अनुरोधवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की 22वीं कहानी
राजाभोज एक बार फिर सिंहासन की ओर बढ़े और तभी 22वीं पुतली अनुरोधवती वहां पर आ गई। उसने राजाभोज से कहा कि मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाऊंगी उसके बाद यह फैसला करना कि आप सिंहासन पर बैठने लायक हो या नहीं। इसके बाद 22वीं पुतली ने कहानी सुनाना शुरू किया।
राजा विक्रमादित्य कला प्रेमी थी और अच्छे कलाकारों को सम्मानित करते थे। वह अपने दरबार में मौजूद योग्य लोगों का भी बहुत सम्मान करते थे। उन्हें चापलूसी बिल्कुल भी पसंद नहीं थी। राजा विक्रमादित्य के इस स्वाभाव के बारे में जानकर एक दिन एक युवक उनसे मिलने उनके दरबार पहुंचा। उस युवक को कई शास्त्रों का ज्ञान था और हमेशा खरी बात ही बोलता था। उसका यह स्वाभाव अक्सर राजाओं को पसंद नहीं आता था, जिस कारण उसे हर राजा अपने यहां नौकरी से निकाल देता था। बार-बार नौकरी से निकाले जाने के बाद भी उसने अपनी प्रकृति और व्यवहार को बदला नहीं था। जब वह राजा विक्रमादित्य के दरबार पहुंचा, तो उस समय वहां संगीत का रंगारंग कार्यक्रम चल रहा था। वह राजा के आदेश का इंतजार करने लगा।
वह दरबार के दरवाजे पर खड़ा होकर संगीत सुन रहा था, जिस सुनकर वह धीमी आवाज में बोला, “दरबार में बैठे हुए लोग नासमझ हैं। इन्हें संगीत की बिल्कुल भी समझ नहीं है। साजिंदा गलत धुन बजा रहा है, फिर भी कोई उसे रोक नहीं रहा है।” उसे बोलते हुए वहां खड़े द्वारपाल ने सुन लिया, जिससे उसका चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उसने युवक से कहा, “महाराज विक्रमादित्य सच्ची कला के प्रेमी हैं और वह खुद दरबार में मौजूद हैं।” द्वारपाल की बात सुनकर युवक हंसा और बोला, “वह कला प्रेमी हो सकते हैं, लेकिन कला पारखी नहीं, क्योंकि साजिंदे की गलती को वह पकड़ नहीं पा रहे हैं।”
युवक की बात सुनकर द्वारपाल ने कहा कि कि अगर उसकी बात गलत साबित हुई, तो उसे दंड मिलेगा। इस पर युवक ने कहा कि अगर उसकी बात गलत साबित हुई, तो वह हर प्रकार की सजा के लिए तैयार है। इसके बाद द्वारपाल ने युवक के बारे में विस्तार से राजा को बताया। राजा विक्रमादित्य ने तुरंत उस युवक को दरबार में लाने का आदेश दिया। राजा विक्रमादित्य के सामने भी युवक ने कहा कि किसी एक साजिंदे की उंगली पर चोट लगी हुई है, जिस कारण संगीत में कम है। यह सुनकर राजा विक्रमादित्य ने सभी साजिंदों की उंगलियां देखने का आदेश दिया। जांच के दौरान सच में एक वादक के अंगूठे का ऊपरी भाग कटा हुआ मिला। उसने अंगूठे पर पतली खाल चढ़ा रखी थी।
यह देखकर राजा ने उस युवक की बहुत प्रशंसा की। इसके बाद उन्होंने उस युवक से उसका परिचय पूछा और उसे अपने दरबार में नौकर रख लिया। युवक ने भी समय-समय पर अपनी योग्यता का परिचय, जिससे राजा विक्रमादित्य बहुत प्रभावित हुए।
कुछ दिनों के बाद दरबार में एक खूबसूरत नृतिकी आई। दरबार में उसके नृत्य का आयोजन किया गया। वह युवक भी दरबार में बैठा हुआ था और नृत्य को गौर से देख रहा था। वह नृतिकी बहुत ही अच्छा नृत्य कर रही थी और सभी दरबारी मोहित होकर उसके नृत्य को देख रहे थे। तभी न जाने कहां से एक भंवरा आकर उसकी छाती पर बैठ गया। नृतिकी न तो नृत्य रोक सकती थी और न ही हाथों से भंवरे को हटा सकती थी, क्योंकि ऐसा करने से भंगिमाएं बिगड़ जातीं। ऐसे में उस नृतिकी ने चतुराई से सांस अंदर की ओर खींची तथा पूरे जोर से भंवरे पर छोड़ दी। ऐसा करने में भंवरा उड़ गया। हालांकि, यह घटना कोई नहीं देख सका, लेकिन उस युवक ने सब कुछ देख लिया।
वह नृतिकी की तारीफ करते हुए उठा और अपने गले की मोतियों की माला उस नृतिकी के गले में डाल दी। यह देखकर सभी दरबारी हैरान हो गए। दरबार में मौजूद लोग कहने लगे कि राजा के होते हुए दरबार में किसी और का इस तरह से इनाम देना राजा का सबसे बड़ा अपमान है। युवक का यह व्यवहार राजा विक्रमादित्य को भी यह पसंद नहीं आया और उन्होंने युवक से ऐसा करने के पीछे का कारण बताने को कहा। इस पर युवक ने भंवरे वाली सारी घटना राजा को विस्तार से बता दी। उसने कहा कि नृतिकी ने जिस तरह से सुर, लय, ताल और भाव-भंगिमा के बीच सामंजस्य रखते हुए, जिस सफाई से भंवरे को उड़ाया वह इनाम के काबिल है।
जब विक्रमादित्य ने नृतिकी से पूछा, तो उसने युवक की बातों का समर्थन किया। यह सुनकर राजा विक्रमादित्य ने नृतिकी और उस युवक बहुत तारीफ की। अब उनकी नजर में उस युवक का महत्व और बढ़ गया। अब तो जब भी किसी भी समस्या का हल ढूंढना होता, तो राजा विक्रमादित्य उसकी बातों पर जरूर गौर करते।
ऐसे ही एक दिन दरबार में चर्चा शुरू हुई कि बुद्धि और संस्कार के बीच क्या संबंध है। दरबारियों का कहना था कि बुद्धि से ही संस्कार आते हैं, लेकिन वह युवक उनकी बातों से सहमत नहीं था। उसका कहना था कि संस्कार आनुवंशिक होते हैं। जब इस मुद्दे पर एक राय नहीं बनी, तो विक्रमादित्य ने इसका एक हल निकाला।
राजा ने नगर से दूर जंगल में एक महल बनवाया और उसमें गूंगी और बहरी नौकरानियों को रहने का आदेश दिया। साथ ही चार नवजात शिशुओं को उन नौकरानियों की देखरेख में रखा गया। इनमें से एक शिशु राजा विक्रमादित्य का था, जबकि एक महामंत्री का, एक कोतवाल का और एक ब्राह्मण का था। जब 12 वर्ष के बाद चारों बच्चे दरबार में पेश किए गए, तो राजा विक्रमादित्य ने बारी-बारी से उनसे पूछा, “क्या तुम ठीक है?” चारों ने अलग-अलग जवाब दिए।
राजा के बेटे ने कहा सब कुशल है, वहीं महामंत्री के बेटे ने कहा कि यह संसार नश्वर है। जब आने वाले को जाना है, तो कुशलता कैसी। कोतवाल के बेटे ने कहा कि चोर चोरी करते हैं और नाम खराब निरपराधी का होता है। ऐसी हालत में कुशलता की सोचना बेकार है। अंत में ब्राह्मण के बेटे ने कहा कि जब आयु दिन-ब-दिन घटती जाती है, तो कुशलता कैसी।
चारों के जवाब सुनकर उस युवक की बातों की सच्चाई सामने आ गई। राजा का बेटा निश्चित भाव से सबकुछ कुशल मानता था और मंत्री के बेटे ने तर्कपूर्ण उत्तर दिया। इसी तरह कोतवाल के बेटे ने न्याय व्यवस्था की चर्चा की, जबकि ब्राह्मण के बेटे ने दार्शनिक उत्तर दिया। ये सबकुछ आनुवंशिक संस्कारों के कारण हुआ, जबकि सभी का पालन-पोषण एकसाथ और एक तरह से हुआ। फिर भी चारों के विचारों में अपने संस्कारों की तरह अंतर था। इस प्रकार सभी दरबारियों ने मान लिया कि युवक बिल्कुल सही है।
इतना कहकर 22वीं पुतली वहां से उड़ गई और राजा भोज एक बार फिर इस सोच में पड़ गए कि क्या राजा विक्रमादित्य की तरह वह भी सच्चे और अच्छे लोगों की परख करने के काबिल हैं या नहीं।
कहानी से शिक्षा:-
बच्चों, इस कहानी से सीख मिलती है कि जो व्यक्ति हमेशा सच बोलता है और गलत का साथ नहीं देता है, उसका हमेशा समर्थन करना चाहिए। ऐसे लोग कभी भी गलत सलाह नहीं देते हैं और हमेशा सही राह दिखाते हैं।
धर्मवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की 23वीं कहानी
जब राजाभोज एक बार फिर सिंहासन पर बैठने लगे, तो 23वीं पुतली धर्मवती वहां आ गई। उसने राजाभोज से कहा कि तुम इस सिंहासन पर बैठने के लायक नहीं हो। मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक गुण के बारे में बताती हूं। इसके बाद 23वीं पुतली ने कहानी सुनाना शुरू किया।
एक दिन राजा भोज दरबार में बैठे अपने मंत्रियों के साथ किसी मुद्दे पर चर्चा कर रहे थे। बात-बात में मंत्रियों के बीच बहस छिड़ गई कि मनुष्य जन्म से बड़ा होता है या कर्म से। इस मुद्दे को लेकर सभी मंत्री दो हिस्सों में बंट गए। एक गुट का मत था कि मनुष्य जन्म से बड़ा होता है, क्योंकि पूर्वजन्मों का कर्म ही होता है, जो मनुष्य जन्म मिलता है, वहीं संस्कार आनुवंशिक होते हैं। जैसे राजा का बेटा राजाओं की तरह व्यवहार करता है। वहीं, दूसरे गुट का मानना था कि कर्म ही सबसे ऊपर है। इसलिए, अच्छे परिवार में पैदा हुए व्यक्ति भी बुरी संगत में पड़ सकते हैं।
इस पर पहले गुट ने तर्क दिया कि फिर भी परिवार से मिले संस्कार कभी नष्ट नहीं होते, जैसे – कमल का पौधा कीचड़ में रहकर भी शुद्ध होता है। गुलाब कांटों में खिलकर भी सभी को पसंद होता है। चंदन के पेड़ पर सांप रहते हैं, फिर भी चंदन की खुशबू कम नहीं होती। दोनों गुट अपनी-अपनी बात को पूर तर्क के साथ रख रहे थे और राजा विक्रमादित्य ये सब चुपचाप बैठकर सुन रहे थे। बात को बढ़ता देख उन्होंने कि वो इसका फैसला एक उदाहरण के साथ करेंगे।
उन्होंने तुरंत आदेश दिया कि जंगल से शेर का बच्चा पकड़कर लाया जाए। राजा का आदेश मिलते ही सैनिक जंगल से शेर का नवजात बच्चा उठाकर ले आए। फिर उन्होंने एक गडरिये को दरबार में बुलाया और उसे शेर का बच्चा देते हुए कहा कि इसे बकरी के बच्चों के साथ पालना। गडरिये की समझ में कुछ नहीं आया, लेकिन राजा के आदेश को न मानना उसके बस में नहीं था। इसलिए, शेर के बच्चे को साथ ले गया और बकरियों के साथ पालने लगा। उसे भी भूख लगने पर बकरियों का दूध पिलाया जाता। कुछ और बड़ा होने पर वो दूध तो पीता रहा, लेकिन हरी घास और पत्तियों की तरफ देखता भी नहीं। फिर एक दिन राजा विक्रमादित्य ने गडरिये को महल में बुलाया और शेर के बच्चे के बारे में पूछा। गडरिये ने बताया कि शेर का बच्चा बिल्कुल बकरियों की तरह व्यवहार करता है, लेकिन हरी घास नहीं खाता है।
