सिंहासन बत्तीसी की कहानी भाग-3

अनुरोधवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की 22वीं कहानी

राजाभोज एक बार फिर सिंहासन की ओर बढ़े और तभी 22वीं पुतली अनुरोधवती वहां पर आ गई। उसने राजाभोज से कहा कि मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाऊंगी उसके बाद यह फैसला करना कि आप सिंहासन पर बैठने लायक हो या नहीं। इसके बाद 22वीं पुतली ने कहानी सुनाना शुरू किया।
            राजा विक्रमादित्य कला प्रेमी थी और अच्छे कलाकारों को सम्मानित करते थे। वह अपने दरबार में मौजूद योग्य लोगों का भी बहुत सम्मान करते थे। उन्हें चापलूसी बिल्कुल भी पसंद नहीं थी। राजा विक्रमादित्य के इस स्वाभाव के बारे में जानकर एक दिन एक युवक उनसे मिलने उनके दरबार पहुंचा। उस युवक को कई शास्त्रों का ज्ञान था और हमेशा खरी बात ही बोलता था। उसका यह स्वाभाव अक्सर राजाओं को पसंद नहीं आता था, जिस कारण उसे हर राजा अपने यहां नौकरी से निकाल देता था। बार-बार नौकरी से निकाले जाने के बाद भी उसने अपनी प्रकृति और व्यवहार को बदला नहीं था। जब वह राजा विक्रमादित्य के दरबार पहुंचा, तो उस समय वहां संगीत का रंगारंग कार्यक्रम चल रहा था। वह राजा के आदेश का इंतजार करने लगा।       

            वह दरबार के दरवाजे पर खड़ा होकर संगीत सुन रहा था, जिस सुनकर वह धीमी आवाज में बोला, “दरबार में बैठे हुए लोग नासमझ हैं। इन्हें संगीत की बिल्कुल भी समझ नहीं है। साजिंदा गलत धुन बजा रहा है, फिर भी कोई उसे रोक नहीं रहा है।” उसे बोलते हुए वहां खड़े द्वारपाल ने सुन लिया, जिससे उसका चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उसने युवक से कहा, “महाराज विक्रमादित्य सच्ची कला के प्रेमी हैं और वह खुद दरबार में मौजूद हैं।” द्वारपाल की बात सुनकर युवक हंसा और बोला, “वह कला प्रेमी हो सकते हैं, लेकिन कला पारखी नहीं, क्योंकि साजिंदे की गलती को वह पकड़ नहीं पा रहे हैं।”
            युवक की बात सुनकर द्वारपाल ने कहा कि कि अगर उसकी बात गलत साबित हुई, तो उसे दंड मिलेगा। इस पर युवक ने कहा कि अगर उसकी बात गलत साबित हुई, तो वह हर प्रकार की सजा के लिए तैयार है। इसके बाद द्वारपाल ने युवक के बारे में विस्तार से राजा को बताया। राजा विक्रमादित्य ने तुरंत उस युवक को दरबार में लाने का आदेश दिया। राजा विक्रमादित्य के सामने भी युवक ने कहा कि किसी एक साजिंदे की उंगली पर चोट लगी हुई है, जिस कारण संगीत में कम है। यह सुनकर राजा विक्रमादित्य ने सभी साजिंदों की उंगलियां देखने का आदेश दिया। जांच के दौरान सच में एक वादक के अंगूठे का ऊपरी भाग कटा हुआ मिला। उसने अंगूठे पर पतली खाल चढ़ा रखी थी।
            यह देखकर राजा ने उस युवक की बहुत प्रशंसा की। इसके बाद उन्होंने उस युवक से उसका परिचय पूछा और उसे अपने दरबार में नौकर रख लिया। युवक ने भी समय-समय पर अपनी योग्यता का परिचय, जिससे राजा विक्रमादित्य बहुत प्रभावित हुए।
            कुछ दिनों के बाद दरबार में एक खूबसूरत नृतिकी आई। दरबार में उसके नृत्य का आयोजन किया गया। वह युवक भी दरबार में बैठा हुआ था और नृत्य को गौर से देख रहा था। वह नृतिकी बहुत ही अच्छा नृत्य कर रही थी और सभी दरबारी मोहित होकर उसके नृत्य को देख रहे थे। तभी न जाने कहां से एक भंवरा आकर उसकी छाती पर बैठ गया। नृतिकी न तो नृत्य रोक सकती थी और न ही हाथों से भंवरे को हटा सकती थी, क्योंकि ऐसा करने से भंगिमाएं बिगड़ जातीं। ऐसे में उस नृतिकी ने चतुराई से सांस अंदर की ओर खींची तथा पूरे जोर से भंवरे पर छोड़ दी। ऐसा करने में भंवरा उड़ गया। हालांकि, यह घटना कोई नहीं देख सका, लेकिन उस युवक ने सब कुछ देख लिया।
            वह नृतिकी की तारीफ करते हुए उठा और अपने गले की मोतियों की माला उस नृतिकी के गले में डाल दी। यह देखकर सभी दरबारी हैरान हो गए। दरबार में मौजूद लोग कहने लगे कि राजा के होते हुए दरबार में किसी और का इस तरह से इनाम देना राजा का सबसे बड़ा अपमान है। युवक का यह व्यवहार राजा विक्रमादित्य को भी यह पसंद नहीं आया और उन्होंने युवक से ऐसा करने के पीछे का कारण बताने को कहा। इस पर युवक ने भंवरे वाली सारी घटना राजा को विस्तार से बता दी। उसने कहा कि नृतिकी ने जिस तरह से सुर, लय, ताल और भाव-भंगिमा के बीच सामंजस्य रखते हुए, जिस सफाई से भंवरे को उड़ाया वह इनाम के काबिल है।
            जब विक्रमादित्य ने नृतिकी से पूछा, तो उसने युवक की बातों का समर्थन किया। यह सुनकर राजा विक्रमादित्य ने नृतिकी और उस युवक बहुत तारीफ की। अब उनकी नजर में उस युवक का महत्व और बढ़ गया। अब तो जब भी किसी भी समस्या का हल ढूंढना होता, तो राजा विक्रमादित्य उसकी बातों पर जरूर गौर करते।
            ऐसे ही एक दिन दरबार में चर्चा शुरू हुई कि बुद्धि और संस्कार के बीच क्या संबंध है। दरबारियों का कहना था कि बुद्धि से ही संस्कार आते हैं, लेकिन वह युवक उनकी बातों से सहमत नहीं था। उसका कहना था कि संस्कार आनुवंशिक होते हैं। जब इस मुद्दे पर एक राय नहीं बनी, तो विक्रमादित्य ने इसका एक हल निकाला।
            राजा ने नगर से दूर जंगल में एक महल बनवाया और उसमें गूंगी और बहरी नौकरानियों को रहने का आदेश दिया। साथ ही चार नवजात शिशुओं को उन नौकरानियों की देखरेख में रखा गया। इनमें से एक शिशु राजा विक्रमादित्य का था, जबकि एक महामंत्री का, एक कोतवाल का और एक ब्राह्मण का था। जब 12 वर्ष के बाद चारों बच्चे दरबार में पेश किए गए, तो राजा विक्रमादित्य ने बारी-बारी से उनसे पूछा, “क्या तुम ठीक है?” चारों ने अलग-अलग जवाब दिए।
            राजा के बेटे ने कहा सब कुशल है, वहीं महामंत्री के बेटे ने कहा कि यह संसार नश्वर है। जब आने वाले को जाना है, तो कुशलता कैसी। कोतवाल के बेटे ने कहा कि चोर चोरी करते हैं और नाम खराब निरपराधी का होता है। ऐसी हालत में कुशलता की सोचना बेकार है। अंत में ब्राह्मण के बेटे ने कहा कि जब आयु दिन-ब-दिन घटती जाती है, तो कुशलता कैसी।
            चारों के जवाब सुनकर उस युवक की बातों की सच्चाई सामने आ गई। राजा का बेटा निश्चित भाव से सबकुछ कुशल मानता था और मंत्री के बेटे ने तर्कपूर्ण उत्तर दिया। इसी तरह कोतवाल के बेटे ने न्याय व्यवस्था की चर्चा की, जबकि ब्राह्मण के बेटे ने दार्शनिक उत्तर दिया। ये सबकुछ आनुवंशिक संस्कारों के कारण हुआ, जबकि सभी का पालन-पोषण एकसाथ और एक तरह से हुआ। फिर भी चारों के विचारों में अपने संस्कारों की तरह अंतर था। इस प्रकार सभी दरबारियों ने मान लिया कि युवक बिल्कुल सही है।
            इतना कहकर 22वीं पुतली वहां से उड़ गई और राजा भोज एक बार फिर इस सोच में पड़ गए कि क्या राजा विक्रमादित्य की तरह वह भी सच्चे और अच्छे लोगों की परख करने के काबिल हैं या नहीं।
कहानी से शिक्षा:-
बच्चों, इस कहानी से सीख मिलती है कि जो व्यक्ति हमेशा सच बोलता है और गलत का साथ नहीं देता है, उसका हमेशा समर्थन करना चाहिए। ऐसे लोग कभी भी गलत सलाह नहीं देते हैं और हमेशा सही राह दिखाते हैं।


