लेकर जाने के लिए अपने बेतालों को वहां बुला लिया।
            अपने राज्य पहुंचते ही राजा को देखकर एक बच्चा रोने लगा। विक्रमादित्य ने जब उससे रोने की वजह पूछी, तो उसने राजा से वह कमल मांग लिया। उन्होंने खुशी-खुशी उस बच्चे को कमल दे दिया और अपनी पत्नी के साथ राजमहल पहुंच गए। कुछ दिनों बाद दरबार में एक व्यक्ति को रत्न चुराने वाला चोर कहकर पेश किया गया। राजा ने जब व्यक्ति से पूछा, तो उसने बताया, “महाराज मेरा बेटा एक दिन घर में कमल का फूल लेकर आया। वो रोज एक कीमती रत्न देता है। उन्हीं को लेकर मैं बाजार में बेचने को निकला था, लेकिन आपके सिपाहियों ने मुझे पकड़ लिया।”
            व्यक्ति की इस बात को सुनकर राजा को बहुत दुख हुआ। सिपाहियों पर गुस्सा करते हुए राजा ने कहा, “बिना सोचे समझे किसी को भी चोर बोलकर पकड़ लेना सरासर गलत है। आगे से इस तरह की हरकत नहीं होनी चाहिए।” इसके बाद राजा ने उस व्यक्ति को छोड़ने का आदेश दिया। उसकी परेशानी को देखकर राजा ने पूछा, “बताओ यह रत्न तुम कितने में बेचना चाहते हो।” वह गरीब डर के मारे कुछ नहीं बोल पाया। राजा ने तुरंत दीवान को रत्न के बदले एक लाख मुद्राएं देने को कहा।
            इतना सुनाते ही आठवीं पुतली पुष्पवती ने कहा, “राजा को इतना महान और दानी होना चाहिए। क्या ये सब गुण तुम में हैं बताओ। अगर ये गुण हैं, तभी इस सिंहासन पर बैठना वरना नहीं।” इतना कहकर वह पुतली विक्रमादित्य के सिंहासन से उड़ गई।
कहानी से शिक्षा :-
बिना सोचे समझे किसी पर आरोप नहीं लगाना चाहिए। 