उसने राजा से अनुरोध किया कि शेर को मांस खिलाने की अनुमति दी जाए। इस पर राजा विक्रमादित्य ने कहा कि उसका पालन-पोषण सिर्फ दूध पर किया जाए। गडरिया सोच में पड़ गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि महाराज एक मांसाहारी जीव को शाकाहारी क्यों बनाना चाहते हैं। यही सोचता-सोचता वो घर लौट गया।
शेर का बच्चा अब काफी बड़ा हो गया था। वह अब दूध के साथ कभी-कभी ज्यादा भूख लगने पर घास भी खा लेता और शाम होते ही अन्य बकरियों की तरह उसे भी बाड़े में बंद कर दिया जाता और वाे भी चुपचाप बकरियों के साथ बाड़े में आराम से बैठा रहता।
एक दिन जब शेर का बच्चा अन्य बकरियों के साथ हरी घास चर रहा था, तो पिंजरे में बंद एक शेर को लाया गया। शेर को देखते ही सारी बकरियां डरकर भागने लगीं, तो शेर का बच्चा भी डरकर भाग खड़ा हुआ। उसके बाद राजा ने गडरिये को आदेश दिया कि अब शेर के बच्चे को अलग से रखा जाए और भूख लगने पर उसके सामने खरगोश को छोड़ा जाए।
कुछ दिन अलग रहने के बाद शेर का बच्चा दूसरे जानवरों का शिकार करके खाने लगा, लेकिन गडरिये के कहने पर तुरंत बाड़े में आराम से बंद हो जाता, लेकिन धीरे-धीरे उसमें बकरियों की तरह डरने वाला स्वभाव खत्म होने लगा था। एक दिन जब फिर से उसी शेर को उसके सामने लाया गया, तो वह डरकर नहीं भागा। जब उसने शेर की दहाड़ सुनी, तो वो भी तेज आवाज में दहाड़ा।
ये सब देखने के बाद राजा ने अपने मंत्रियों से कहा कि इंसान का व्यवहार जन्म से उसके साथ होता और जब उसे मौका मिलता है, तो खुद से सामने आ जाता है। जैसे इस शेर को बचपन से बकरियों के साथ रखा गया, लेकिन उनसे अलग करते ही इसका असली व्यवहार सभी के सामने आ गया, जबकि उसे किसी ने सिखाया नहीं था। इसलिए, मनुष्य का सम्मान भी उसी के कर्म के अनुसार किया जाना चाहिए।
हालांकि, सभी राजा की बात से सहमत हो गए, लेकिन एक दीवान ने कहा कि राजकुल में पैदा होने वाला ही राजा होता, वरना सात जन्मों तक कर्म करने के बाद भी कोई राजा नहीं बनता। इस बात पर राजा विक्रमादित्य मुस्कुरा दिए।
समय बीतता गया और एक दिन उनके दरबार में एक नाविक राजा को भेंट करने के लिए सुंदर फूल लेकर आया। दरबार में मौजूद सभी लोगों ने पहली बार इतना सुंदर फूल देखा था। राजा ने सैनिकों को यह पता लगाने के लिए भेजा कि ये फूल कहां उगता है। सैनिक उस दिशा में नाव लेकर बढ़ने लगे, जिस दिशा से फूल बहता हुआ था। बहते-बहते नाव उस जगह पहुंची, जहां से यह फूल आया था।
वहां का दृश्य देखकर सैनिक हैरान रह गए। वहां एक पेड़ से योगी उल्टा लटका हुआ था और जंजीरों से जकड़ा हुआ था। जंजीरों के कारण उसके शरीर पर गहरे घाव बन गए थे। उन घावों से खून टपक रहा था, जो नदी में गिरते ही लाल रंग में फूलों में बदल जाता था। वहीं, पास में कुछ साधु बैठकर तपस्या कर रहे थे। ये सब देखने के बाद सैनिक फूल लेकर दरबार लौट आया और सारा किस्सा राजा को बताया। ये सब सुनने के बाद राजा विक्रमादित्य ने उस दीवान की तरफ देखा, जिसने कहा था कि राजा का बेटा ही राजा बनता है। महाराज ने उस दीवान को समझाया कि उस उल्टा लटका योगी मैं हूं और वहां जो संन्यासी थे, वो तुम सब दरबारी हो। ये मेरे पूर्वजन्म के कर्म ही हैं, जो इस जन्म में राजा हूं। अब मंत्री को राजा की बात समझ में आ गई। उसने मान लिया कि हमारे पूर्वजन्म के कर्म ही होते हैं, जो हमारा अगला जन्म तय करते हैं।
कहानी से शिक्षा:-
बच्चों, यह कहानी हमें सीख देती है कि हमेशा अपना काम पूरी लगन के साथ करना चाहिए। कठिन परिश्रम का फल एक न एक दिन जरूर मिलता है। साथ ही जब हमें सही अवसर मिलता, तो हमारा असली व्यक्तित्व सामने आ ही जाता है।
करुणावती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की 24वीं कहानी
सिंहासन पर बैठने के लिए राजाभोज ने जैसे ही अपना कदम आगे बढ़ाया, वैसे ही 24वीं पुतली करुणावती ने उन्हें रोक दिया। 24वीं पुतली ने कहा कि यह सिंहासन तुम्हारे लिए नहीं है। पहले मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य के गुण व कौशल से जुड़ी एक कहानी सुनाती हूं। उसके बाद तय करना कि आप इस सिंहासन पर बैठने योग्य हैं या नहीं। 24वीं पुतली ने कहा..
राजा विक्रमादित्य अक्सर अपनी प्रजा का हालचाल जानने के लिए रात में रूप बदलकर राज्य भर में घूमा करते थे। राज्य के चोर-डाकू भी जानते थे कि महाराज भेष बदलकर घूमते हैं, इसलिए वो अपराध करने से घबराते थे। राजा विक्रमादित्य भी चाहते थे कि उनके राज्य से अपराध पूरी तरह से खत्म हो जाए और उनकी प्रजा रात को चैन से सो सके। इसी प्रकार एक रात महाराज भेष बदलकर अपने राज्य में घूम रहे थे। चलते-चलते उन्हें एक भवन के बाहर रस्सी लटकी हुई नजर आई। उन्होंने सोचा कि जरूर कोई चोर इस रस्सी से लटकर ऊपर गया, इसलिए वो भी रस्सी के सहारे ऊपर पहुंच गए।
उन्होंने अपनी तलवार भी निकाल ली और चोरों को तलाशने लगे, लेकिन तभी किसी महिला की धीमी आवाज सुनाई दी। उन्हें लगा कि यह महिला ही चाेर है। यह सोचकर वो कमरे की दीवार से सटकर खड़े हो गए। उन्होंने सुना कि महिला किसी से साथ वाले कमरे में जाकर किसी की हत्या करने को कह रही है। महिला कह रही थी कि उस आदमी की हत्या किए बिना किसी और के साथ उसका संबंध बनाना मुश्किल है। इसके बाद महाराज को एक पुरुष की आवाज सुनाई दी। पुरुष बोल रहा था कि वह लुटेरा जरूर है, लेकिन किसी निर्दोष व्यक्ति की जान नहीं ले सकता। उसने महिला से कहा कि उसके बाद बहुत धन है। वो दोनों दूर कहीं जाकर सुखी से अपना जीवन काट सकते हैं। इस पर महिला बोली कि तुम दो दिन बाद आना, क्योंकि उसे सारा धन इकट्ठा करने में एक दिन लगेगा।
राजा समझ गए कि पुरुष उस महिला का प्रेमी है और महिला इस घर के मालिक की पत्नी है। इसके बाद राजा उस रस्सी के सहारे नीचे आ गए और महिला के प्रेमी का इंतजार करने लगे। थोड़ी देर बाद जैसे महिला का प्रेमी रस्सी पकड़ कर नीचे आया, तो राजा ने उसकी गर्दन पर अपनी तलवार रख दी और उसे अपना परिचय दिया। महाराज को सामने देखकर आदमी डर गया, लेकिन राजा विक्रमादित्य ने उसे वादा किया कि अगर वो सच बताएगा, तो वो उसे मृत्युदंड नहीं देंगे। इसके बाद उसने अपनी कहानी महाराज को बताई-
“मैं बचपन से ही उस महिला से प्यार करता हूं और शादी भी करना चाहता था। मेरे पिता बहुत बड़े व्यापारी थी, जिस कारण मेरे पास काफी धन था। फिर एक दिन समुद्री डाकुओं ने मेरे पिताजी का कीमती सामान से भरा जहाज लूट लिया, जिस कारण हम कंगाल हो गए और मेरे सारे सपने चकनाचूर हो गए। इससे मेरे पिताजी इतने दुखी हुई कि उनकी मौत हो गई। इसके बाद मैंने समुद्री डाकुओं से बदला लेने का निर्णय लिया। कई सालों तक इधर-उधर धक्के खाने के बाद आखिरकार एक दिन मुझे उनका पता चल ही गया। किसी तरह से मैं उनके गुट में शामिल हुआ और उनका विश्वास जीत लिया। अब जब भी मुझे मौका मिलता मैं गुट के किसी न किसी सदस्य की हत्या कर देता। इस तरह से मैंने पूरे दल को खत्म कर दिया और उन्होंने लूट से जो पैसा इकट्ठा किया था वह लेकर वापस घर लौट आया।”
“घर आने के बाद मुझे पता चला कि जिसे मैं प्यार करता था, उसकी शादी राज्य के किसी धनी सेठ से हो गया है। एक बार फिर मेरे सारे सपने टूट गए। एक दिन मुझे उसके मायके आने के बारे में पता चला। फिर वो रोज मुझसे आकर मिलने लगी। एक दिन मैंने उसने कहा कि मेरे पास बहुत सारी दौलत है, लेकिन उसे मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने कहा कि अगर वो उसे नौलखा हार लाकर दे, तो ही उसे विश्वास होगा। आखिरकार मैं उसकी बात मानकर नौलखा हार ले आया, लेकिन तब तक वो अपने पति के घर लौट गई थी। आज जब मैंने नौलखा हार लाकर उसे पहनाया, तो उसने अपने पति की हत्या करने के लिए मुझे उकसाया, लेकिन मैंने करने से मना कर दिया, क्योंकि किसी निर्दोष की हत्या करना बहुत बड़ा पाप है।
राजा विक्रमादित्य ने सच बोलने पर उसकी तारीफ की और समुद्री डाकुओं का सफाया करने के लिए उसे शाबाशी दी। साथ ही अपनी प्रेमिका की चतुराई नहीं समझ पाने के लिए उसे डांटा। राजा विक्रमादित्य ने कहा कि सच्ची प्रेमिकाएं प्रेमी से प्रेम करती हैं, उसकी दौलत से नहीं। साथ ही नौलखा हार मिलने के बाद अपने पति की हत्या के लिए उसे उकसाया। ऐसी निर्दय तथा चरित्रहीन महिला से प्रेम हमेशा विनाश की ओर ले जाता है।
वह आदमी रोता हुआ महाराज के चरणों में गिर गया तथा अपने अपराध के लिए उसे माफ करने के लिए प्रार्थना करने लगा। राजा ने भी उसे मृत्युदंड नहीं दिया और उसकी वीरता और सच्चाई के लिए ढेरों पुरस्कार दिए।