धर्मवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की 23वीं कहानी

जब राजाभोज एक बार फिर सिंहासन पर बैठने लगे, तो 23वीं पुतली धर्मवती वहां आ गई। उसने राजाभोज से कहा कि तुम इस सिंहासन पर बैठने के लायक नहीं हो। मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक गुण के बारे में बताती हूं। इसके बाद 23वीं पुतली ने कहानी सुनाना शुरू किया।

            एक दिन राजा भोज दरबार में बैठे अपने मंत्रियों के साथ किसी मुद्दे पर चर्चा कर रहे थे। बात-बात में मंत्रियों के बीच बहस छिड़ गई कि मनुष्य जन्म से बड़ा होता है या कर्म से। इस मुद्दे को लेकर सभी मंत्री दो हिस्सों में बंट गए। एक गुट का मत था कि मनुष्य जन्म से बड़ा होता है, क्योंकि पूर्वजन्मों का कर्म ही होता है, जो मनुष्य जन्म मिलता है, वहीं संस्कार आनुवंशिक होते हैं। जैसे राजा का बेटा राजाओं की तरह व्यवहार करता है। वहीं, दूसरे गुट का मानना था कि कर्म ही सबसे ऊपर है। इसलिए, अच्छे परिवार में पैदा हुए व्यक्ति भी बुरी संगत में पड़ सकते हैं।
            इस पर पहले गुट ने तर्क दिया कि फिर भी परिवार से मिले संस्कार कभी नष्ट नहीं होते, जैसे – कमल का पौधा कीचड़ में रहकर भी शुद्ध होता है। गुलाब कांटों में खिलकर भी सभी को पसंद होता है। चंदन के पेड़ पर सांप रहते हैं, फिर भी चंदन की खुशबू कम नहीं होती। दोनों गुट अपनी-अपनी बात को पूर तर्क के साथ रख रहे थे और राजा विक्रमादित्य ये सब चुपचाप बैठकर सुन रहे थे। बात को बढ़ता देख उन्होंने कि वो इसका फैसला एक उदाहरण के साथ करेंगे।
            उन्होंने तुरंत आदेश दिया कि जंगल से शेर का बच्चा पकड़कर लाया जाए। राजा का आदेश मिलते ही सैनिक जंगल से शेर का नवजात बच्चा उठाकर ले आए। फिर उन्होंने एक गडरिये को दरबार में बुलाया और उसे शेर का बच्चा देते हुए कहा कि इसे बकरी के बच्चों के साथ पालना। गडरिये की समझ में कुछ नहीं आया, लेकिन राजा के आदेश को न मानना उसके बस में नहीं था। इसलिए, शेर के बच्चे को साथ ले गया और बकरियों के साथ पालने लगा। उसे भी भूख लगने पर बकरियों का दूध पिलाया जाता। कुछ और बड़ा होने पर वो दूध तो पीता रहा, लेकिन हरी घास और पत्तियों की तरफ देखता भी नहीं। फिर एक दिन राजा विक्रमादित्य ने गडरिये को महल में बुलाया और शेर के बच्चे के बारे में पूछा। गडरिये ने बताया कि शेर का बच्चा बिल्कुल बकरियों की तरह व्यवहार करता है, लेकिन हरी घास नहीं खाता है।
            उसने राजा से अनुरोध किया कि शेर को मांस खिलाने की अनुमति दी जाए। इस पर राजा विक्रमादित्य ने कहा कि उसका पालन-पोषण सिर्फ दूध पर किया जाए। गडरिया सोच में पड़ गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि महाराज एक मांसाहारी जीव को शाकाहारी क्यों बनाना चाहते हैं। यही सोचता-सोचता वो घर लौट गया।
            शेर का बच्चा अब काफी बड़ा हो गया था। वह अब दूध के साथ कभी-कभी ज्यादा भूख लगने पर घास भी खा लेता और शाम होते ही अन्य बकरियों की तरह उसे भी बाड़े में बंद कर दिया जाता और वाे भी चुपचाप बकरियों के साथ बाड़े में आराम से बैठा रहता।
            एक दिन जब शेर का बच्चा अन्य बकरियों के साथ हरी घास चर रहा था, तो पिंजरे में बंद एक शेर को लाया गया। शेर को देखते ही सारी बकरियां डरकर भागने लगीं, तो शेर का बच्चा भी डरकर भाग खड़ा हुआ। उसके बाद राजा ने गडरिये को आदेश दिया कि अब शेर के बच्चे को अलग से रखा जाए और भूख लगने पर उसके सामने खरगोश को छोड़ा जाए।
            कुछ दिन अलग रहने के बाद शेर का बच्चा दूसरे जानवरों का शिकार करके खाने लगा, लेकिन गडरिये के कहने पर तुरंत बाड़े में आराम से बंद हो जाता, लेकिन धीरे-धीरे उसमें बकरियों की तरह डरने वाला स्वभाव खत्म होने लगा था। एक दिन जब फिर से उसी शेर को उसके सामने लाया गया, तो वह डरकर नहीं भागा। जब उसने शेर की दहाड़ सुनी, तो वो भी तेज आवाज में दहाड़ा।
            ये सब देखने के बाद राजा ने अपने मंत्रियों से कहा कि इंसान का व्यवहार जन्म से उसके साथ होता और जब उसे मौका मिलता है, तो खुद से सामने आ जाता है। जैसे इस शेर को बचपन से बकरियों के साथ रखा गया, लेकिन उनसे अलग करते ही इसका असली व्यवहार सभी के सामने आ गया, जबकि उसे किसी ने सिखाया नहीं था। इसलिए, मनुष्य का सम्मान भी उसी के कर्म के अनुसार किया जाना चाहिए।
            हालांकि, सभी राजा की बात से सहमत हो गए, लेकिन एक दीवान ने कहा कि राजकुल में पैदा होने वाला ही राजा होता, वरना सात जन्मों तक कर्म करने के बाद भी कोई राजा नहीं बनता। इस बात पर राजा विक्रमादित्य मुस्कुरा दिए।
            समय बीतता गया और एक दिन उनके दरबार में एक नाविक राजा को भेंट करने के लिए सुंदर फूल लेकर आया। दरबार में मौजूद सभी लोगों ने पहली बार इतना सुंदर फूल देखा था। राजा ने सैनिकों को यह पता लगाने के लिए भेजा कि ये फूल कहां उगता है। सैनिक उस दिशा में नाव लेकर बढ़ने लगे, जिस दिशा से फूल बहता हुआ था। बहते-बहते नाव उस जगह पहुंची, जहां से यह फूल आया था।
            वहां का दृश्य देखकर सैनिक हैरान रह गए। वहां एक पेड़ से योगी उल्टा लटका हुआ था और जंजीरों से जकड़ा हुआ था। जंजीरों के कारण उसके शरीर पर गहरे घाव बन गए थे। उन घावों से खून टपक रहा था, जो नदी में गिरते ही लाल रंग में फूलों में बदल जाता था। वहीं, पास में कुछ साधु बैठकर तपस्या कर रहे थे। ये सब देखने के बाद सैनिक फूल लेकर दरबार लौट आया और सारा किस्सा राजा को बताया। ये सब सुनने के बाद राजा विक्रमादित्य ने उस दीवान की तरफ देखा, जिसने कहा था कि राजा का बेटा ही राजा बनता है। महाराज ने उस दीवान को समझाया कि उस उल्टा लटका योगी मैं हूं और वहां जो संन्यासी थे, वो तुम सब दरबारी हो। ये मेरे पूर्वजन्म के कर्म ही हैं, जो इस जन्म में राजा हूं। अब मंत्री को राजा की बात समझ में आ गई। उसने मान लिया कि हमारे पूर्वजन्म के कर्म ही होते हैं, जो हमारा अगला जन्म तय करते हैं।
कहानी से शिक्षा:-
बच्चों, यह कहानी हमें सीख देती है कि हमेशा अपना काम पूरी लगन के साथ करना चाहिए। कठिन परिश्रम का फल एक न एक दिन जरूर मिलता है। साथ ही जब हमें सही अवसर मिलता, तो हमारा असली व्यक्तित्व सामने आ ही जाता है।