मधुमालती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की नौवीं कहानी

नवें दिन राजा भोज दरबार पहुंचे और विक्रमादित्य के सिंहासन पर बैठने लगे। इस बार उन्हें नवीं पुतली ने सिंहासन पर बैठने से रोक दिया। उसने कहा, “यहां बैठने के लिए तुम्हें राजा विक्रमादित्य जैसा होना पड़ेगा।” इतना कहकर वह विक्रमादित्य के गुणों को बताने के लिए कहानी सुनाने लगी।
            सालों से शासन करते हुए एक बार राजा विक्रमादित्य के मन में हुआ कि प्रजा की खुशहाली के लिए एक यज्ञ करना चाहिए। उन्होंने शुभ मुहूर्त देखकर कई हफ्ते तक चलने वाला विशाल यज्ञ शुरू किया। राजा रोज मंत्रों का उच्चारण करके अग्नि में आहुति देते थे। एक दिन यज्ञ के बीच में ही गुरुकुल के एक ऋषि वहां पहुंचे। उन्हें देखकर राजा विक्रमादित्य उठकर उन्हें नमस्कार करना चाहते थे, लेकिन यज्ञ की वजह से वो ऐसा नहीं कर पाए। उन्होंने मन ही मन ऋषि को प्रणाम किया। राजा की विवशता को देखकर उन्होंने विक्रमादित्य को आशीर्वाद दिया।
            कुछ देर बाद यज्ञ खत्म होने पर राजा ने ऋषि को दोबारा प्रणाम किया और आने का कारण पूछा। ऋषि ने बताया, “मेरे आठ शिष्यों का जीवन खतरे में पड़ गया है। वो लकड़ी लेने के लिए जंगल गए थे और तभी वहां दो राक्षस आए और उन सभी को पकड़कर पहाड़ी की ऊंचाई पर ले गए। शिष्यों को ढूंढते हुए जब मैं वहां पहुंचा, तो राक्षस ने बताया कि उन्हें मां काली के समक्ष बलि के लिए तंदुरुस्त क्षत्रिय चाहिए थे, इसलिए उनके शिष्यों को पकड़ा है। साथ ही राक्षसों ने चेतावनी दी है कि अगर कोई वहां उन बालकों को छुड़ाने के लिए गया, तो वो उन्हें पहाड़ी से फेंक देगा। हां, अगर कोई मोटे पुरुष को बलि के लिए लेकर आएगा, तो वो बच्चों को छोड़ देंगे।”
            ऋषि की पूरी बात सुनने और उन्हें इस तरह परेशान देखकर राजा विक्रमादित्य ने उस पहाड़ पर जाने की इच्छा जाहिर की। राजा ने कहा, “हे ऋषिवर! मैं क्षत्रिय और हट्टा-कट्टा दोनों हूं। वहां जाकर मैं स्वयं मां की बलि बन जाऊंगा और आपके शिष्यों को राक्षस छोड़ देंगे।” राजा की यह बात सुनकर ऋषि बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा, “ऐसा नहीं हो सकता है। मैंने स्वयं को बलि बनाने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन राक्षसों ने ठुकरा दिया। अब स्वयं राजा की बलि न तो राक्षस स्वीकार करेंगे और न मैं ऐसा होने दूंगा। कुछ बच्चों के लिए प्रजा के दाता की बलि चढ़ाना गलत है।”
            ऋषि की किसी बात को राजा ने नहीं सुना और पहाड़ पर जाने की जिद करने लगे। आखिर में उन्होंने ऋषि से कहा, “देखिए, मान्यवर राजा का धर्म होता है कि वो प्रजा की रक्षा करे। चाहे उसके लिए राजा को अपनी जान ही दांव पर क्यों न लगानी पड़े।” राजा का हठ देखकर ऋषि उन्हें अपने साथ लेकर चले गए। दोनों कुछ घंटों बाद पहाड़ की चोटी पर पहुंच गए। राक्षसों ने राजा विक्रमादित्य को देखकर पूछा, “यहां आ तो गए हो, लेकिन शर्त के बारे में पता है न।” राजा ने जवाब दिया, “हे राक्षसगण! मुझे सब पता है। मैं अपनी इच्छा से ही यहां आया हूं। अब जल्दी से सारे बच्चों को छोड़ दो।”
            राजा विक्रमादित्य की बात सुनकर एक राक्षस सभी बच्चों को लेकर उन्हें पहाड़ी की चोटी से नीचे छोड़ आया। अब जीवन के अंतिम क्षण में राजा ने भगवान को याद किया और मां काली के आगे अपना सिर झुका दिया। तभी दूसरा राक्षस अपनी तलवार लेकर उनके सिर पर प्रहार करने लगा। राजा थोड़े भी परेशान नहीं हुए और लगातार भगवान का नाम जपने लगे। तभी अचानक राक्षस ने अपने हाथों से तलावर को नीचे फेंक दिया।
            सिर न कटने पर राजा ने जब पीछे मुड़कर देखा, तो वो हैरान हो गए। दोनों राक्षस बहुत सुंदर युवराज जैसे दिख रहे थे। उस समय पर्वत की पूरी चोटी चमकने लगी और वातावरण में फूलों की खुशबू फैली गई। राजा कुछ समझ नहीं पाए और आश्चर्य से उनकी तरफ देखने लगे।
            तब दोनों ने राजा को बताया कि वो इंद्र और वरुण देवता हैं, जो उनकी परीक्षा लेने के लिए आए थे। दोनों देवों ने कहा, “हमने तुम्हारी बहुत तारीफ सुनी थी, इसलिए देखना चाहते थे कि तुम अपनी प्रजा के लिए क्या कुछ कर सकते हो। अपनी प्रजा के लिए जान दांव पर लगाने में तुम संकोच करोगे या नहीं। हे राजन! आपके अंदर प्रजा के लिए इतना प्रेम देखकर हम बहुत प्रसन्न हैं।” इतना कहने के बाद दोनों देवों ने राजा विक्रमादित्य को आशीर्वाद दिया और अपने लोक चले गए।
            कहानी पूरी होते ही नवीं पुतली मधुमालती ने राजा भोज से कहा कि अगर आपके अंदर भी ऐसे गुण हैं, तो ही सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ना, वरना इस बारे में कभी सोचना भी नहीं। इतना कहकर नवीं पुतली वहां से उड़ गई। नवीं पुतली की बात सुनकर राजा भोज सोच में पड़ गए और वहां से चले गए।
कहानी से शिक्षा :-
हिम्मत और साहस से हर परिस्थिति का सामना करना चाहिए। किसी को मुसीबत में अकेले छोड़ने की जगह उसे उससे बचाने की कोशिश की जानी चाहिए।