अगली रात राजा विक्रमादित्य उस महिला के प्रेमी का भेष बनाकर उस महिला के पास पहुंचे। उनके पहुंचते ही महिला ने सोने के आभूषणों से भरी एक थैली उनके सामने रख दी और कहा कि उसने सेठ को विष खिलाकर मार दिया है। जब राजा कुछ नहीं बोले, तो महिला को शक हुआ और उनकी नकली दाढ़ी-मूंछ नोंच ली। अपने प्रेमी की जगह किसी और पुरुष को देखकर महिला जोर-जोर से चोर-चोर चिल्लाने लगी और अपने पति का हत्यारा उन्हें बताकर रोने लगी। वहीं, घर के बाहर खड़े राजा के सिपाही राजा का आदेश मिलते ही दौड़कर आए और महिला को गिरफ्तार कर लिया। अपने सामने राजा विक्रमादित्य को देखकर महिला के हाेश उड़ गए और उसने झट से विष पीकर अपनी जान दे दी।
यह कहानी सुनाकर 24वीं पुलती वहां से उड़ गई और राजा भोज एक बार फिर महाराज विक्रमादित्य की न्यायप्रियता के बारे में सोचने लगे।
कहानी से शिक्षा:-
लालच करने वालों के साथ कभी अच्छा नहीं होता। उन्हें एक न एक दिन इसका परिणाम भुगतना ही पड़ता है, जैसे इस कहानी में पैसों के लिए अपने पति की हत्या करने वाली महिला के साथ हुआ।
त्रिनेत्री पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की पच्चीसवीं कहानी
एक के बाद एक करके लगभलग चौबीस पुतलियों ने राजा भोज को महाराज विक्रमादित्य की कहानी के जरिए चौबीस गुणों के बारे में बता दिया था जिसे जानकर वह बहुत हर्षित हुए। इसके बाद बारी थी पच्चीसवीं पुतली की जैसे ही राजा भोज सिंहासन की ओर बढ़े उन्हें पच्चसवीं पुतली ने रोक लिया और कहानी के माध्यम से महाराज विक्रमादित्य के एक और महान गुण के बारे में बताने लगीं।
महाराज वक्रमादित्य अपनी प्रजा को अपनी संतान के जैसा मानते थे और हर हाल में सुखी देखना चाहते थे। इस कारण वे भेष बदलकर अक्सर नगर में घुमते और प्रजा के दुखों को जानकर उसे नीति के अनुसार दूर करने की कोशिष करते थे। शायद यही कारण था की माहराज विक्रमादित्य की प्रजा सुखी और सम्पन्न थी।
उनकी प्रजा में एक ब्राह्मण और एक भाट का परिवार ऐसा भी थे, जो की बहुत गरीब था। लेकिन कभी भी उनने कोई शिकायत नहीं कि और जितना मिला उतने में संतोष करके रहते थे। वे और लोगों के जैसे राजा के पास कभी भी अपना दुखड़ा लेकर नहीं गए। उनका मानना था कि उन्हें भगवान जो जरूरत के हिसाब से पर्याप्त अन्न और धन दिया है।
धीरे धीरे समय बीत ता गया और अब ब्राह्मण और भाट दोनों की पुत्री की आयु विवाह योग्य हो गई थी। लेकिन उनके पास इतना धन नहीं था कि वे अपनी पुत्रियों का विवाह करवा सकें। क्योंंकि वे दिनभर में जितना भी धन अर्जन करते थे वह केवल उसी दिन के लिए ही पर्याप्त हो पाता था। दोनों के पत्नियों ने अपने पती के सामने पुत्रियों के विवाह की और अपर्याप्त धन की बात कही।
भाट ने कहा कि जब भगवान ने संतान दी है तो इसके भविष्य के बारे में भी वही कुछ करेगा। उधर ब्राह्मण ने कहा कि थोड़ा समय दो कुछ न कुछ हो जाएगा। लेकिन दोनों की स्थिति पहले के जैसी ही रही।
एक दिन भाट ने विचार किया कि ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला मैं दूसरे देश जाकर वहां से धन कमाकर लाऊंगा। इधर ब्राह्मण ने सोचा की वह जिन यजमानों के यहां पूजा पाठ करता है उनसे कुछ बात करके देखूंगा।
भाग ने दूसरे दिन ही गमन कर दिया और कई देशों में जाकर सेठ, राजा, मजाराजाओं को अपने नाटक और मजाकिया बातों से हंसा हंसा कर खूब खुश किया और बदले में उन्होंने भाट को बहुत सा धन उपहार के रूप में भेट दिया। जब पुत्री के विवाह योग्य धन इकट्ठा हो गया तब उसने अपरे राज्य की ओर प्रस्थान किया। लेकिन पता नहीं कैसे मार्ग में चारे लुटेरों को उसके धन की भनक लग गई और उसे लूट लिया।
वह निराश खाली हाथ घर आ गया और अपनी पत्नी से कहा कि मैंने पूरा प्रयास किया लेकिन शायद भागवान को यही मंजूर था। अब वो ही पुत्री के विवाह की व्यवस्था करेगा। तब दुख और गुस्से के आवेश में पत्नी के कहा कि तुम तो ऐसे बोल रहे हो कि जैसे भगवान राजा विक्रमादित्य को सपने में कहेगा हमारी मदद करने के लिए। भाट ने कहा क्या मालूम ऐसा ही हो। महाराज विक्रमादित्य ने भाट की बात सुन ली और हंसते हुए आगे बढ़ गए।
वहीं दूसरी ओर ब्राह्मण ने भी अपने यजमानों से घुमाफिरा कर धन की बात की लेकिन किसी ने भी उसकी बात पर गौर नहीं किया और वह भी खाली हाथ अपने घर आ गया और अपनी पत्नी को सारा बात बता दी। तब पत्नी ने कहा कि अब भगवान कुछ नहीं करने वाले आप कल महाराज विक्रमादित्य के पास जाकर उनसे ही मदद की गुहार करो। तब ब्राह्मण ने कहा कि मैं ऐसा ही करूंगा और कल ही महाराज विक्रमादित्य से मदद की प्रार्थना करूंगा।
दूसरे दिन सुबह सुबह ही महाराजा विक्रमादित्य ने दो सैनिकों को भेज कर ब्राह्मण और भाट को दरबार में बुला लिया। महाराज ने भाट को दस लाख स्वर्ण मुद्राएं दीं और विवाह की शुभकामनाओं के साथ विदा किया। वहीं दूसरी ओर ब्राह्मण को केवल दस हजार स्वर्ण मुद्राएं देकर ही विदा कर दिया।
तब महाराज से एक दरबारी ने पूछा कि महाराज आपने दोनों में भेद भाव क्यों किया। महाराज ने उसकीब बात सुनकर कहा कि भाट ऊंची जाती का न होकर भी भगवान पर भरोसा रखता था और मुझे उसने भगवान का प्रतिनिधि बनाया था। वहीं, ब्राह्मण को भगवान के ऊपर पूरा भरोसा नहीं और उसने भगवान के स्थान पर मुझपर भरोसा किया इसलिए मैंने उसकी इंसान के जैसे ही मदद की।
दरबारी ने महाराज की नीति पूर्वक की गई मदद की प्रसंशा की और अपने स्थान पर बैठ गया।
इतना कहकर पच्चीसवीं पुतली ने राजा भोज से कहा कि कहो राजन् क्या आपके अंदर भी महाराज विक्रमादित्य के जैसे ही नीति से दूसरों की मदद करने वाला गुण मौजूद है। यह सुनकर राजा भोज ने अपना सिर नीचे कर लिया और पच्चीसवीं पुतली भी अन्य पुतलियों के जैसे वहां से उड़ गई।
कहानी से शिक्षा:-
हमें न सिर्फ न्याय बल्कि दूसरों की मदद भी नीति से करना चाहिए जिससे वह हमारे द्वारा दी गई मदद का गलत फायदा न उठा ले।
मृगनयनी पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की छब्बीसवीं कहानी
पच्चीवीं पुतली के द्वारा राज भोज महाराज विक्रमादित्य के गुणों को जानकर हर्षित हुए और उस स्थान से अपने महल की ओर रवाना हो गए। लेकिन अगल दिन फिर से उन्हें सिंहासन और महाराज विक्रमादित्य के गुणों का आकर्षण खींच लाया। जैसे ही राजा भोज सिंहासन की ओर बढ़े कि छब्बीसवीं पुतली मृगनयनी प्रकट हो गई। उसने राजा भोजा को रोकते हुए कहा कि ठहरो राजन् अगर आप इस सिंहासन पर बैठना चाहते हैं तो पहले मुझे यह बताईए कि क्या आपके अंदर वह गुण है जो महाराज विक्रमादित्य में था और जिसके बारे में मैं आपको बताने जा रही हूं। तब राजा भोज ने हाथ जोड़कर कहा कि देवी कृप्या उस गुण के बारे में मुझे बताईए। तब मृगनयनी पुतली ने महाराज विक्रमादित्य की छब्बीसवीं कथा कहना प्रारम्भ की।
महाराज विक्रमादित्य का मन जितना राजा काज और प्रजा की कुशलता में लगता है उससे कहीं ज्यादा वह पूजा पाठ और प्रभू भक्ति में तपस्वी के जैसे लीन रहते थे। वे इतनी कठोर तपस्या करते थे कि इंद्र देव का सिंहासन भी कांप जाता था।
एक दिन की बात है राजा विक्रमादित्य के दरबार में एक इसके कुछ सैनिक एक आदमी को पकड़ कर लाए जो देखने में किसी भिखारी के जैसा लगता था लेकिन उसके पास से बहुत सारा धन प्राप्त हुआ था। किसी भिखारी जैसे व्यक्ति के पास इतना धन कैसे आया यह सोचकर ही उसे सैनिकों से जंगल से संदिग्ध अवस्था में गिरफ्तार किया था।
महाराज ने जब उस व्यक्ति से धन के बारे में पूछा तो उसने कहा कि वह एक सेठ के यहां पर कार्य करता है और सेठ के पत्नी के साथ उसके अनैतिक संबंध हैं उसने ही यह धन दिया था और कहा था कि जंगल में रुक कर मेरा इंतेजार करना मैं सेठ को मारकर जल्दी ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी। राजा ने व्यक्ति की बात सुनकर सेठ के यहां अपने सैनिक भेजे। वहां पर सेठ की चिता पर बैठी हुए उसकी पत्नी कह रही थी कि रात में लुटेरों से उसका सारा धन लूट लिया है और उसके पति की हत्या कर दी है इसलिए वह सती हो जाएगी।
सैनिकों ने पूरा वृत्तांत महाराज विक्रमादित्य को सुना दिया तब महाराज स्वयं उस व्यक्ति के साथ सेठ के घर पहुंचे। वहां सेठानी से कहा कि हमें तुम्हारी सच्चाई का पता चल गया है तुम्हारा चरित्र अच्छा नहीं है अब तुम को राजा द्वारा दिया जाने वाला दण्ड भोगना पड़ेगा। यह सुनकर सेठानी डर गई और राजा से कहा कि आप क्या मेरा चरित्र देख रहे हैं पहले अपनी छोटी रानी का चरित्र तो देख लों।
इतना कह कर वह सेठी की चिता में कूद गई और जलकर राख हो गई। इस घटना के बादे से महाराज का मन विचलित रहने लगा और वह गुप्त तरीके से छोटी रानी पर नजर रखने लगा। एक रात छोटी रानी ने सोचा कि सभी सोरहे हैं और वह उठकर महल से थोड़ी दूरी पर एक साधु की कुटिया में चली गई। राजा भी उसके पीछे पीछे आ गया था और जैसे ही उनके कुटिया से झांक कर देखा तो दंग रह गया।