करुणावती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की 24वीं कहानी

सिंहासन पर बैठने के लिए राजाभोज ने जैसे ही अपना कदम आगे बढ़ाया, वैसे ही 24वीं पुतली करुणावती ने उन्हें रोक दिया। 24वीं पुतली ने कहा कि यह सिंहासन तुम्हारे लिए नहीं है। पहले मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य के गुण व कौशल से जुड़ी एक कहानी सुनाती हूं। उसके बाद तय करना कि आप इस सिंहासन पर बैठने योग्य हैं या नहीं। 24वीं पुतली ने कहा..
            राजा विक्रमादित्य अक्सर अपनी प्रजा का हालचाल जानने के लिए रात में रूप बदलकर राज्य भर में घूमा करते थे। राज्य के चोर-डाकू भी जानते थे कि महाराज भेष बदलकर घूमते हैं, इसलिए वो अपराध करने से घबराते थे। राजा विक्रमादित्य भी चाहते थे कि उनके राज्य से अपराध पूरी तरह से खत्म हो जाए और उनकी प्रजा रात को चैन से सो सके। इसी प्रकार एक रात महाराज भेष बदलकर अपने राज्य में घूम रहे थे। चलते-चलते उन्हें एक भवन के बाहर रस्सी लटकी हुई नजर आई। उन्होंने सोचा कि जरूर कोई चोर इस रस्सी से लटकर ऊपर गया, इसलिए वो भी रस्सी के सहारे ऊपर पहुंच गए।
            उन्होंने अपनी तलवार भी निकाल ली और चोरों को तलाशने लगे, लेकिन तभी किसी महिला की धीमी आवाज सुनाई दी। उन्हें लगा कि यह महिला ही चाेर है। यह सोचकर वो कमरे की दीवार से सटकर खड़े हो गए। उन्होंने सुना कि महिला किसी से साथ वाले कमरे में जाकर किसी की हत्या करने को कह रही है। महिला कह रही थी कि उस आदमी की हत्या किए बिना किसी और के साथ उसका संबंध बनाना मुश्किल है। इसके बाद महाराज को एक पुरुष की आवाज सुनाई दी। पुरुष बोल रहा था कि वह लुटेरा जरूर है, लेकिन किसी निर्दोष व्यक्ति की जान नहीं ले सकता। उसने महिला से कहा कि उसके बाद बहुत धन है। वो दोनों दूर कहीं जाकर सुखी से अपना जीवन काट सकते हैं। इस पर महिला बोली कि तुम दो दिन बाद आना, क्योंकि उसे सारा धन इकट्ठा करने में एक दिन लगेगा।
            राजा समझ गए कि पुरुष उस महिला का प्रेमी है और महिला इस घर के मालिक की पत्नी है। इसके बाद राजा उस रस्सी के सहारे नीचे आ गए और महिला के प्रेमी का इंतजार करने लगे। थोड़ी देर बाद जैसे महिला का प्रेमी रस्सी पकड़ कर नीचे आया, तो राजा ने उसकी गर्दन पर अपनी तलवार रख दी और उसे अपना परिचय दिया। महाराज को सामने देखकर आदमी डर गया, लेकिन राजा विक्रमादित्य ने उसे वादा किया कि अगर वो सच बताएगा, तो वो उसे मृत्युदंड नहीं देंगे। इसके बाद उसने अपनी कहानी महाराज को बताई-
            “मैं बचपन से ही उस महिला से प्यार करता हूं और शादी भी करना चाहता था। मेरे पिता बहुत बड़े व्यापारी थी, जिस कारण मेरे पास काफी धन था। फिर एक दिन समुद्री डाकुओं ने मेरे पिताजी का कीमती सामान से भरा जहाज लूट लिया, जिस कारण हम कंगाल हो गए और मेरे सारे सपने चकनाचूर हो गए। इससे मेरे पिताजी इतने दुखी हुई कि उनकी मौत हो गई। इसके बाद मैंने समुद्री डाकुओं से बदला लेने का निर्णय लिया। कई सालों तक इधर-उधर धक्के खाने के बाद आखिरकार एक दिन मुझे उनका पता चल ही गया। किसी तरह से मैं उनके गुट में शामिल हुआ और उनका विश्वास जीत लिया। अब जब भी मुझे मौका मिलता मैं गुट के किसी न किसी सदस्य की हत्या कर देता। इस तरह से मैंने पूरे दल को खत्म कर दिया और उन्होंने लूट से जो पैसा इकट्ठा किया था वह लेकर वापस घर लौट आया।”
            “घर आने के बाद मुझे पता चला कि जिसे मैं प्यार करता था, उसकी शादी राज्य के किसी धनी सेठ से हो गया है। एक बार फिर मेरे सारे सपने टूट गए। एक दिन मुझे उसके मायके आने के बारे में पता चला। फिर वो रोज मुझसे आकर मिलने लगी। एक दिन मैंने उसने कहा कि मेरे पास बहुत सारी दौलत है, लेकिन उसे मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने कहा कि अगर वो उसे नौलखा हार लाकर दे, तो ही उसे विश्वास होगा। आखिरकार मैं उसकी बात मानकर नौलखा हार ले आया, लेकिन तब तक वो अपने पति के घर लौट गई थी। आज जब मैंने नौलखा हार लाकर उसे पहनाया, तो उसने अपने पति की हत्या करने के लिए मुझे उकसाया, लेकिन मैंने करने से मना कर दिया, क्योंकि किसी निर्दोष की हत्या करना बहुत बड़ा पाप है।
            राजा विक्रमादित्य ने सच बोलने पर उसकी तारीफ की और समुद्री डाकुओं का सफाया करने के लिए उसे शाबाशी दी। साथ ही अपनी प्रेमिका की चतुराई नहीं समझ पाने के लिए उसे डांटा। राजा विक्रमादित्य ने कहा कि सच्ची प्रेमिकाएं प्रेमी से प्रेम करती हैं, उसकी दौलत से नहीं। साथ ही नौलखा हार मिलने के बाद अपने पति की हत्या के लिए उसे उकसाया। ऐसी निर्दय तथा चरित्रहीन महिला से प्रेम हमेशा विनाश की ओर ले जाता है।
            वह आदमी रोता हुआ महाराज के चरणों में गिर गया तथा अपने अपराध के लिए उसे माफ करने के लिए प्रार्थना करने लगा। राजा ने भी उसे मृत्युदंड नहीं दिया और उसकी वीरता और सच्चाई के लिए ढेरों पुरस्कार दिए।
            अगली रात राजा विक्रमादित्य उस महिला के प्रेमी का भेष बनाकर उस महिला के पास पहुंचे। उनके पहुंचते ही महिला ने सोने के आभूषणों से भरी एक थैली उनके सामने रख दी और कहा कि उसने सेठ को विष खिलाकर मार दिया है। जब राजा कुछ नहीं बोले, तो महिला को शक हुआ और उनकी नकली दाढ़ी-मूंछ नोंच ली। अपने प्रेमी की जगह किसी और पुरुष को देखकर महिला जोर-जोर से चोर-चोर चिल्लाने लगी और अपने पति का हत्यारा उन्हें बताकर रोने लगी। वहीं, घर के बाहर खड़े राजा के सिपाही राजा का आदेश मिलते ही दौड़कर आए और महिला को गिरफ्तार कर लिया। अपने सामने राजा विक्रमादित्य को देखकर महिला के हाेश उड़ गए और उसने झट से विष पीकर अपनी जान दे दी।
            यह कहानी सुनाकर 24वीं पुलती वहां से उड़ गई और राजा भोज एक बार फिर महाराज विक्रमादित्य की न्यायप्रियता के बारे में सोचने लगे।
कहानी से शिक्षा:-
लालच करने वालों के साथ कभी अच्छा नहीं होता। उन्हें एक न एक दिन इसका परिणाम भुगतना ही पड़ता है, जैसे इस कहानी में पैसों के लिए अपने पति की हत्या करने वाली महिला के साथ हुआ।

त्रिनेत्री पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की पच्चीसवीं कहानी