प्रभावती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की दसवीं कहानी

दसवें दिन दोबारा राजा भोज सिंहासन पर बैठने के लिए दरबार पहुंचे, तभी दसवीं पुतली प्रभावती ने सिंहासन से निकलकर उन्हें वहां बैठने से रोक दिया। प्रभावती ने कहा कि पहले आप राजा विक्रमादित्य की दयालुता की कथा सुनिए। अगर आप भी विक्रमादित्य जैसे दयालु होंगे, तो सिंहासन पर बैठ जाना। इतना कहने के बाद दसवीं पुतली राजा भोज को कहानी सुनाना शुरू करती है।
            एक बार की बात है, जब राजा विक्रमादित्य शिकार करने अपने सैनिकों के साथ जंगल गए। चलते-चलते राजा इतना आगे निकल गए कि उन्हें दूर-दूर तक सैनिक नहीं दिखे। तभी उनकी नजर एक पेड़ पर गई, जहां एक लड़का रस्सी डालकर उससे लटकने की कोशिश कर रहा था। यह देखकर विक्रमादित्य तुरंत उस पेड़ के पास पहुंचे और लड़के को समझाया कि आत्महत्या करना पाप है।
            राजा ने आगे कहा कि खुद को मारना पाप ही नहीं, बल्कि अपराध भी है और इसके लिए मैं तुम्हें सजा भी दे सकता हूं। तुम इतने स्वस्थ हो, लेकिन ऐसी डरपोक जैसी हरकत करने के पीछे क्या कारण है। वह लड़का सहमी आवाज में बोला कि मैं अपने प्रेम की वजह से जान देना चाहता हूं।
            इतना सुनकर राजा विक्रमादित्य ने लड़के से पूछा कि आखिर उसके साथ ऐसा क्या हुआ है? तब लड़के ने बताया कि उसका नाम वसु है और वह कलिंग का रहने वाला है। एक दिन वह जंगल से गुजर रहा था, तभी उसकी नजर एक लड़की पर पड़ी। युवती को देखते ही उसने शादी करने का प्रस्ताव रख दिया, लेकिन लड़की ने विवाह करने से मना कर दिया। इसकी वजह उसके पंडित की भविष्यवाणी थी कि वो  जिससे भी प्यार करेगी उसकी मौत हो जाएगी। इसी वजह से उसके पिता ने भी उसे पैदा होते ही दूर एक कुटिया में भेज दिया था।
            दर्द भरी आवाज में युवक ने आगे कहा कि लड़की से विवाह करने के लिए मुझे गर्म तेल की कड़ाही में कूदकर जिंदा निकलना होगा, जो संभव नहीं है। इसी वजह से अब मैं जीना नहीं चाहता।
            वसु की बातों को सुनने के बाद राजा विक्रमादित्य ने उसे वचन दिया कि वो उसका विवाह उसी लड़की से कराएंगे, जिससे वो प्यार करता है। इतना कहकर राजा अपने साथ वसु को लेकर लड़की की कुटिया में पहुंच गए। वहां पहुंचते ही विक्रमादित्य ने कुटिया के तपस्वी से उस युवती का विवाह वसु से करने की बात कही।
            इस प्रस्ताव को सुनते ही तपस्वी ने कहा, “खौलते तेल की कड़ाही से जिंदा बाहर आने वाला ही उस युवती से विवाह कर सकता है।” फिर राजा ने कहा कि लड़के की जगह वह तेल की कड़ाही में कूदने को तैयार हैं।
            राजा के इस आत्मविश्वास को देखने के बाद तपस्वी ने गर्म तेल की कड़ाही मंगवाई। कड़ाही के आते ही महाराज विक्रमादित्य ने मां काली को याद किया और उसमें कूद पड़े। खौलते तेल की वजह से राजा की मौत हो गई। यह सब देखकर मां काली को अपने प्रिय भक्त पर दया आई और उन्होंने तुरंत बेतालों से राजा को जिंदा करने को कहा। काली मां का आदेश मिलते ही बेतालों ने अमृत की कुछ बूंदें महाराज विक्रमादित्य के मुंह में डालीं, जिससे राजा तुरंंत जीवित हो गए।
            विक्रमादित्य ने जिंदा होते ही वसु के लिए उस सुंदर लड़की का हाथ मांगा। तपस्वी ने तुरंत इसकी सूचना सुंदरी के पिता को भेजी और दोनों की शादी करा दी। विवाह संपन्न होते ही वसु ने राजा विक्रमादित्य को शुक्रिया कहा और खुशी-खुशी लड़की के साथ अपने घर की ओर निकल पड़ा।
इतनी कहानी सुनाने के बाद दसवीं पुतली सिंहासन से उड़ गई।

कहानी से शिक्षा :-

दूसरों का भला करने वालों का भगवान हमेशा साथ देता है। इसलिए, मुश्किल में किसी को भी अकेला नहीं छोड़ना चाहिए।

बत्तीस पुतलियों के नाम :-

  1. रत्नमंजरी  
  2. चित्रलेखा  
  3. चन्द्रकला  
  4. कामकंदला  
  5. लीलावती  
  6. रविभामा  
  7. कौमुदी  
  8. पुष्पवती  
  9. मधुमालती  
  10. प्रभावती  
  11. त्रिलोचना  
  12. पद्मावती  
  13. कीर्तिमती  
  14. सुनयना  
  15. सुन्दरवती  
  16. सत्यवती  
  17. विद्यावती  
  18. तारावती  
  19. रुपरेखा  
  20. ज्ञानवती  
  21. चन्द्रज्योति  
  22. अनुरोधवती  
  23. धर्मवती  
  24. करुणावती  
  25. त्रिनेत्री  
  26. मृगनयनी  
  27. मलयवती  
  28. वैदेही  
  29. मानवती  
  30. जयलक्ष्मी  
  31. कौशल्या  
  32. रानी रुपवती  


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