राजा को अपनी काली करतूत का पता चल गया था कि उसके कुटिया में रहने वाले व्यक्ति के साथ अनैतिक संबंध हैं। गुस्से में उसने रानी और व्यक्ति को मार दिया और स्वयं ने सारे राज्य का भार सैनिकों के ऊपर डालकर सन्यासियों के जैसे जीवन अपना लिए।
सबसे पहले वे एक समुद्र के तट पर गए और समुद्र देव की तपस्या प्रारम्भ कर दी। समुद्र देव से उनसे वरदान मांगने को कहा। तब राजा ने कहा कि वे समुद्र के तट पर कुटिया बनाकर तपस्या करना चाहते हैं कृप्या आर्शिवाद प्रदान करें। समुद्र देव ने उन्हें आर्शिवाद के साथ ही एक शंख दिया और कहा कि किसी भी दैविय मुसीबत आने पर यह शंख बजा दें, इससे मुसीबत दूर हो जाएगी। इतना कह कर समुद्र देवता गायब हो गए।
इसके बाद राजा विक्रमादित्य एक कुटिया बनाकर कठोर तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या के प्रभाव से स्वर्ग में इन्द्र देव का सिंहासन कंपायमान होने लगा। इन्द्र ने घबराकर अपने सेवकों को भेजकर कहा कि जहां पर विक्रमादित्य तपस्या कर रहा है उस स्थान को पानी में डुबा दो। सेवको ने ऐसा ही किया और विक्रमादित्य कुटिया सहित पानी में डूब गए, लेकन समुद्र देवता के आर्शिवाद से वह पानी कुछ ही देर में सूख गया।
यह देखकर इन्द्र चकित रह गया और फिर उसने सैनिकों को भेजकर वहां पर आंधी तूफान के जरिए विक्रमादित्य की तपस्या भंग करने का आदेश दिया। सेवको ने ऐसा ही किया लेकिन इस बार महाराज विक्रमादित्य से समुद्र देवता के द्वारा दिए गए शंख को बजाकर उस आपदा को भी दूर कर दिया और अपनी तपस्या में मग्न हो गए।
इन्द्र एक बार फिर से चकित रह गया और इस बार स्वर्ग की सबसे सुन्दर अप्सरा तिलोत्तमा को तपस्या भंग करने के उद्देश्य से भेजा। तिलोत्तमा विक्रमादित्य की साधना में नृत्य रूप और वादन के जरिए विघ्न डालने की चेष्टा करने लगी। लेकिन फिर भी विक्रमादित्य की तपस्या पर्वत के जैसे अचल रही। थक कर तिलोत्तमा वापस स्वार्ग आ गई।
इन्द्र ने फिर से एक और युक्ति सोची। उसे पता था कि विक्रमादित्य बहुत बड़ा दानी है और अगर उससे कोई ब्राह्मण जो भी मांगता है वह उसे दे देता है। इस बार इन्द्र एक ब्राह्मण रूप बनाकर विक्रमादित्य के पास पहुंचा। उन्हें देखकर विक्रमादित्य ने हाथ जोड़ते हुए कहा कि कहिए ब्राह्मण देवता मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं।
तब इन्द्र ने कहा कि मुझे दान चाहिए। विक्रमादित्य ने कहा कि जो भी मेरे पास और आप उसमें से जो मन हो वाे मांग लीजिए। तब इन्द्र ने कहा कि तुम अपनी तपस्या का सारा फल मुझे दान में दे दो। तक विक्रमादित्य से सहर्ष अपनी तपस्या का सारा फल उन्हें दान में दे दिया। इस बात से प्रसन्न हो कर इन्द्र अपने असली रूप में आ गया और विक्रमादित्य को आर्शिवाद दिया कि उनके राज्य में कभी भी अतिवृष्टी और सूखा नहीं रहेगा और उनकी प्रजा हमेशा ही खुशहाल रहेगी। इतना कहकर इन्द्र देव गायब हो जाते हैं और विक्रमादित्य भी मन की शांति पाकर अपने राज्य की ओर प्रस्थान करते हैं।
राजा विक्रमादित्य के दान की बात कह कर पुलती ने राजा भोज से कहा कि कहिए राजन क्या आपके अंदर भी एसी सामर्थ्य है कि आप अपना सब कुछ दान में दे दें? एक बार फिर राजा भोज निरुत्तर रह गए और पुतली अन्य पुतलियों के जैसे हवा में उड़ गई।
कहानी से शिक्षा :-
किसी भी परिस्थिति में हमें डरना नहीं चाहिए बल्कि उस परिस्थिति का साहस और धैर्य के साथ सामना करना चाहिए।
मलयवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की सताइसवीं कहानी
राजा भोज के मन में कैसे भी करके महाराज विक्रमादित्य के सिंहासन पर बैठने की लालसा थी लेकिन हर बार उनको सिंहासन में चिपकी हुई पुतली रोक लेती थी। और उन्हें कहानी के माध्यम से महाराज विक्रमादित्य के गुणों के बारे में बतातीं थीं जो राजा भोज में नहीं थे, जिस कारण राजा भोज सिंहासन पर नहीं बैठ पाते थे। ऐसा करते करते छब्बीस पुतलियों के द्वारा राजा भोज को रोका जा चुका था। राज भोज इस बार मन बना चुके थे कि कुछ भी वे सिंहासन पर बैठकर ही रहेंगे। जैसे ही वे सिंहासन की ओर बढ़े हर बार के जैसे ही इस बार भी उन्हें पुतली ने रोक लिया। इस बार उन्हें मलयवती नामक सताइसवीं पुतली ने रोक लिया था और हर बार के जैसे ही उसने राजा भोज से विक्रमादित्य की गुणों के बारे में कहनी के माध्यम से कहना शुरु किया।
महाराज विक्रमादित्य अपना कुछ समय राज काज से बचाकर शास्त्रों के अध्ययन में लगाते थे। एक दिन वे विष्णु पुराण पड़ रहे थे जहां उन्होंने दानवीर दैत्यराज बली के बारे में पढ़ा कि किस प्रकार से उन्होंने वामन वेशधारी विष्णु देव को सब कुछ दान में दे दिया और पाताल लोक चले गए। महाराज विक्रमादित्य के मन में इनते बड़े दानवीर के दर्शन करने की लालसा उत्पन्न हो गई। उन्होंने सोचा कि इस लालसा को केवल विष्णु देव ही पूरा कर सकते हैं। ऐसा सोचकर वे अपना राज्य मंहामंत्री के हवाले करके जंगल में विष्णु देव की तपस्या करने के लिए चले गए।
कई वषों की तपस्या के दौरान पहले उनने अन्न का त्याग किया और कंदमूल का सेवन करने लगे फिर कुछ दिनों के बाद कंदमूल का त्याग कर मात्र पानी का सेवन करने लगे। ऐसा करने पर उनका शरीर बेहद कमजोर हो गया। उनकी तपस्या के कारण उनके आस पास और भी साधु तपस्या करने लगे। उनमें से एक साधु ने महाराज विक्रमादित्य की कमजोर हालत देखकर उनसे कहा कि वे गृहस्थ है और उन्हें साधुओं के जैसे तपस्या नहीं करना चाहिए। लेकिन महाराज विक्रमादित्य नही माने और अपनी तपस्या में लीन होते हुए उनने पानी का भी त्याग कर दिया।
अब तो उनका शरीर सूखकर कांटे के जैसा हो गया और वे बेहाेश होकर गिर गए। जब होश आया तो देखा की उनका सिर विष्णु देव के गोदी में है और वे राजा विक्रमादित्य के सिर पर हाथ फेर रहे हैं। उन्हें देखते ही विक्रमादित्य के हर्ष की सीमा नहीं रही और तुरन्त ही उन्हें दण्डवत प्रणाम किया। विष्णु देव ने उनसे इतनी कठिन तपस्या का कारण पूछा तो विक्रमादित्य ने पूरा वृत्तांत सुना दिया।
विष्णु देव ने उन्हें एक शंख देते हुए कहा कि वे समुद्र के बीच में बने हुए पाताल लोक तक इस शंख की मदद से पहुंच सकते हैं, जब वे समुद्र के किनारे जाएं तो इस शंख को बजा दें। इससे समुद्र देव प्रकट हो जाएंगे और वे आपकी इच्छा को पूरा करने में आपकी मदद करेंगे। इतना कह कर वे गायब हो गए।
शंख और विष्णु देव के दर्शन पाकर मन में प्रसन्नता का भाव लेकर में महाराज विक्रमादित्य समुद्र की ओर चले और समुद्र के किनारे पर जाकर उनने शंख को फूंका जिससे समुद्र देव प्रकट हो गए। उनने पाताल लोक तक जाने में विक्रमादित्य की मदद की। पाताल लोक में जब विक्रमादित्य राजा बली के महल के बाहर पहुंचे तो उन्हें द्वारा पालों ने रोक लिया और वहां जाने का प्रयोजन पूछा। तब विक्रमादित्य ने कहा कि उन्हें राजा बली से भेंट करनी है।
राजा बली के पास जब यह संदेश गया तो उन्होंने कहा कि वे अभी नहीं मिल सकते हैं। द्वारपाल ने बली का संदेश विक्रमादित्य के पास पहुंचा दिया। संदेश सुनकर विक्रमादित्य ने कहा कि मुझे राजा बली से भेंट करनी है नहीं तो मैं आपने प्राण त्याग दूंगा। इतना कहकर उनने तलवार निकालकर अपनी गर्द धड़ से अलग कर दी।
जब यह बात राजा बली तक पहुंची तो उनने अमृत भेज कर राजा विक्रमादित्य को फिर से जीवित करवा दिया और कहा कि ठीक है वे महाशिव रात्री को विक्रमादित्य से मिलने के लिए तैयार हैं। विक्रमादित्य ने सोचा ने शायद बली बात को टालने की कोशिश कर रहें हैं। उनने फिर से यही बात कही कि मुझे दर्शन करवा दो नहीं तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगा। इतना कहकर एक बार फिर राजा ने अपनी गर्द धड़ से अलग कर दी।
इस बार फिर से अमृत छिड़क कर विक्रमादित्य को जीवित कर दिया और गया राजा बली के पास ले जाया गया। तब बली ने उनका स्वागत किया और आने का प्रयोज पूछा तो विक्रमादित्य ने विष्णु पुराण और उनके दान की पूरी बात उनसे कह दी। विक्रमादित्य की बात सुनकर बली बहुत प्रसन्न हुए और उनकी खूब खातिर की। जब विक्रमादित्य वहां से आने लगे तो दैत्यराज बली ने उन्हें हर इच्छा को पूरा करने वाला एक मूंगा दिया और उसके बारे में बताया।
मूंगा लेकर महाराज विक्रमादित्य समुद्र पारकर अपने राज्य की ओर प्रस्थान कर गए। रास्ते में उन्हें एक स्त्री मिली जिसके बाल बिखरे हुए थे और अपनी गाेदी में अपने पति का सिर लिए बैठी रो रही थी। उसका पति मर गया था।
महिला की हालत देखकर विक्रमादित्य ने मूंगा से उसके पति को जिंदा करने का अनुराेध किया और पलक झपकते ही वह जिंदा हो गया। महाराज विक्रमादित्य ने वह मूंगा उस महिला को दे दिया और उसका रहस्य भी बता दिया। इसके बाद वे वापस आपने राज्य चले गए।
कहानी को खत्म करके पुतली ने राजा भोज से पूछा कि हे राजन् क्या आपके अन्दर भी इतनी सामर्थ्य है कि अपने इच्छा को पूरा करने के लिए अपना सब कुछ छोड़कर प्रभू भक्ति में लग जाओ?