एक के बाद एक करके लगभलग चौबीस पुतलियों ने राजा भोज को महाराज विक्रमादित्य की कहानी के जरिए चौबीस गुणों के बारे में बता दिया था जिसे जानकर वह बहुत हर्षित हुए। इसके बाद बारी थी पच्चीसवीं पुतली की जैसे ही राजा भोज सिंहासन की ओर बढ़े उन्हें पच्चसवीं पुतली ने रोक लिया और कहानी के माध्यम से महाराज विक्रमादित्य के एक और महान गुण के बारे में बताने लगीं।
            महाराज वक्रमादित्य अपनी प्रजा को अपनी संतान के जैसा मानते थे और हर हाल में सुखी देखना चाहते थे। इस कारण वे भेष बदलकर अक्सर नगर में घुमते और प्रजा के दुखों को जानकर उसे नीति के अनुसार दूर करने की कोशिष करते थे। शायद यही कारण था की माहराज विक्रमादित्य की प्रजा सुखी और सम्पन्न थी।
            उनकी प्रजा में एक ब्राह्मण और एक भाट का परिवार ऐसा भी थे, जो की बहुत गरीब था। लेकिन कभी भी उनने कोई शिकायत नहीं कि और जितना मिला उतने में संतोष करके रहते थे। वे और लोगों के जैसे राजा के पास कभी भी अपना दुखड़ा लेकर नहीं गए। उनका मानना था कि उन्हें भगवान जो जरूरत के हिसाब से पर्याप्त अन्न और धन दिया है।
            धीरे धीरे समय बीत ता गया और अब ब्राह्मण और भाट दोनों की पुत्री की आयु विवाह योग्य हो गई थी। लेकिन उनके पास इतना धन नहीं था कि वे अपनी पुत्रियों का विवाह करवा सकें। क्योंंकि वे दिनभर में जितना भी धन अर्जन करते थे वह केवल उसी दिन के लिए ही पर्याप्त हो पाता था। दोनों के पत्नियों ने अपने पती के सामने पुत्रियों के विवाह की और अपर्याप्त धन की बात कही।
            भाट ने कहा कि जब भगवान ने संतान दी है तो इसके भविष्य के बारे में भी वही कुछ करेगा। उधर ब्राह्मण ने कहा कि थोड़ा समय दो कुछ न कुछ हो जाएगा। लेकिन दोनों की स्थिति पहले के जैसी ही रही।
            एक दिन भाट ने विचार किया कि ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला मैं दूसरे देश जाकर वहां से धन कमाकर लाऊंगा। इधर ब्राह्मण ने सोचा की वह जिन यजमानों के यहां पूजा पाठ करता है उनसे कुछ बात करके देखूंगा।
            भाग ने दूसरे दिन ही गमन कर दिया और कई देशों में जाकर सेठ, राजा, मजाराजाओं को अपने नाटक और मजाकिया बातों से हंसा हंसा कर खूब खुश किया और बदले में उन्होंने भाट को बहुत सा धन उपहार के रूप में भेट दिया। जब पुत्री के विवाह योग्य धन इकट्ठा हो गया तब उसने अपरे राज्य की ओर प्रस्थान किया। लेकिन पता नहीं कैसे मार्ग में चारे लुटेरों को उसके धन की भनक लग गई और उसे लूट लिया।
            वह निराश खाली हाथ घर आ गया और अपनी पत्नी से कहा कि मैंने पूरा प्रयास किया लेकिन शायद भागवान को यही मंजूर था। अब वो ही पुत्री के विवाह की व्यवस्था करेगा। तब दुख और गुस्से के आवेश में पत्नी के कहा कि तुम तो ऐसे बोल रहे हो कि जैसे भगवान राजा विक्रमादित्य को सपने में कहेगा हमारी मदद करने के लिए। भाट ने कहा क्या मालूम ऐसा ही हो। महाराज विक्रमादित्य ने भाट की बात सुन ली और हंसते हुए आगे बढ़ गए।
            वहीं दूसरी ओर ब्राह्मण ने भी अपने यजमानों से घुमाफिरा कर धन की बात की लेकिन किसी ने भी उसकी बात पर गौर नहीं किया और वह भी खाली हाथ अपने घर आ गया और अपनी पत्नी को सारा बात बता दी। तब पत्नी ने कहा कि अब भगवान कुछ नहीं करने वाले आप कल महाराज विक्रमादित्य के पास जाकर उनसे ही मदद की गुहार करो। तब ब्राह्मण ने कहा कि मैं ऐसा ही करूंगा और कल ही महाराज विक्रमादित्य से मदद की प्रार्थना करूंगा।
            दूसरे दिन सुबह सुबह ही महाराजा विक्रमादित्य ने दो सैनिकों को भेज कर ब्राह्मण और भाट को दरबार में बुला लिया। महाराज ने भाट को दस लाख स्वर्ण मुद्राएं दीं और विवाह की शुभकामनाओं के साथ विदा किया। वहीं दूसरी ओर ब्राह्मण को केवल दस हजार स्वर्ण मुद्राएं देकर ही विदा कर दिया।
            तब महाराज से एक दरबारी ने पूछा कि महाराज आपने दोनों में भेद भाव क्यों किया। महाराज ने उसकीब बात सुनकर कहा कि भाट ऊंची जाती का न होकर भी भगवान पर भरोसा रखता था और मुझे उसने भगवान का प्रतिनिधि बनाया था। वहीं, ब्राह्मण को भगवान के ऊपर पूरा भरोसा नहीं और उसने भगवान के स्थान पर मुझपर भरोसा किया इसलिए मैंने उसकी इंसान के जैसे ही मदद की।
            दरबारी ने महाराज की नीति पूर्वक की गई मदद की प्रसंशा की और अपने स्थान पर बैठ गया।
इतना कहकर पच्चीसवीं पुतली ने राजा भोज से कहा कि कहो राजन् क्या आपके अंदर भी महाराज विक्रमादित्य के जैसे ही नीति से दूसरों की मदद करने वाला गुण मौजूद है। यह सुनकर राजा भोज ने अपना सिर नीचे कर लिया और पच्चीसवीं पुतली भी अन्य पुतलियों के जैसे वहां से उड़ गई।
कहानी से शिक्षा:-
हमें न सिर्फ न्याय बल्कि दूसरों की मदद भी नीति से करना चाहिए जिससे वह हमारे द्वारा दी गई मदद का गलत फायदा न उठा ले।