राजा भोज कुछ न कह सके और सताइसवीं पुतली भी वहां से उड़कर चली गई। इसके बाद राजा भोज फिर से अपने महल की ओर चले गए।
कहानी से शिक्षा : -
हमें अपने मन लिया हुआ दृढ़ संकल्प किसी भी परिस्थिति में पूरा करना चाहिए, भले ही कितनी विपत्ती का सामना करना पड़े।
सिंहासन बत्तीसी की 28वीं कहानी - वैदेही पुतली की कथा
लगातार 27 पुतलियों से राजा विक्रमादित्य की महानता की कहानी सुनकर परेशान हो चुके राजा भोज ने एक बार फिर सिंहासन पर बैठने की कोशिश की। वह जैसे ही सिंहासन पर बैठने गए, तभी 28वीं पुतली वैदेही ने उन्हें रोका और राजा विक्रमादित्य की स्वर्ग यात्रा और इस दौरान उनके द्वारा किए गए पुण्य कार्यों का किस्सा बताना शुरू किया।
एक रात महाराज विक्रमादित्य अपने महल में सोए रहे थे। इस दौरान उन्होंने सपने में एक सोने का महल देखा। महल की सजावट व आसपास का नजारा बहुत ही खूबसूरत था। सपने में ही महल के बाहर उन्हें एक योगी दिखा जिसका चेहरा हूबहू उनके जैसा ही था। यह देखते ही अचानक उनकी नींद टूट गई। वह समझ गए कि वह एक सपना देख रहे थे, लेकिन जागने के बाद भी उन्हें पूरा सपना अच्छी तरह से याद था। उन्होंने अपने पंडितों व ज्योतिषियों को अपना सपना सुनाया और इसका मतलब जानने के लिए उनसे कहा।
सभी विद्वानों ने राजा विक्रमादित्य से कहा, “महाराज आपने सपने में स्वर्ग के दर्शन किए हैं और वह महल देवराज इंद्र का है। देवताओं ने शायद आपको सशरीर स्वर्ग आने का निमंत्रण दिया है।”
अपने विद्वानों की यह बात सुनकर विक्रमादित्य आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने पंडितों से पूछा, “स्वर्ग जाने का रास्ता कौन-सा है और इस यात्रा में किस-किस चीज की जरूरत पड़ सकती है।” काफी सोचने के बाद सभी विद्वानों ने उन्हें वह मार्ग बताया जहां से स्वर्ग में प्रवेश किया जा सकता है। इसके साथ ही उन्हें यह भी कहा कि जो हमेशा भगवान को याद करता है और धर्म का पालन करता है, वही स्वर्ग जा सकता है।
इस पर राजा ने कहा कि काम करते हुए कभी न कभी उनसे अनजाने में कोई गलत काम जरूर हुआ होगा। साथ ही कई बार राज काज के कारण भगवान की पूजा करना भी छूट जाता है। इस पर सभी ने एकमत होकर कहा, “ महाराज, अगर आप इस काबिल नहीं होते, तो आपको स्वर्ग के दर्शन ही नहीं होते।”
सभी के कहने पर राजा विक्रमादित्य राजपुरोहित को अपने साथ लेकर स्वर्ग जाने के लिए निकल पड़ते हैं। अपने विद्वानों के कहे अनुसार उन्हें इस यात्रा के दौरान पुण्यकर्म भी करने थे। यात्रा से पहले राजा ने अपना शाही भेष त्याग दिया था। वह आम लोगों की तरह कपड़े पहन कर यात्रा कर रहे थे। यात्रा के दौरान रात में वह एक नगर में आराम करने के लिए रुक गए। कुछ देर बाद उन्हें एक बुजुर्ग महिला रोती दिखी। वह काफी परेशान थी। राजा विक्रमादित्य ने उस बुजुर्ग महिला से रोने का कारण पूछा। बुजुर्ग महिला ने बताया, “मेरा इकलौता बेटा सुबह जंगल गया था, लेकिन अभी तक लौटा नहीं है। राजा विक्रमादित्य ने उससे पूछा, “आपका बेटा जंगल किस काम से गया है?” बुढ़िया ने बताया, “मेरा बेटा रोज सुबह जंगल से सूखी लकड़ियां लाता है और शहर में बेचता है। इसी से परिवार का गुजारा होता है।”
राजा ने बुढ़िया से कहा, “चिंता मत करो आपका बेटा आ जाएगा।” इस पर बूढ़ी औरत ने कहा, “जंगल बहुत घना है और वहां कई खतरनाक जानवर हैं। मुझे डर है कि कहीं किसी जानवर ने उसे अपना शिकार न बना लिया हो।” बुढ़िया ने आगे कहा, “शाम से मैं कई लोगों से विनती कर चुकी हूं, लेकिन कोई भी मदद नहीं कर रहा। मैं बूढ़ी हो चुकी हूं, इसलिए खुद जंगल जाकर उसे ढूंढ नहीं कर सकती।” यह सुनकर विक्रमादित्य ने कहा कि वह उनके बेटे को ढूंढकर लाएंगे।
इसके बाद राजा विक्रमादित्य लड़के की खोज में जंगल चल दिए। जंगल में उन्हें एक नौजवान युवक कुल्हाड़ी लेकर पेड़ पर दुबका बैठा मिला और उस पेड़ के नीचे एक शेर घात लगाए बैठा दिखा। विक्रम ने कोई रास्ता निकालते हुए शेर को वहां से भगा दिया और उस युवक को अपने साथ लेकर बुढ़िया के पास लौट आए। बुढ़िया बेटे को देखकर बहुत खुश हुई और विक्रम को ढेरों आशीर्वाद मिले। इस तरह बुढ़िया को चिंतामुक्त करके राजा ने एक पुण्य का काम किया।
रात को आराम के बाद उन्होंने अगली सुबह फिर से अपनी यात्रा शुरू की। चलते-चलते वह समुद्र के किनारे पहुंच गए। वहां उन्होंने एक महिला को रोते हुए देखा। जब वह उसके पास गए, तो देखा कि समुद्र के किनारे पर एक जहाज खड़ा है और कुछ लोग उस पर सामान लाद रहे हैं। जब उन्होंने महिला से रोने का कारण पूछा, तो उसने बताया, “कुछ महीने पहले ही मेरी शादी हुई है और अब में गर्भवती हूं। मेरे पति इसी जहाज पर काम करते हैं और आज जहाज दूर किसी देश जा रहा है।”
यह सुनकर राजा विक्रम ने कहा, “इसमें परेशानी की क्या बात है, कुछ ही समय बाद तुम्हारा पति लौट आएगा।” इस पर उसने अपनी चिंता का कारण कुछ और बताया। उसने कहा, “कल मैंने सपने में सामान से लदे एक जहाज को समुद्र के बीच भयानक तूफान में घिरते देखा है। तूफान इतना तेज था कि जहाज टूटकर समुद्र में डूब गया और उस पर सवार सभी लोग मर गए।” उस महिला ने आगे कहा, “अगर यह सपना सच हुआ, तो मेरा क्या होगा और मेरे होने वाले बच्चे की देखभाल कैसे होगी।”
राजा विक्रमादित्य को यह बात सुनकर दया आ गई। उन्होंने समुद्र देवता द्वारा दिए गए शंख को महिला को दिया और कहा, “यह अपने पति को दो और उससे कहो कि जब भी तूफान या कोई अन्य प्राकृतिक आपदा आए, तो इस शंक को फूंक दे, इससे सारी मुसीबत खत्म हो जाएगी।”
उस औरत को विक्रमादित्य की बात पर विश्वास नहीं हुआ और वह शक की नजर से उन्हें देखने लगी। राजा विक्रमादित्य ने महिला की शंका को भांप लिया और तुरंत शंख में एक फूंक मारी, जिसके बाद देखते ही देखते वह जहाज और उस पर तैनात सभी लोग कोसों दूर चले गए। अब दूर-दूर तक सिर्फ समुद्र नजर आ रहा था। वह औरत और वहां खड़े अन्य लोग यह देखकर हैरान हुए। इसके बाद महाराज ने फिर से शंख फूंका, तो वह जहाज सभी कर्मचारियों सहित वापस आ गया। अब उस औरत को शंख की शक्ति पर विश्वास हो गया था। उसने राजा से वह शंख लेकर धन्यवाद कहा।
राजा विक्रमादित्य उस औरत को शंख देकर अपनी यात्रा पर आगे बढ़ गए। कुछ देर चलने के बाद आकाश में काले बादल मंडराने लगे और बादल जोर-जोर से गरजने लगे। इसी बीच उन्हें एक सफेद घोड़ा वहां आता दिखा। जब वह घोड़ा उनके पास पहुंचा, तो एक आकाशवाणी हुई –
“हे महाराज विक्रमादित्य, इस धरती पर तुम्हारे जैसा पुण्यात्मा और कोई नहीं हुआ। स्वर्ग आने की इस यात्रा में तुमने दो पुण्य कार्य किए हैं। इसलिए, तुम्हें लेने के लिए एक घोड़ा भेजा जा रहा है, जो तुम्हें इंद्र के महल तक पहुंचा देगा।”
यह सुन विक्रमादित्य ने कहा, “मैं अपने राजपुरोहित के साथ स्वर्ग की यात्रा पर निकला हूं। इसलिए, स्वर्ग जाने के लिए उनके लिए भी व्यवस्था की जाए।”
यह सुनकर राजपुरोहित ने कहा, “राजन मुझे माफ करें। मेरी सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा नहीं है। अगर भगवान ने चाहा, तो मरने के बाद स्वर्ग आऊंगा और खुद को धन्य समझूंगा।” इसके बाद राजा विक्रमादित्य राजपुरोहित से विदा लेकर घोड़े पर बैठ गए। कुछ ही देर में घोड़ा आकाश में दौड़ने लगा। दौड़ते-दौड़ते इंद्रपुरी पहुंच गया। इंद्रपुरी पहुंचते ही राजा को वही सपनों वाला महल दिखा। चलते-चलते वह इंद्रसभा में पहुंच गए, जहां सभी देवता अपने-अपने स्थान पर बैठे थे। अपसराएं नृत्य कर रही थीं। इंद्र देव पत्नी के साथ सिंहासन पर बैठे थे। राजा विक्रमादित्य को सशरीर स्वर्ग में देखकर सभी हैरान हो गए।
इंद्र उन्हें देखकर सिंहासन से उठकर आए और उनका स्वागत किया। साथ ही राजा विक्रमादित्य को सिंहासन पर बैठने को कहा। राजा ने इंद्र से सिंहासन पर बैठने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह इस आसन के योग्य नहीं हैं। इंद्र, विक्रमादित्य की नम्रता और सरलता देखकर प्रसन्न हुए। इंद्र ने उनसे कहा, “सपने में आपने जिस योगी को देखा था वह आप खुद थे। आपने इतना पुण्य कमा लिया है कि इंद्र के महल में आपको स्थायी स्थान मिल गया है।” इसके बाद इंद्र ने राजा विक्रमादित्य को एक मुकुट उपहार में दिया। राजा विक्रमादित्य कुछ दिन इंद्रलोक में बिताने के बाद वह मुकुट लेकर अपने राज्य वापस आ गए।
यह कहानी सुनाने के बाद 28वीं पुतली वैदेही ने राजा भोज से कहा कि अगर तुम भी राजा विक्रमादित्य की तरह पुण्य करने वाले, सरल व विनम्र हो, तो ही इस सिंहासन पर बैठ सकते हो, वरना नहीं। इतना कहकर 28वीं पुतली वैदेही वहां से उड़ जाती है।
कहानी से शिक्षा :-
इस कहानी से बच्चों यह सीख मिलती है कि हमें दूसरों की मदद करनी चाहिए, क्योंकि अच्छे कर्मों का फल जरूर मिलता है।
मानवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की 29वीं कहानी
सिंहासन का महत्वाकांक्षी राजा भोज 29वीं बार सिंहासन पर बैठने की कोशिश करता है। वह जैसे ही सिंहासन पर बैठने जाता है, तभी 29वीं पुतली मानवती उसे रोकती है और राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाने लगती है। इस बार कहानी राजा की बहन की शादी की है। आइए जानते हैं कि इस किस्से में 29वीं पुतली ने क्या सुनाया –
एक बार की बात है, राजा विक्रमादित्य भेष बदलकर राज्य में घूम रहे थे। वो चलते-चलते नदी किनारे पहुंचे और वहां चुपचाप खड़े हो गए। अचानक उन्हें बचाओ-बचाओ की आवाज सुनाई दी। वह तुरंत वहां पहुंचे जहां से आवाज आ रही थी। वहां उन्हें नदी की तेज धारा में एक युवक-युवती फंसे दिखे। वो दोनों किनारे आने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन तेज धारा की वजह से असफल हो जाते थे। यह देख राजा विक्रमादित्य फौरन नदी में कूद गए और दोनों को सकुशल बाहर निकाल लिया। नदी से बाहर निकलने के बाद युवक ने बताया, “हम दोनों परिवार के साथ नौका से कहीं जा रहे थे। बीच भंवर में हमारी नाव फंस गई। वहां से निकलने की हमने बहुत कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए। हमारे परिवार के बाकी सदस्य उस भंवर में ही फंसकर मर गए, बस हम दोनों ही किसी तरह तैरकर यहां तक पहुंचे थे।”
राजा विक्रमादित्य ने दोनों से उनका परिचय पूछा। युवक ने बताया, “हम दोनों भाई-बहन हैं और दूर एक देश के रहने वाले हैं।” राजा ने कहा, “चिंता मत करो, आप दोनों को सकुशल आपके देश भेज दिया जाएगा। फिलहाल आप दोनों हमारे साथ चलो।” यह कहकर राजा विक्रमादित्य दोनों को अपने महल की ओर ले जाने लगे। राजमहल के पास जब प्रहरियों ने राजा को प्रणाम किया, तो युवक-युवती को मालूम हुआ कि अपनी जान दांव पर लगाकर उन्हें बचाने वाले खुद महाराजाधिराज थे।
महल पहुंचकर राजा ने नौकरों को बुलाया और दोनों को सारी सुविधाओं के साथ ठहराने को कहा। अब दोनों का मन राजा के प्रति और आदरभाव से भर गया।
वह युवक बहन की शादी के लिए काफी परेशान रहता था, क्योंकि उसकी बहन राजकुमारी की तरह सुंदर थी। इसलिए, वह चाहता था कि उसकी शादी किसी राजा से हो, लेकिन खराब आर्थिक हालत की वजह से उसकी यह इच्छा पूरी नहीं हो पा रही थी। अब वह राजा विक्रमादित्य से बहन से शादी का प्रस्ताव रखने की सोच रहा था। यह सोचकर उसने बहन को ठीक से तैयार कराया और उसे लेकर राजा से मिलने राजमहल में गया। राजमहल में पहुंचने पर राजा विक्रम ने उससे हालचाल पूछा और कहा कि दोनों के जाने का प्रबंध कर दिया गया है। युवक ने राजा से कहा, “महाराज, आपने जो उपकार किए हैं, उसे कभी नहीं भूलूंगा।” इसके बाद उसने राजा को छोटा-सा तोहफा देने की बात कहीं। राजा ने मुस्कुराते हुए इसकी अनुमति दे दी।
राजा को खुश देखकर उसकी हिम्मत बढ़ गई और उसने कहा, “मैं अपनी बहन को आपको उपहार में देना चाहता हूं। राजा विक्रम ने कहा, “यह उपहार मुझे स्वीकार है।” यह सुनकर युवक को लगा कि राजा उसकी बहन से शादी करेंगे, लेकिन तभी राजा ने कहा, “आज से तुम्हारी बहन राजा विक्रमादित्य की बहन है और मैं अच्छा-सा वर देखकर इसका विवाह पूरे धूमधाम से करूंगा।” राजा की यह बात सुनकर युवक उनका मुंह ताकता रह गया। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसकी बहन की सुंदरता को अनदेखा करके राजा उसे अपनी बहन बना लेंगे।
कुछ देर बाद युवक ने राजा से कहा, “उदयगिरी का राजकुमार उदयन मेरी बहन की खूबसूरती पर मोहित है और वह उससे शादी करना चाहता है।” यह सुनकर राजा विक्रमादित्य ने तुरंत एक पंडित को बुलाया और उसे बहुत-सा धन देकर उदयगिरी राज्य शादी का प्रस्ताव भेजा”, लेकिन पंडित उसी शाम राजमहल लौटा आया और बोला कि रास्ते में कुछ डाकुओं ने सारा धन लूट लिया। यह सुनकर राजा हैरान हुए और सोचने लगे कि उनके शासन में डाकू कैसे हो सकते हैं।
इस बार उन्होंने पंडित को अपने कुछ घुड़सवारों के साथ धन देकर भेजा। साथ ही उसी रात राजा विक्रमादित्य खुद भेष बदलकर डाकुओं का पता लगाने के लिए निकल पड़े। वह उस जगह पहुंचे जहां पंडित को लूटा गया था। वहां उन्हें 4 आदमी बैठे दिखे। राजा समझ गए कि ये वही लुटेरे हैं, जबकि उन चारों ने राजा को कोई गुप्तचर समझा। राजा ने उनसे कहा, “डरो मत, मैं भी तुम्हारी तरह चोर ही हूं।” यह सुन चारों ने कहा कि वे चोर नहीं बल्कि इज्जतदार लोग हैं। राजा ने कहा, “बहाने मत बनाओ, मुझे भी अपने दल में शामिल कर लो।” इसके बाद चारों ने अपनी-अपनी खूबियां बताई। एक चोरी का शुभ मुहूर्त निकालता था, दूसरा परिंदे व जानवरों की भाषा समझता था, तीसरा गायब होने की कला जानता था और चौथा कठिन से कठिन यातना झेल सकता था। ये सब सुनने के बाद राजा विक्रमादित्य ने उनका विश्वास जीतने के लिए कहा कि मैं कहीं भी छिपा हुआ धन देख सकता हूं। जब चारों ने ये विशेषता सुनी, तो उन्होंने राजा को अपने दल में शामिल कर लिया।
इसके बाद राजा विक्रमादित्य ने चारों के साथ मिलकर अपने ही महल में चोरी करने की साजिश बनाई। वह चोरों को उस जगह पर लेकर गए, जहां शाही खजाने का थोड़ा हिस्सा छिपा हुआ था। चोरों ने सारा माल बटोर लिया और निकलने लगे, लेकिन तभी सुरक्षाकर्मियों ने चोरों को पकड़ लिया। अगली सुबह चारों को राजा दरबार लाया गया। वो डर से कांप रहे थे। उन्होंने अपने साथी को सिंहासन पर देखा, तो दंग रह गए। वो सभी सजा की प्रतीक्षा कर रहे थे, लेकिन राजा ने उन्हें सजा न देकर माफ कर दिया और उनसे फिर से चोरी न करने और अपने गुणों का इस्तेमाल दूसरों की भलाई के लिए करने का वचन लिया। चारों ने भी अपने राजा की बात मानी और अच्छे इंसान की तरह रहने लगे। बाद में राजा ने उन्हें अपनी सेना में शामिल कर लिया। वहीं, राजा उदयन ने भी विक्रमादित्य की मुंहबोली बहन से शादी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। शुभ मुहूर्त में दोनों की शादी धूमधाम से की गई।
कहानी सुनाने के बाद 29वीं पुतली मानवती ने राजा भोज से कहा कि अगर तुम भी राजा विक्रमादित्य की तरह समझदार, साहसी और निर्मल स्वभाव के हो, तो ही इस सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ना। इतना कहकर 29वीं पुतली मानवती वहां से उड़ जाती है और राजा भोज सोच में पड़ जाते हैं।
कहानी से शिक्षा:-
इस कहानी से बच्चों यह सीख मिलती है कि हमें अपने अंदर सेवा की भावना रखनी चाहिए और समय आने पर चतुराई से काम लेना चाहिए।
जयलक्ष्मी पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की 30वीं कहानी
अलग-अलग पुतलियों की उलाहना सुन-सुनकर थक चुका राजा भोज हिम्मत करके 30वीं बार भी सिंहासन पर बैठने जाता है, लेकिन इस बार उसे 30वीं पुतली जयलक्ष्मी रोकती है और कहती है कि अगर तुम राजा विक्रमादित्य की तरह तपस्वी हो, तो ही इस सिंहासन पर बैठो। यह कहते हुए 30वीं पुतली जयलक्ष्मी उसे राजा विक्रमादित्य के तपस्वी होने से जुड़ी कहानी सुनाती है। आइए, जानते हैं कि इस कहानी में जयलक्ष्मी ने क्या बताया –
राजा विक्रमादित्य बड़े तपस्वी भी थे। उन्होंने अहसास हो गया था कि अब वह ज्यादा से ज्यादा 6 माह तक ही जी सकते हैं। इसके बाद उन्होंने वन में एक कुटिया बनाई और राज-काज से जो समय बच जाता था, उसमें साधना करने लगे। एक दिन राजमहल से कुटिया की तरफ आते वक्त उनकी नजर एक हिरण पर पड़ी। ऐसा अद्भुत हिरण उन्होंने कभी नहीं देखा था। उन्होंने शिकार के लिए जैसे ही धनुष उठाया तभी हिरण उनके पास आया और मनुष्यों की तरह बोलकर अपने प्राणों की भीख मांगने लगा। हिरण को मनुष्य की तरह बोलते हुए देख राजा को बहुत आश्चर्य हुआ और उनका हाथ रुक गया।
राजा ने उस हिरण से पूछा कि वह मनुष्यों की भाषा कैसे बोल लेता है। इस पर हिरण ने कहा कि यह सब आपके दर्शन करने और आपकी तपस्या की शक्ति के चलते हुआ है। इसके बाद राजा की जिज्ञासा और बढ़ गई। उन्होंने उस हिरण से पूछा कि इसकी वजह क्या है, तो उसने बताना शुरू किया।
हिरण ने कहा, “मैं जन्म से हिरण नहीं हूं। मेरा जन्म एक राजा के घर हुआ था। अन्य राजकुमारों की तरह मुझे भी शिकार खेलने का शौक था। एक दिन मुझे जंगल में कुछ दूरी पर हिरण होने का अहसास हुआ और मैंने आवाज को लक्ष्य करते हुए बाण चला दिया, लेकिन यह आवाज एक योगी की थी जो बहुत धीमी आवाज में मंत्र उच्चारण कर रहे थे। वह तीर उन्हें तो नहीं लगा, लेकिन उनके कान को छूते हुए एक पेड़ में घुस गया। मैं अपने शिकार की खोज में जब वहां पहुंचा, तो पता चला कि मुझसे बड़ा पाप होते-होते रह गया। साधना में विघ्न पड़ने से वह योगी बहुत नाराज थे और मुझे सामने देखकर वह समझ गए कि यह बाण मैंने ही चलाया था। इससे पहले कि मैं कुछ कहता, उन्होंने मुझे श्राप दे दिया। उन्होंने कहा, “हिरण का शिकार करने वाले मूर्ख, आज से तू खुद हिरण बन जाएगा और शिकारियों से अपनी जान बचाने के लिए यहां से वहां भटकता रहेगा।” इसके बाद मैं उस योगी के पैरों में गिर पड़ा और श्राप से छुटकारा पाने की प्रार्थना करने लगा। मेरी आंखों में पश्चाताप के आंसू देखकर योगी को दया आ गई और उन्होंने मुझसे कहा कि श्राप तो वापस नहीं हो सकता, लेकिन इसका प्रभाव काम हो सकता है। तुम तब तक हिरण बनकर भटकते रहोगे, जब तक महान और तेजस्वी राजा विक्रमादित्य के दर्शन नहीं हो जाते। उनके दर्शन होते ही तुम मनुष्यों की तरह बोलने लगोगे।”