मृगनयनी पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की छब्बीसवीं कहानी

पच्चीवीं पुतली के द्वारा राज भोज महाराज विक्रमादित्य के गुणों को जानकर हर्षित हुए और उस स्थान से अपने महल की ओर रवाना हो गए। लेकिन अगल दिन फिर से उन्हें सिंहासन और महाराज विक्रमादित्य के गुणों का आकर्षण खींच लाया। जैसे ही राजा भोज सिंहासन की ओर बढ़े कि छब्बीसवीं पुतली मृगनयनी प्रकट हो गई। उसने राजा भोजा को रोकते हुए कहा कि ठहरो राजन् अगर आप इस सिंहासन पर बैठना चाहते हैं तो पहले मुझे यह बताईए कि क्या आपके अंदर वह गुण है जो महाराज विक्रमादित्य में था और जिसके बारे में मैं आपको बताने जा रही हूं। तब राजा भोज ने हाथ जोड़कर कहा कि देवी कृप्या उस गुण के बारे में मुझे बताईए। तब मृगनयनी पुतली ने महाराज विक्रमादित्य की छब्बीसवीं कथा कहना प्रारम्भ की।
            महाराज विक्रमादित्य का मन जितना राजा काज और प्रजा की कुशलता में लगता है उससे कहीं ज्यादा वह पूजा पाठ और प्रभू भक्ति में तपस्वी के जैसे लीन रहते थे। वे इतनी कठोर तपस्या करते थे कि इंद्र देव का सिंहासन भी कांप जाता था।
            एक दिन की बात है राजा विक्रमादित्य के दरबार में एक इसके कुछ सैनिक एक आदमी को पकड़ कर लाए जो देखने में किसी भिखारी के जैसा लगता था लेकिन उसके पास से बहुत सारा धन प्राप्त हुआ था। किसी भिखारी जैसे व्यक्ति के पास इतना धन कैसे आया यह सोचकर ही उसे सैनिकों से जंगल से संदिग्ध अवस्था में गिरफ्तार किया था।
            महाराज ने जब उस व्यक्ति से धन के बारे में पूछा तो उसने कहा कि वह एक सेठ के यहां पर कार्य करता है और सेठ के पत्नी के साथ उसके अनैतिक संबंध हैं उसने ही यह धन दिया था और कहा था कि जंगल में रुक कर मेरा इंतेजार करना मैं सेठ को मारकर जल्दी ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी। राजा ने व्यक्ति की बात सुनकर सेठ के यहां अपने सैनिक भेजे। वहां पर सेठ की चिता पर बैठी हुए उसकी पत्नी कह रही थी कि रात में लुटेरों से उसका सारा धन लूट लिया है और उसके पति की हत्या कर दी है इसलिए वह सती हो जाएगी।
            सैनिकों ने पूरा वृत्तांत महाराज विक्रमादित्य को सुना दिया तब महाराज स्वयं उस व्यक्ति के साथ सेठ के घर पहुंचे। वहां सेठानी से कहा कि हमें तुम्हारी सच्चाई का पता चल गया है तुम्हारा चरित्र अच्छा नहीं है अब तुम को राजा द्वारा दिया जाने वाला दण्ड भोगना पड़ेगा। यह सुनकर सेठानी डर गई और राजा से कहा कि आप क्या मेरा चरित्र देख रहे हैं पहले अपनी छोटी रानी का चरित्र तो देख लों।
            इतना कह कर वह सेठी की चिता में कूद गई और जलकर राख हो गई। इस घटना के बादे से महाराज का मन विचलित रहने लगा और वह गुप्त तरीके से छोटी रानी पर नजर रखने लगा। एक रात छोटी रानी ने सोचा कि सभी सोरहे हैं और वह उठकर महल से थोड़ी दूरी पर एक साधु की कुटिया में चली गई। राजा भी उसके पीछे पीछे आ गया था और जैसे ही उनके कुटिया से झांक कर देखा तो दंग रह गया।
            राजा को अपनी काली करतूत का पता चल गया था कि उसके कुटिया में रहने वाले व्यक्ति के साथ अनैतिक संबंध हैं। गुस्से में उसने रानी और व्यक्ति को मार दिया और स्वयं ने सारे राज्य का भार सैनिकों के ऊपर डालकर सन्यासियों के जैसे जीवन अपना लिए।
            सबसे पहले वे एक समुद्र के तट पर गए और समुद्र देव की तपस्या प्रारम्भ कर दी। समुद्र देव से उनसे वरदान मांगने को कहा। तब राजा ने कहा कि वे समुद्र के तट पर कुटिया बनाकर तपस्या करना चाहते हैं कृप्या आर्शिवाद प्रदान करें। समुद्र देव ने उन्हें आर्शिवाद के साथ ही एक शंख दिया और कहा कि किसी भी दैविय मुसीबत आने पर यह शंख बजा दें, इससे मुसीबत दूर हो जाएगी। इतना कह कर समुद्र देवता गायब हो गए।
            इसके बाद राजा विक्रमादित्य एक कुटिया बनाकर कठोर तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या के प्रभाव से स्वर्ग में इन्द्र देव का सिंहासन कंपायमान होने लगा। इन्द्र ने घबराकर अपने सेवकों को भेजकर कहा कि जहां पर विक्रमादित्य तपस्या कर रहा है उस स्थान को पानी में डुबा दो। सेवको ने ऐसा ही किया और विक्रमादित्य कुटिया सहित पानी में डूब गए, लेकन समुद्र देवता के आर्शिवाद से वह पानी कुछ ही देर में सूख गया।
            यह देखकर इन्द्र चकित रह गया और फिर उसने सैनिकों को भेजकर वहां पर आंधी तूफान के जरिए विक्रमादित्य की तपस्या भंग करने का आदेश दिया। सेवको ने ऐसा ही किया लेकिन इस बार महाराज विक्रमादित्य से समुद्र देवता के द्वारा दिए गए शंख को बजाकर उस आपदा को भी दूर कर दिया और अपनी तपस्या में मग्न हो गए।
            इन्द्र एक बार फिर से चकित रह गया और इस बार स्वर्ग की सबसे सुन्दर अप्सरा तिलोत्तमा को तपस्या भंग करने के उद्देश्य से भेजा। तिलोत्तमा विक्रमादित्य की साधना में नृत्य रूप और वादन के जरिए विघ्न डालने की चेष्टा करने लगी। लेकिन फिर भी विक्रमादित्य की तपस्या पर्वत के जैसे अचल रही। थक कर तिलोत्तमा वापस स्वार्ग आ गई।
            इन्द्र ने फिर से एक और युक्ति सोची। उसे पता था कि विक्रमादित्य बहुत बड़ा दानी है और अगर उससे कोई ब्राह्मण जो भी मांगता है वह उसे दे देता है। इस बार इन्द्र एक ब्राह्मण रूप बनाकर विक्रमादित्य के पास पहुंचा। उन्हें देखकर विक्रमादित्य ने हाथ जोड़ते हुए कहा कि कहिए ब्राह्मण देवता मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं।
            तब इन्द्र ने कहा कि मुझे दान चाहिए। विक्रमादित्य ने कहा कि जो भी मेरे पास और आप उसमें से जो मन हो वाे मांग लीजिए। तब इन्द्र ने कहा कि तुम अपनी तपस्या का सारा फल मुझे दान में दे दो। तक विक्रमादित्य से सहर्ष अपनी तपस्या का सारा फल उन्हें दान में दे दिया। इस बात से प्रसन्न हो कर इन्द्र अपने असली रूप में आ गया और विक्रमादित्य को आर्शिवाद दिया कि उनके राज्य में कभी भी अतिवृष्टी और सूखा नहीं रहेगा और उनकी प्रजा हमेशा ही खुशहाल रहेगी। इतना कहकर इन्द्र देव गायब हो जाते हैं और विक्रमादित्य भी मन की शांति पाकर अपने राज्य की ओर प्रस्थान करते हैं।
            राजा विक्रमादित्य के दान की बात कह कर पुलती ने राजा भोज से कहा कि कहिए राजन क्या आपके अंदर भी एसी सामर्थ्य है कि आप अपना सब कुछ दान में दे दें? एक बार फिर राजा भोज निरुत्तर रह गए और पुतली अन्य पुतलियों के जैसे हवा में उड़ गई।
कहानी से शिक्षा :-
किसी भी परिस्थिति में हमें डरना नहीं चाहिए बल्कि उस  परिस्थिति का साहस और धैर्य के साथ सामना करना चाहिए।

मलयवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की सताइसवीं कहानी

राजा भोज के मन में कैसे भी करके महाराज विक्रमादित्य के सिंहासन पर बैठने की लालसा थी लेकिन हर बार उनको सिंहासन में चिपकी हुई पुतली रोक लेती थी। और उन्हें कहानी के माध्यम से महाराज विक्रमादित्य के गुणों के बारे में बतातीं थीं जो राजा भोज में नहीं थे, जिस कारण राजा भोज सिंहासन पर नहीं बैठ पाते थे। ऐसा करते करते छब्बीस पुतलियों के द्वारा राजा भोज को रोका जा चुका था। राज भोज इस बार मन बना चुके थे कि कुछ भी वे सिंहासन पर बैठकर ही रहेंगे। जैसे ही वे सिंहासन की ओर बढ़े हर बार के जैसे ही इस बार भी उन्हें पुतली ने रोक लिया। इस बार उन्हें मलयवती नामक सताइसवीं पुतली ने रोक लिया था और हर बार के जैसे ही उसने राजा भोज से विक्रमादित्य की गुणों के बारे में कहनी के माध्यम से कहना शुरु किया।
            महाराज विक्रमादित्य अपना कुछ समय राज काज से बचाकर शास्त्रों के अध्ययन में लगाते थे। एक दिन वे विष्णु पुराण पड़ रहे थे जहां उन्होंने दानवीर दैत्यराज बली के बारे में पढ़ा कि किस प्रकार से उन्होंने वामन वेशधारी विष्णु देव को सब कुछ दान में दे दिया और पाताल लोक चले गए। महाराज विक्रमादित्य के मन में इनते बड़े दानवीर के दर्शन करने की लालसा उत्पन्न हो गई। उन्होंने सोचा कि इस लालसा को केवल विष्णु देव ही पूरा कर सकते हैं। ऐसा सोचकर वे अपना राज्य मंहामंत्री के हवाले करके जंगल में विष्णु देव की तपस्या करने के लिए चले गए।
            कई वषों की तपस्या के दौरान पहले उनने अन्न का त्याग किया और कंदमूल का सेवन करने लगे फिर कुछ दिनों के बाद कंदमूल का त्याग कर मात्र पानी का सेवन करने लगे। ऐसा करने पर उनका शरीर बेहद कमजोर हो गया। उनकी तपस्या के कारण उनके आस पास और भी साधु तपस्या करने लगे। उनमें से एक साधु ने महाराज विक्रमादित्य की कमजोर हालत देखकर उनसे कहा कि वे गृहस्थ है और उन्हें साधुओं के जैसे तपस्या नहीं करना चाहिए। लेकिन महाराज विक्रमादित्य नही माने और अपनी तपस्या में लीन होते हुए उनने पानी का भी त्याग कर दिया।
            अब तो उनका शरीर सूखकर कांटे के जैसा हो गया और वे बेहाेश होकर गिर गए। जब होश आया तो देखा की उनका सिर विष्णु देव के गोदी में है और वे राजा विक्रमादित्य के सिर पर हाथ फेर रहे हैं। उन्हें देखते ही विक्रमादित्य के हर्ष की सीमा नहीं रही और तुरन्त ही उन्हें दण्डवत प्रणाम किया। विष्णु देव ने उनसे इतनी कठिन तपस्या का कारण पूछा तो विक्रमादित्य ने पूरा वृत्तांत सुना दिया।
            विष्णु देव ने उन्हें एक शंख देते हुए कहा कि वे समुद्र के बीच में बने हुए पाताल लोक तक इस शंख की मदद से पहुंच सकते हैं, जब वे समुद्र के किनारे जाएं तो इस शंख को बजा दें। इससे समुद्र देव प्रकट हो जाएंगे और वे आपकी इच्छा को पूरा करने में आपकी मदद करेंगे। इतना कह कर वे गायब हो गए।
            शंख और विष्णु देव के दर्शन पाकर मन में प्रसन्नता का भाव लेकर में महाराज विक्रमादित्य समुद्र की ओर चले और समुद्र के किनारे पर जाकर उनने शंख को फूंका जिससे समुद्र देव प्रकट हो गए। उनने पाताल लोक तक जाने में विक्रमादित्य की मदद की। पाताल लोक में जब विक्रमादित्य राजा बली के महल के बाहर पहुंचे तो उन्हें द्वारा पालों ने रोक लिया और वहां जाने का प्रयोजन पूछा। तब विक्रमादित्य ने कहा कि उन्हें राजा बली से भेंट करनी है।
            राजा बली के पास जब यह संदेश गया तो उन्होंने कहा कि वे अभी नहीं मिल सकते हैं। द्वारपाल ने बली का संदेश विक्रमादित्य के पास पहुंचा दिया। संदेश सुनकर विक्रमादित्य ने कहा कि मुझे राजा बली से भेंट करनी है नहीं तो मैं आपने प्राण त्याग दूंगा। इतना कहकर उनने तलवार निकालकर अपनी गर्द धड़ से अलग कर दी।
            जब यह बात राजा बली तक पहुंची तो उनने अमृत भेज कर राजा विक्रमादित्य को फिर से जीवित करवा दिया और कहा कि ठीक है वे महाशिव रात्री को विक्रमादित्य से मिलने के लिए तैयार हैं। विक्रमादित्य ने सोचा ने शायद बली बात को टालने की कोशिश कर रहें हैं। उनने फिर से यही बात कही कि मुझे दर्शन करवा दो नहीं तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगा। इतना कहकर एक बार फिर राजा ने अपनी गर्द धड़ से अलग कर दी।
            इस बार फिर से अमृत छिड़क कर विक्रमादित्य को जीवित कर दिया और गया राजा बली के पास ले जाया गया। तब बली ने उनका स्वागत किया और आने का प्रयोज पूछा तो विक्रमादित्य ने विष्णु पुराण और उनके दान की पूरी बात उनसे कह दी। विक्रमादित्य की बात सुनकर बली बहुत प्रसन्न हुए और उनकी खूब खातिर की। जब विक्रमादित्य वहां से आने लगे तो दैत्यराज बली ने उन्हें हर इच्छा को पूरा करने वाला एक मूंगा दिया और उसके बारे में बताया।
            मूंगा लेकर महाराज विक्रमादित्य समुद्र पारकर अपने राज्य की ओर प्रस्थान कर गए। रास्ते में उन्हें एक स्त्री मिली जिसके बाल बिखरे हुए थे और अपनी गाेदी में अपने पति का सिर लिए बैठी रो रही थी। उसका पति मर गया था।
            महिला की हालत देखकर विक्रमादित्य ने मूंगा से उसके पति को जिंदा करने का अनुराेध किया और पलक झपकते ही वह जिंदा हो गया। महाराज विक्रमादित्य ने वह मूंगा उस महिला को दे दिया और उसका रहस्य भी बता दिया। इसके बाद वे वापस आपने राज्य चले गए।
            कहानी को खत्म करके पुतली ने राजा भोज से पूछा कि हे राजन् क्या आपके अन्दर भी इतनी सामर्थ्य है कि अपने इच्छा को पूरा करने के लिए अपना सब कुछ छोड़कर प्रभू भक्ति में लग जाओ?
            राजा भोज कुछ न कह सके और सताइसवीं पुतली भी वहां से उड़कर चली गई। इसके बाद राजा भोज फिर से अपने महल की ओर चले गए।
कहानी से शिक्षा : -

हमें अपने मन लिया हुआ दृढ़ संकल्प किसी भी परिस्थिति में पूरा करना चाहिए, भले ही कितनी विपत्ती का सामना करना पड़े।