राजा विक्रम ने जिज्ञासा से उस हिरण से पूछा, “तुम अब मनुष्य की तरह बोल तो रहे हो, लेकिन तुम्हें हिरण रूप से मुक्ति कब मिलेगी और कब तुम मनुष्य रूप में आओगे?” हिरण ने जवाब दिया, “इस रूप से भी मुझे जल्द ही मुक्ति मिल जाएगी। योगी ने कहा था कि अगर मैं आपको अपने साथ लेकर उस योगी के पास जाऊं, तो मैं अपने वास्तविक रूप में आ जाऊंगा।”
यह कहकर हिरण आगे-आगे चलने लगा और राजा विक्रम उसके पीछे चलने लगे। थोड़ी दूर चलने के बाद उन्हें एक योगी पेड़ पर उल्टा लटकर साधना करता नजर आया। राजा समझ गए कि हिरण रूपी राजकुमार इसी योगी की बात कर रहा है। वे जब उसके पास आए, तो योगी पेड़ से उतरकर सीधा खड़ा हो गया। उसने राजा का अभिवादन किया। राजा विक्रमादित्य समझ गए कि यह योगी उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहा था। जिज्ञासावश राजा ने उससे पूछा, “आप मेरी प्रतिक्षा क्यों कर रहे थे?” इस पर उस योगी ने कहा, “सपने में एक दिन मुझे इंद्र देव ने दर्शन देकर कहा था कि राजा विक्रमादित्य ने अपने कर्मों से देवताओं-सा स्थान पा लिया है और उनके दर्शन करने वालों को इंद्र देव और अन्य देवताओं के दर्शन का फल प्राप्त होता है। इसलिए, मैं इतनी कठिन साधना आपके दर्शन के लिए कर रहा था।”
राजा विक्रमादित्य ने उस योगी से कहा, “अब तो आपने मेरे दर्शन कर लिए हैं, क्या मुझसे कुछ और चाहते हैं।” इस पर योगी ने उनसे उनके गले में पड़ी इंद्रदेव की ओर से मिली मूंगे वाली माला मांगी। राजा ने खुशी-खुशी वह माला उस योगी को दे दी। योगी ने जैसे ही उनका आभार प्रकट किया वैसे ही श्रापित राजकुमार फिर से मानव शरीर में आ गया। उसने पहले राजा विक्रम के और फिर योगी के पांव छूए।
इसके बाद राजा उस राजकुमार को लेकर अपने महल आ गए। अगले दिन वह उसे अपने रथ पर लेकर उसके राज्य के लिए निकले। दोनों जैसे ही राज्य में घुसे, तभी सैनिकों ने उनके रथ को चारों तरफ से घेर लिया व राज्य में प्रवेश करने की वजह पूछने लगे। राजकुमार ने अपना परिचय दिया और सैनिकों से रास्ता छोड़ने के लिए कहा, लेकिन सैनिकों ने बताया कि उसके माता-पिता को बंदी बनाकर जेल में डाल दिया गया है। अब यहां का राजा कोई और है। इस पर राजा विक्रमादित्य ने सैनिकों को अपना परिचय दिए बिना खुद को राजकुमार का दूत बताया और कहा कि नए राजा को यह संदेश देना कि उसके सामने दो विकल्प हैं या तो वह असली राजा-रानी को उनका राज्य वापस लौटा दे या फिर युद्ध की तैयारी करे।
उस सेनानायक को यह सुनकर बड़ा अजीब लगा। उसने राजा विक्रमादित्य का मजाक उड़ाते हुए कहा, “युद्ध कौन करेगा? क्या तुम दोनों युद्ध करोगे?” यह उपहास देखकर राजा विक्रमादित्य का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया, उन्होंने तलवार निकाली और उस सेनानायक का सिर धड़ से अलग कर दिया। सेना में भगदड़ मच गई। किसी ने दौड़कर नए राजा को यह खबर दी। यह सुनते ही राजा सेना लेकर वहां पहुंचा। राजा विक्रमादित्य इस हमले के लिए पहले से तैयार थे। उन्होंने तुरंत दोनों बेतालों को बेतालों को बुलाया। दोनों बेतालों ने राजा विक्रमादित्य का आदेश मिलते ही रथ को हवा में उठा दिया।
इसके बाद उन्होंने गायब होने वाला तिलक लगाया और रथ से कूद गए। अदृश्य होकर उन्होंने दुश्मनों को गाजर-मूली की तरह काटना शुरू कर दिया। सैकड़ों सैनिकों के मारे जाने व दुश्मनों के नजर न आने से सैनिकों में भगदड़ मच गई। ज्यादातर सैनिक नए राजा को छोड़कर भाग गए। इसके बाद नए राजा का चेहरा देखने लायक था। वह हैरान, डरा हुआ और हताश था। यह देखकर राजा विक्रमादित्य अपने असली रूप में सामने आ गए। उन्होंने नए राजा को अपना परिचय देते हुए कहा, “या तो तुम इसी क्षण यह राज्य छोड़कर चले जाओ या प्राण दंड के लिए तैयार रहो।” वह राजा विक्रमादित्य की शक्ति से परिचित था, इसलिए वो उसी पल राज्य को छोड़कर भाग गया।
इसके बाद राजा विक्रमादित्य उस राज्य के असली राजा-रानी को उनका राज्य वापस दिलाकर अपने राज्य की ओर चल दिए। रास्ते में एक जंगल पड़ा। वहां एक हिरण राजा विक्रमादित्य के पास आया और एक शेर से बचाने की गुहार करने लगा, लेकिन राजा विक्रमादित्य ने उसकी मदद नहीं की, क्योंकि वह भगवान के बनाए नियम के खिलाफ नहीं जा सकते थे। दरअसल, शेर भूखा था और हिरण जैसे जानवर ही उसकी भूख शांत कर सकते थे। यह सोचते हुए उन्होंने शेर को हिरण का शिकार करने दिया।
कहानी समाप्त होते ही 30वीं पुतली जयलक्ष्मी ने राजा भोज को कहा कि अगर आप भी राजा विक्रमादित्य की तरह पराक्रमी हैं और आपके अंदर भी तपस्वी भाव है, तो ही सिंहासन पर बैठना वरना नहीं। इतना कहते ही 30वीं पुतली वहां से उड़ जाती है।
कहानी से शिक्षा :-
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमें दूसरों की मदद करनी चाहिए और कभी हमसे अनजाने में गलती हो जाए, तो उसका पश्चाताप जरूर करना चाहिए।
कौशल्या पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की 31वीं कहानी
जब 30 बार असफल रहने के बाद एक बार फिर राजा भोज सिंहासन पर बैठने की कोशिश करते हैं, तो 31वीं पुतली कौशल्या वहां प्रकट होती है। वह राजा भोज से कहती है, “इस सिंहासन पर तुम तभी बैठ सकते हो, जब राजा विक्रमादित्य जैसे गुण तुम में हों।” इसके साथ ही 31वीं पुतली राजा भोज को राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाती है, जो इस प्रकार है-
समय के साथ-साथ राजा विक्रमादित्य बूढ़े हो चले थे और उन्होंने अपनी शक्तियों से यह भी पता कर लिया था कि उनका अंत अब करीब है। अब राजा का ध्यान राज-पाठ और धर्म-कर्म के कामों में ज्यादा लगा रहता था। योग-साधना के लिए उन्होंने वन में एक आवास भी बना रखा था। एक दिन वन में साधना के दौरान उन्हें एक दिव्य रोशनी आती दिखाई दी। जब राजा ने ध्यान से देखा, तो पता चला कि यह दिव्य रोशनी सामने वाली पहाड़ियों से आ रही थी। अचानक से राजा को रोशनी के बीच चमचमाता हुआ सुंदर महल भी दिखाई पड़ा।
इस सुंदर महल को दूर से देखने के बाद राजा को उस महल को पास से देखने की इच्छा हुई। अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए राजा ने अपने दोनों बेतालों को बुलाया। बेताल उन्हें पहाड़ी पर तो ले आए, लेकिन बैताल पहाड़ी से आगे महल में नहीं जा सकते थे। इस बात का कारण बताते हुए बेताल ने राजा से कहा, “इस दिव्य और सुंदर महल को एक योगी ने अपने मंत्रों से बांध रखा है। इसके अंदर वो ही जा सकता है, जिसने अपने अच्छे कर्मों से उस योगी से ज्यादा पुण्य कमाया हो।”
बेताल की बातें सुनकर राजा विक्रमादित्य को यह जानने की इच्छा हुई कि उन्होंने योगी से ज्यादा पुण्य कमाया है या नहीं। राजा विक्रमादित्य सीधे महल के दरवाजे की ओर बढ़ते हैं। जैसे ही राजा के कदम प्रवेश द्वार पर पड़े, वहां एक आग का गोला आकर उनके पास रुक गया। इसके बाद महल के अंदर से आज्ञा भरी आवाज सुनाई पड़ी और वो आग का गोला राजा के पास से पीछे हट गया। जब राजा विक्रम ने महल के अंदर प्रवेश किया, तो उस आवाज ने राजा से उनका परिचय मांगते हुए कहा, “सब कुछ सच बताओ, वरना आने वाले को श्राप देकर भस्म कर दिया जाएगा।”
उस योगी ने राजा से उनका परिचय मांगा। राजा ने कहा कि मैं विक्रमादित्य हूं। नाम सुनते ही योगी ने कहा, “मैं भाग्यशाली हूं, जो आपके दर्शन हुए।” योगी ने राजा का आदर-सत्कार किया और उनसे कुछ मांगने को कहा। राजा ने योगी की बात का मान रखते हुए उनसे वो अद्भुत महल मांग लिया।
योगी ने राजा की इच्छा को जानते हुए वो महल राजा को सौंप दिया और वन में चले गए। योगी जब वन में भटक रहे थे, तब उनकी मुलाकात उनके अपने गुरु से हुई। गुरु ने योगी को इस हाल में देखकर वन में भटकने का कारण जानना चाहा, तो वह बोले कि, “मैंने अपना महल राजा विक्रमादित्य को दान कर दिया।”
योगी की इस बात पर गुरु ने हंसते हुए कहा, “धरती के सबसे बड़े दानी को तुम क्या दान करोगे। ब्राह्मण के रूप में जाकर विक्रमादित्य से अपना महल फिर से मांग लो।” अपने गुरु की बात मानकर योगी ब्राह्मण वेश में राजा के साधना वाले स्थान पर पहुंच गया और उनसे रहने के लिए जगह देने की प्रार्थना की। राजा विक्रम समझ गए थे कि ब्राह्मण वेश में वो योगी है। राजा ने उनसे अपनी मन पसंद जगह मांगने के लिए कहा, तो योगी ने उनसे वही महल मांगा, जो उसने राजा को दान किया था। राजा विक्रम ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं वह महल वैसा का वैसा छोड़कर उसी समय आ गया था। मैंने तो बस तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए वह महल मांगा था।”
इस कहानी के बाद भी इकत्तीसवीं पुतली ने अपनी कहानी खत्म नहीं की। वह आगे बोली, “राजा विक्रमादित्य में देवताओं से बढ़कर गुण थे। वे इन्द्रासन के अधिकारी माने जाते थे, लेकिन सच तो यह है कि वो देवता नहीं मानव थे, जिन्होंने मृत्यु लोक में जन्म लिया था।” पुतली ने आगे कहा कि राजा ने एक दिन अपना देह त्याग दिया। राजा की मृत्यु के बाद प्रजा में हाहाकार मच गया। उनकी प्रजा दुख से रोने लगी। जब राजा का अंतिम संस्कार होने वाला था, तब उनकी सारी रानियां चिता पर सती होने के लिए बैठ गईं। महाप्रतापी राजा के अंतिम संस्कार के दिन देवताओं ने फूलों की वर्षा कर राजा को आखिरी विदाई दी।
राजा के बाद उनके बड़े पुत्र का राजतिलक हुआ और उसे राजा घोषित किया गया, मगर वह अपने पिता के सिंहासन पर नहीं बैठ पाया, जिसका कारण वो समझ नहीं पा रहा था। एक दिन अपने पुत्र के सपने में राजा विक्रम आए और कहा, “उस सिंहासन पर बैठने के लिए तुम्हें पुण्य, प्रताप और यश कमाना होगा और जिस दिन तुम इन गुणों की प्राप्ति कर लोगे, उस दिन मैं तुम्हारे सपने में आकर बताऊंगा।”
काफी समय हो चला था, लेकिन राजा विक्रम अपने पुत्र के सपने में नहीं आए, तो पुत्र परेशान हो गया कि वो सिंहासन का क्या करे। पंडितों और विद्वानों की सलाह पर वह एक दिन अपने पिता का ध्यान करके सोया, तो राजा विक्रम सपने में आए और कहा कि सिंहासन को जमीन में गड़वा दिया जाए और अपने पुत्र को उज्जैन छोड़कर अम्बावती में अपनी नई राजधानी बनाने के लिए सलाह दी। राजा ने यह भी कहा कि जब भी धरती पर सर्वगुण सम्पन्न राजा पैदा होगा, वो सिंहासन खुद-ब-खुद उसके अधिकार में चला जाएगा। पुत्र ने अपने पिता के स्वप्न वाले आदेश को मानकर सिंहासन को जमीन में गड़वा दिया और खुद उज्जैन को छोड़कर अम्बावती को नई राजधानी बनाकर शासन करने लगा।
इतना कहकर 31वीं पुतली कौशल्या वहां से उड़ जाती है और राजा भोज फिर से सोच में पड़ जाते हैं।
कहानी से शिक्षा :-
इस कहानी से यह सीख मिलती है कि इंसान को हमेशा अच्छे कर्म करने चाहिए, ताकि पूरी दुनिया आपके अच्छे कर्मों से आपको याद करे।
रूपवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की 32वीं कहानी
सिंहासन पर बैठने के लिए हमेशा उतावले रहने वाले राजा भोज इस बार सिंहासन के लिए थोड़े से भी उत्साहित नहीं थे। यह देख 32वीं पुतली रानी रूपवती वहां प्रकट हुई और राजा भोज से कारण पूछा। राजा भोज ने जवाब दिया, “मैं यह समझ चुका हूं कि राजा विक्रमादित्य में देवताओं वाले गुण थे, जो किसी सामान्य मनुष्य में होना असंभव है। साथ ही मैं यह भी जानता हूं कि मेरे में कई कमियां हैं। इसलिए, मैंने सोचा है कि सिंहासन को इसके पहले स्थान में ही गड़वा दिया जाए, जहां से कोई इसे निकाल न सके।”
राजा भोज का जवाब सुनते ही सिंहासन की सभी पुतली अपनी रानी के पास आ गईं और राजा भोज को उनके इस फैसले के लिए धन्यवाद कहा। पुतलियों ने कहा कि आज वे मुक्त हो गई हैं और यह सिंहासन अब बिना पुतलियों का हो जाएगा। पुतलियों ने राजा भोज को बताया कि उनमें भी राजा विक्रमादित्य जैसे थोड़े गुण दिखाई देते हैं और इसी वजह से उन्हें राजा विक्रमादित्य का यह सिंहासन दिखाई दिया।
पुतलियों ने राजा भोज से यह भी कहा कि आज से सिंहासन के गुण फीके पड़ जाएंगे और यह भी धरती की अन्य वस्तुओं की तरह पुराना होकर नष्ट हो जाएगा। इसके बाद सभी पुतलियों ने राजा भोज से जाने की आज्ञा ली और आकाश में विलीन हो गईं।
इसके बाद राजा भोज ने मजदूरों को बुलाकर एक बड़ा गड्ढा खुदवाया और मंत्रों का पाठ करके सिंहासन को जमीन में गड़वा दिया। उस स्थान पर फिर वैसा ही टीला बनवाया गया, जिस पर बैठकर चरवाहा अपने फैसले सुनाया करता था, लेकिन अब यह टीला पहले वाले की तरह चमत्कारी नहीं रहा।
कहानी की समाप्ति से जुड़ी एक अन्य कहानी
सिंहासन बत्तीसी को गड़वाने के बाद सिंहासन का क्या हुआ, इसका जिक्र कहानी की समाप्ति से जुड़ी एक कहानी में मिलता है, जो इस प्रकार है –
राजा विक्रमादित्य के सिंहासन को गाड़कर और उस पर टीला बनवाए काफी वर्ष बीत चुके थे। टीले को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। इस बात को सभी लोग जानते थे कि इस टीले के नीचे चमत्कारी सिंहासन दबा हुआ है। इस बात के बारे में चोरों को भी पता चल गया था। चोरों ने एक दिन सिंहासन को चोरी करके उसे बेचने की योजना बनाई। योजना के तहत कई महीनों तक उन्होंने टीले से कुछ ही दूरी पर एक सुरंग बनाई, जो सीधे सिंहासन तक जाती थी। चोर सिंहासन तक पहुंच गए और वहां से सिंहासन को बाहर निकालकर एक सुनसान जगह पर ले गए। चोरों ने सिंहासन को तोड़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन तोड़ नहीं पाए। सिंहासन को हथौड़े से भी तोड़ने की कोशिश की गई, लेकिन प्रहार करते ही सिंहासन में से चिंगारी निकली और तोड़ने वाले के हाथ जख्मी हो गए। चोर फिर भी लगातार सिंहासन को तोड़ने की कोशिश करते रहें, क्योंकि सिंहासन में जड़ें कीमती हीरों का लालच वो छोड़ नहीं पा रहे थे।
सिंहासन पर लगे सोने की चमक को देख कर चोरों ने सोचा कि अगर वो इस सोने को बेच देंगे, तो उनके पास बहुत सारा धन आ जाएगा और उनकी आने वाली पीढ़ी को कुछ काम करने की जरूरत नहीं पड़ेगी, लेकिन सिंहासन को नुकसान पहुंचाने की चोरों की हर कोशिश नाकाम रही। सिंहासन को तोड़ने के चक्कर में उनके हाथ चिंगारी से जल गए। चोर थकान के कारण चुपचाप बैठ कर सोचने लगे और सोचने के बाद उन्हें लगने लगा कि सिंहासन में भूत है। चोर आपस में बात करते हुए कहने लगे कि सिंहासन में भूत होने की वजह से ही राजा भोज ने इसे अपने पास नहीं रखा और इतनी कीमती चीज को जमीन में गाड़ दिया। चोरों ने सिंहासन को छोड़ने का सोचा, तभी चोरों के सरदार ने कहा, “अगर सिंहासन को तोड़ नहीं पा रहे हो, तो इसे दूसरी जगह ले जाकर बेचा जाएगा।”
अपने सरदार की बात सुनकर चोरों ने सिंहासन को कपड़े से ढक दिया और दूर राज्य के लिए रवाना हो गए। वे सिंहासन को लेकर एक ऐसे राज्य में पहुंचे, जहां कोई राजा विक्रमादित्य के सिंहासन को बारे में जानता नहीं था। चोर जौहरी के वेश में राज्य के राजा से मिलने गए और राजा को हीरे-मोती से जड़ित सिंहासन को दिखाते हुए कहा कि वे बहुत दूर रहते हैं और उन्होंने अपना सारा धन इस सिंहासन को तैयार करने में लगा दिया।
राजा ने उनकी बात सुनने के बाद हीरे के व्यापारी को इस सिंहासन की जांच करने के लिए कहा। राजा के आदेश के बाद सुनारों और जौहरियों ने सिंहासन की जांच करने के बाद राजा को इसे खरीदने के लिए कहा। राजा ने सिंहासन का अच्छा-खासा मूल्य देकर खरीद लिया। जैसे ही सिंहासन को दरबार में लगाया गया, तो पूरा दरबार सिंहासन से निकल रही चमत्कारी रोशनी से जगमगा उठा। राजा यह देखकर बहुत खुश हुआ। राजा ने शुभ मुहूर्त निकाल कर सिंहासन का शुद्धीकरण करवाया और इस पर रोज बैठने लगे।
हर तरफ सिंहासन के बारे में बात होने लगी। कई राज्यों के राजाओं ने सिंहासन के दर्शन किए। यह बात राजा भोज के राज्य में भी पहुंची। राजा भोज को शक हुआ कि कहीं ये सिंहासन वो तो नहीं है, जिसे उन्होंने दबा दिया था। राजा भोज ने तुरंत अपने सैनिकों के साथ इस बारे में बात की और मजदूर बुलाकर टीले को खुदवाने का आदेश दिया। आखिरकार राजा भोज को जिस बात का शक था वही हुआ, सिंहासन चोरी हो चुका था। अब राजा भोज मन ही मन यह सोचने लगे कि कोई और राजा इस सिंहासन पर विराजमान कैसे हो गया। क्या उस राजा में विक्रमादित्य के जैसे गुण हैं?
अपने सवालों का जवाब जानने के लिए राजा भोज उस राज्य की ओर रवाना हुए। राजा भोज लंबी यात्रा तय करने के बाद उस राज्य के राजा से मिले। राजा भोज का खूब आदर-सत्कार किया गया और यहां आने का कारण पूछा गया।
राजा भोज ने सारी बातें राजा को सच-सच बताई। राजा भोज की बातों को सुनकर राजा सोच में पड़ गए और कहा “मुझे किसी भी तरह की तकलीफ नहीं हुई इस सिंहासन पर बैठने में।”
राजा भोज ने ज्योतिषियों से सलाह ली और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि शायद अब सिंहासन का चमत्कार खत्म हो चुका है और सिंहासन में अब सोने की जगह कांच के टुकड़े रह गए हैं।
सिंहासन खरीदने वाले राजा को ज्योतिषियों की बात पर भरोसा नहीं हुआ। राजा ने कहा, “सिंहासन लेने से पहले जौहरियों से इसकी अच्छे से जांच की गई थी।” फिर, जब दोबारा इस सिंहासन की जांच करवाई गई, तो पता चला कि सिंहासन की चमक फीकी पड़ चुकी है और सिंहासन में हीरे-मोती नहीं बल्कि अब कांच के टुकड़े लगे हैं। राजा ने अपने पंडितों से सिंहासन को ठीक से देखने के लिए कहा। सिंहासन को देखने के बाद पंडितों का कहना था कि इस सिंहासन का चमत्कार अब खत्म हो चुका है, क्योंकि यह सिंहासन शुद्ध नहीं रहा। पंडितों ने कहा कि अब इस अपवित्र सिंहासन का शास्त्रों के अनुसार विधि-विधान के साथ अंतिम संस्कार कर देना चाहिए। इस सिंहासन का समापन जल में कर देना चाहिए। राजा के आदेश पर सिंहासन को कावेरी नदी में प्रवाहित कर दिया गया।
इसके बाद कई राजाओं ने सिंहासन तक पहुंचने की कोशिश की, लेकिन सिंहासन किसी के हाथ न आया। वहीं, कई लोगों का विश्वास है कि यह सिंहासन उसी को मिलेगा जिसके अंदर राजा विक्रमादित्य जैसी खूबियों होंगी।
कहानी से शिक्षा :-
इस कहानी से यह सीख मिलती है कि इंसान को उसके कर्म के अनुसार ही फल की प्राप्ति होती है। इसलिए, अच्छे फल के लिए अच्छे कर्म करना जरूरी है।
बत्तीस पुतलियों के नाम :-
- रत्नमंजरी
- चित्रलेखा
- चन्द्रकला
- कामकंदला
- लीलावती
- रविभामा
- कौमुदी
- पुष्पवती
- मधुमालती
- प्रभावती
- त्रिलोचना
- पद्मावती
- कीर्तिमती
- सुनयना
- सुन्दरवती
- सत्यवती
- विद्यावती
- तारावती
- रुपरेखा
- ज्ञानवती
- चन्द्रज्योति
- अनुरोधवती
- धर्मवती
- करुणावती
- त्रिनेत्री
- मृगनयनी
- मलयवती
- वैदेही
- मानवती
- जयलक्ष्मी
- कौशल्या
- रानी रुपवती