सिंहासन बत्तीसी की 28वीं कहानी - वैदेही पुतली की कथा

लगातार 27 पुतलियों से राजा विक्रमादित्य की महानता की कहानी सुनकर परेशान हो चुके राजा भोज ने एक बार फिर सिंहासन पर बैठने की कोशिश की। वह जैसे ही सिंहासन पर बैठने गए, तभी 28वीं पुतली वैदेही ने उन्हें रोका और राजा विक्रमादित्य की स्वर्ग यात्रा और इस दौरान उनके द्वारा किए गए पुण्य कार्यों का किस्सा बताना शुरू किया।
            एक रात महाराज विक्रमादित्य अपने महल में सोए रहे थे। इस दौरान उन्होंने सपने में एक सोने का महल देखा। महल की सजावट व आसपास का नजारा बहुत ही खूबसूरत था। सपने में ही महल के बाहर उन्हें एक योगी दिखा जिसका चेहरा हूबहू उनके जैसा ही था। यह देखते ही अचानक उनकी नींद टूट गई। वह समझ गए कि वह एक सपना देख रहे थे, लेकिन जागने के बाद भी उन्हें पूरा सपना अच्छी तरह से याद था। उन्होंने अपने पंडितों व ज्योतिषियों को अपना सपना सुनाया और इसका मतलब जानने के लिए उनसे कहा।
            सभी विद्वानों ने राजा विक्रमादित्य से कहा, “महाराज आपने सपने में स्वर्ग के दर्शन किए हैं और वह महल देवराज इंद्र का है। देवताओं ने शायद आपको सशरीर स्वर्ग आने का निमंत्रण दिया है।”
            अपने विद्वानों की यह बात सुनकर विक्रमादित्य आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने पंडितों से पूछा, “स्वर्ग जाने का रास्ता कौन-सा है और इस यात्रा में किस-किस चीज की जरूरत पड़ सकती है।” काफी सोचने के बाद सभी विद्वानों ने उन्हें वह मार्ग बताया जहां से स्वर्ग में प्रवेश किया जा सकता है। इसके साथ ही उन्हें यह भी कहा कि जो हमेशा भगवान को याद करता है और धर्म का पालन करता है, वही स्वर्ग जा सकता है।
            इस पर राजा ने कहा कि काम करते हुए कभी न कभी उनसे अनजाने में कोई गलत काम जरूर हुआ होगा। साथ ही कई बार राज काज के कारण भगवान की पूजा करना भी छूट जाता है। इस पर सभी ने एकमत होकर कहा, “ महाराज, अगर आप इस काबिल नहीं होते, तो आपको स्वर्ग के दर्शन ही नहीं होते।”
            सभी के कहने पर राजा विक्रमादित्य राजपुरोहित को अपने साथ लेकर स्वर्ग जाने के लिए निकल पड़ते हैं। अपने विद्वानों के कहे अनुसार उन्हें इस यात्रा के दौरान पुण्यकर्म भी करने थे। यात्रा से पहले राजा ने अपना शाही भेष त्याग दिया था। वह आम लोगों की तरह कपड़े पहन कर यात्रा कर रहे थे। यात्रा के दौरान रात में वह एक नगर में आराम करने के लिए रुक गए। कुछ देर बाद उन्हें एक बुजुर्ग महिला रोती दिखी। वह काफी परेशान थी। राजा विक्रमादित्य ने उस बुजुर्ग महिला से रोने का कारण पूछा। बुजुर्ग महिला ने बताया, “मेरा इकलौता बेटा सुबह जंगल गया था, लेकिन अभी तक लौटा नहीं है। राजा विक्रमादित्य ने उससे पूछा, “आपका बेटा जंगल किस काम से गया है?” बुढ़िया ने बताया, “मेरा बेटा रोज सुबह जंगल से सूखी लकड़ियां लाता है और शहर में बेचता है। इसी से परिवार का गुजारा होता है।”
            राजा ने बुढ़िया से कहा, “चिंता मत करो आपका बेटा आ जाएगा।” इस पर बूढ़ी औरत ने कहा, “जंगल बहुत घना है और वहां कई खतरनाक जानवर हैं। मुझे डर है कि कहीं किसी जानवर ने उसे अपना शिकार न बना लिया हो।” बुढ़िया ने आगे कहा, “शाम से मैं कई लोगों से विनती कर चुकी हूं, लेकिन कोई भी मदद नहीं कर रहा। मैं बूढ़ी हो चुकी हूं, इसलिए खुद जंगल जाकर उसे ढूंढ नहीं कर सकती।” यह सुनकर विक्रमादित्य ने कहा कि वह उनके बेटे को ढूंढकर लाएंगे।
            इसके बाद राजा विक्रमादित्य लड़के की खोज में जंगल चल दिए। जंगल में उन्हें एक नौजवान युवक कुल्हाड़ी लेकर पेड़ पर दुबका बैठा मिला और उस पेड़ के नीचे एक शेर घात लगाए बैठा दिखा। विक्रम ने कोई रास्ता निकालते हुए शेर को वहां से भगा दिया और उस युवक को अपने साथ लेकर बुढ़िया के पास लौट आए। बुढ़िया बेटे को देखकर बहुत खुश हुई और विक्रम को ढेरों आशीर्वाद मिले। इस तरह बुढ़िया को चिंतामुक्त करके राजा ने एक पुण्य का काम किया।
            रात को आराम के बाद उन्होंने अगली सुबह फिर से अपनी यात्रा शुरू की। चलते-चलते वह समुद्र के किनारे पहुंच गए। वहां उन्होंने एक महिला को रोते हुए देखा। जब वह उसके पास गए, तो देखा कि समुद्र के किनारे पर एक जहाज खड़ा है और कुछ लोग उस पर सामान लाद रहे हैं। जब उन्होंने महिला से रोने का कारण पूछा, तो उसने बताया, “कुछ महीने पहले ही मेरी शादी हुई है और अब में गर्भवती हूं। मेरे पति इसी जहाज पर काम करते हैं और आज जहाज दूर किसी देश जा रहा है।”
            यह सुनकर राजा विक्रम ने कहा, “इसमें परेशानी की क्या बात है, कुछ ही समय बाद तुम्हारा पति लौट आएगा।” इस पर उसने अपनी चिंता का कारण कुछ और बताया। उसने कहा, “कल मैंने सपने में सामान से लदे एक जहाज को समुद्र के बीच भयानक तूफान में घिरते देखा है। तूफान इतना तेज था कि जहाज टूटकर समुद्र में डूब गया और उस पर सवार सभी लोग मर गए।” उस महिला ने आगे कहा, “अगर यह सपना सच हुआ, तो मेरा क्या होगा और मेरे होने वाले बच्चे की देखभाल कैसे होगी।”
            राजा विक्रमादित्य को यह बात सुनकर दया आ गई। उन्होंने समुद्र देवता द्वारा दिए गए शंख को महिला को दिया और कहा, “यह अपने पति को दो और उससे कहो कि जब भी तूफान या कोई अन्य प्राकृतिक आपदा आए, तो इस शंक को फूंक दे, इससे सारी मुसीबत खत्म हो जाएगी।”
            उस औरत को विक्रमादित्य की बात पर विश्वास नहीं हुआ और वह शक की नजर से उन्हें देखने लगी। राजा विक्रमादित्य ने महिला की शंका को भांप लिया और तुरंत शंख में एक फूंक मारी, जिसके बाद देखते ही देखते वह जहाज और उस पर तैनात सभी लोग कोसों दूर चले गए। अब दूर-दूर तक सिर्फ समुद्र नजर आ रहा था। वह औरत और वहां खड़े अन्य लोग यह देखकर हैरान हुए। इसके बाद महाराज ने फिर से शंख फूंका, तो वह जहाज सभी कर्मचारियों सहित वापस आ गया। अब उस औरत को शंख की शक्ति पर विश्वास हो गया था। उसने राजा से वह शंख लेकर धन्यवाद कहा।
            राजा विक्रमादित्य उस औरत को शंख देकर अपनी यात्रा पर आगे बढ़ गए। कुछ देर चलने के बाद आकाश में काले बादल मंडराने लगे और बादल जोर-जोर से गरजने लगे। इसी बीच उन्हें एक सफेद घोड़ा वहां आता दिखा। जब वह घोड़ा उनके पास पहुंचा, तो एक आकाशवाणी हुई –
            “हे महाराज विक्रमादित्य, इस धरती पर तुम्हारे जैसा पुण्यात्मा और कोई नहीं हुआ। स्वर्ग आने की इस यात्रा में तुमने दो पुण्य कार्य किए हैं। इसलिए, तुम्हें लेने के लिए एक घोड़ा भेजा जा रहा है, जो तुम्हें इंद्र के महल तक पहुंचा देगा।”
            यह सुन विक्रमादित्य ने कहा, “मैं अपने राजपुरोहित के साथ स्वर्ग की यात्रा पर निकला हूं। इसलिए, स्वर्ग जाने के लिए उनके लिए भी व्यवस्था की जाए।”
            यह सुनकर राजपुरोहित ने कहा, “राजन मुझे माफ करें। मेरी सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा नहीं है। अगर भगवान ने चाहा, तो मरने के बाद स्वर्ग आऊंगा और खुद को धन्य समझूंगा।” इसके बाद राजा विक्रमादित्य राजपुरोहित से विदा लेकर घोड़े पर बैठ गए। कुछ ही देर में घोड़ा आकाश में दौड़ने लगा। दौड़ते-दौड़ते इंद्रपुरी पहुंच गया। इंद्रपुरी पहुंचते ही राजा को वही सपनों वाला महल दिखा। चलते-चलते वह इंद्रसभा में पहुंच गए, जहां सभी देवता अपने-अपने स्थान पर बैठे थे। अपसराएं नृत्य कर रही थीं। इंद्र देव पत्नी के साथ सिंहासन पर बैठे थे। राजा विक्रमादित्य को सशरीर स्वर्ग में देखकर सभी हैरान हो गए।
            इंद्र उन्हें देखकर सिंहासन से उठकर आए और उनका स्वागत किया। साथ ही राजा विक्रमादित्य को सिंहासन पर बैठने को कहा। राजा ने इंद्र से सिंहासन पर बैठने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह इस आसन के योग्य नहीं हैं। इंद्र, विक्रमादित्य की नम्रता और सरलता देखकर प्रसन्न हुए। इंद्र ने उनसे कहा, “सपने में आपने जिस योगी को देखा था वह आप खुद थे। आपने इतना पुण्य कमा लिया है कि इंद्र के महल में आपको स्थायी स्थान मिल गया है।” इसके बाद इंद्र ने राजा विक्रमादित्य को एक मुकुट उपहार में दिया। राजा विक्रमादित्य कुछ दिन इंद्रलोक में बिताने के बाद वह मुकुट लेकर अपने राज्य वापस आ गए।
            यह कहानी सुनाने के बाद 28वीं पुतली वैदेही ने राजा भोज से कहा कि अगर तुम भी राजा विक्रमादित्य की तरह पुण्य करने वाले, सरल व विनम्र हो, तो ही इस सिंहासन पर बैठ सकते हो, वरना नहीं। इतना कहकर 28वीं पुतली वैदेही वहां से उड़ जाती है।
कहानी से शिक्षा :-

इस कहानी से बच्चों यह सीख मिलती है कि हमें दूसरों की मदद करनी चाहिए, क्योंकि अच्छे कर्मों का फल जरूर मिलता है।

मानवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की 29वीं कहानी

सिंहासन का महत्वाकांक्षी राजा भोज 29वीं बार सिंहासन पर बैठने की कोशिश करता है। वह जैसे ही सिंहासन पर बैठने जाता है, तभी 29वीं पुतली मानवती उसे रोकती है और राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाने लगती है। इस बार कहानी राजा की बहन की शादी की है। आइए जानते हैं कि इस किस्से में 29वीं पुतली ने क्या सुनाया –
            एक बार की बात है, राजा विक्रमादित्य भेष बदलकर राज्य में घूम रहे थे। वो चलते-चलते नदी किनारे पहुंचे और वहां चुपचाप खड़े हो गए। अचानक उन्हें बचाओ-बचाओ की आवाज सुनाई दी। वह तुरंत वहां पहुंचे जहां से आवाज आ रही थी। वहां उन्हें नदी की तेज धारा में एक युवक-युवती फंसे दिखे। वो दोनों किनारे आने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन तेज धारा की वजह से असफल हो जाते थे। यह देख राजा विक्रमादित्य फौरन नदी में कूद गए और दोनों को सकुशल बाहर निकाल लिया। नदी से बाहर निकलने के बाद युवक ने बताया, “हम दोनों परिवार के साथ नौका से कहीं जा रहे थे। बीच भंवर में हमारी नाव फंस गई। वहां से निकलने की हमने बहुत कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए। हमारे परिवार के बाकी सदस्य उस भंवर में ही फंसकर मर गए, बस हम दोनों ही किसी तरह तैरकर यहां तक पहुंचे थे।”
            राजा विक्रमादित्य ने दोनों से उनका परिचय पूछा। युवक ने बताया, “हम दोनों भाई-बहन हैं और दूर एक देश के रहने वाले हैं।” राजा ने कहा, “चिंता मत करो, आप दोनों को सकुशल आपके देश भेज दिया जाएगा। फिलहाल आप दोनों हमारे साथ चलो।” यह कहकर राजा विक्रमादित्य दोनों को अपने महल की ओर ले जाने लगे। राजमहल के पास जब प्रहरियों ने राजा को प्रणाम किया, तो युवक-युवती को मालूम हुआ कि अपनी जान दांव पर लगाकर उन्हें बचाने वाले खुद महाराजाधिराज थे।
            महल पहुंचकर राजा ने नौकरों को बुलाया और दोनों को सारी सुविधाओं के साथ ठहराने को कहा। अब दोनों का मन राजा के प्रति और आदरभाव से भर गया।
            वह युवक बहन की शादी के लिए काफी परेशान रहता था, क्योंकि उसकी बहन राजकुमारी की तरह सुंदर थी। इसलिए, वह चाहता था कि उसकी शादी किसी राजा से हो, लेकिन खराब आर्थिक हालत की वजह से उसकी यह इच्छा पूरी नहीं हो पा रही थी। अब वह राजा विक्रमादित्य से बहन से शादी का प्रस्ताव रखने की सोच रहा था। यह सोचकर उसने बहन को ठीक से तैयार कराया और उसे लेकर राजा से मिलने राजमहल में गया। राजमहल में पहुंचने पर राजा विक्रम ने उससे हालचाल पूछा और कहा कि दोनों के जाने का प्रबंध कर दिया गया है। युवक ने राजा से कहा, “महाराज, आपने जो उपकार किए हैं, उसे कभी नहीं भूलूंगा।” इसके बाद उसने राजा को छोटा-सा तोहफा देने की बात कहीं। राजा ने मुस्कुराते हुए इसकी अनुमति दे दी।
            राजा को खुश देखकर उसकी हिम्मत बढ़ गई और उसने कहा, “मैं अपनी बहन को आपको उपहार में देना चाहता हूं। राजा विक्रम ने कहा, “यह उपहार मुझे स्वीकार है।” यह सुनकर युवक को लगा कि राजा उसकी बहन से शादी करेंगे, लेकिन तभी राजा ने कहा, “आज से तुम्हारी बहन राजा विक्रमादित्य की बहन है और मैं अच्छा-सा वर देखकर इसका विवाह पूरे धूमधाम से करूंगा।” राजा की यह बात सुनकर युवक उनका मुंह ताकता रह गया। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसकी बहन की सुंदरता को अनदेखा करके राजा उसे अपनी बहन बना लेंगे।
            कुछ देर बाद युवक ने राजा से कहा, “उदयगिरी का राजकुमार उदयन मेरी बहन की खूबसूरती पर मोहित है और वह उससे शादी करना चाहता है।” यह सुनकर राजा विक्रमादित्य ने तुरंत एक पंडित को बुलाया और उसे बहुत-सा धन देकर उदयगिरी राज्य शादी का प्रस्ताव भेजा”, लेकिन पंडित उसी शाम राजमहल लौटा आया और बोला कि रास्ते में कुछ डाकुओं ने सारा धन लूट लिया। यह सुनकर राजा हैरान हुए और सोचने लगे कि उनके शासन में डाकू कैसे हो सकते हैं।
            इस बार उन्होंने पंडित को अपने कुछ घुड़सवारों के साथ धन देकर भेजा। साथ ही उसी रात राजा विक्रमादित्य खुद भेष बदलकर डाकुओं का पता लगाने के लिए निकल पड़े। वह उस जगह पहुंचे जहां पंडित को लूटा गया था। वहां उन्हें 4 आदमी बैठे दिखे। राजा समझ गए कि ये वही लुटेरे हैं, जबकि उन चारों ने राजा को कोई गुप्तचर समझा। राजा ने उनसे कहा, “डरो मत, मैं भी तुम्हारी तरह चोर ही हूं।” यह सुन चारों ने कहा कि वे चोर नहीं बल्कि इज्जतदार लोग हैं। राजा ने कहा, “बहाने मत बनाओ, मुझे भी अपने दल में शामिल कर लो।” इसके बाद चारों ने अपनी-अपनी खूबियां बताई। एक चोरी का शुभ मुहूर्त निकालता था, दूसरा परिंदे व जानवरों की भाषा समझता था, तीसरा गायब होने की कला जानता था और चौथा कठिन से कठिन यातना झेल सकता था। ये सब सुनने के बाद राजा विक्रमादित्य ने उनका विश्वास जीतने के लिए कहा कि मैं कहीं भी छिपा हुआ धन देख सकता हूं। जब चारों ने ये विशेषता सुनी, तो उन्होंने राजा को अपने दल में शामिल कर लिया।
            इसके बाद राजा विक्रमादित्य ने चारों के साथ मिलकर अपने ही महल में चोरी करने की साजिश बनाई। वह चोरों को उस जगह पर लेकर गए, जहां शाही खजाने का थोड़ा हिस्सा छिपा हुआ था। चोरों ने सारा माल बटोर लिया और निकलने लगे, लेकिन तभी सुरक्षाकर्मियों ने चोरों को पकड़ लिया। अगली सुबह चारों को राजा दरबार लाया गया। वो डर से कांप रहे थे। उन्होंने अपने साथी को सिंहासन पर देखा, तो दंग रह गए। वो सभी सजा की प्रतीक्षा कर रहे थे, लेकिन राजा ने उन्हें सजा न देकर माफ कर दिया और उनसे फिर से चोरी न करने और अपने गुणों का इस्तेमाल दूसरों की भलाई के लिए करने का वचन लिया। चारों ने भी अपने राजा की बात मानी और अच्छे इंसान की तरह रहने लगे। बाद में राजा ने उन्हें अपनी सेना में शामिल कर लिया। वहीं, राजा उदयन ने भी विक्रमादित्य की मुंहबोली बहन से शादी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। शुभ मुहूर्त में दोनों की शादी धूमधाम से की गई।
            कहानी सुनाने के बाद 29वीं पुतली मानवती ने राजा भोज से कहा कि अगर तुम भी राजा विक्रमादित्य की तरह समझदार, साहसी और निर्मल स्वभाव के हो, तो ही इस सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ना। इतना कहकर 29वीं पुतली मानवती वहां से उड़ जाती है और राजा भोज सोच में पड़ जाते हैं।

कहानी से शिक्षा:-

इस कहानी से बच्चों यह सीख मिलती है कि हमें अपने अंदर सेवा की भावना रखनी चाहिए और समय आने पर चतुराई से काम लेना चाहिए।

जयलक्ष्मी पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की 30वीं कहानी

अलग-अलग पुतलियों की उलाहना सुन-सुनकर थक चुका राजा भोज हिम्मत करके 30वीं बार भी सिंहासन पर बैठने जाता है, लेकिन इस बार उसे 30वीं पुतली जयलक्ष्मी रोकती है और कहती है कि अगर तुम राजा विक्रमादित्य की तरह तपस्वी हो, तो ही इस सिंहासन पर बैठो। यह कहते हुए 30वीं पुतली जयलक्ष्मी उसे राजा विक्रमादित्य के तपस्वी होने से जुड़ी कहानी सुनाती है। आइए, जानते हैं कि इस कहानी में जयलक्ष्मी ने क्या बताया –
            राजा विक्रमादित्य बड़े तपस्वी भी थे। उन्होंने अहसास हो गया था कि अब वह ज्यादा से ज्यादा 6 माह तक ही जी सकते हैं। इसके बाद उन्होंने वन में एक कुटिया बनाई और राज-काज से जो समय बच जाता था, उसमें साधना करने लगे। एक दिन राजमहल से कुटिया की तरफ आते वक्त उनकी नजर एक हिरण पर पड़ी। ऐसा अद्भुत हिरण उन्होंने कभी नहीं देखा था। उन्होंने शिकार के लिए जैसे ही धनुष उठाया तभी हिरण उनके पास आया और मनुष्यों की तरह बोलकर अपने प्राणों की भीख मांगने लगा। हिरण को मनुष्य की तरह बोलते हुए देख राजा को बहुत आश्चर्य हुआ और उनका हाथ रुक गया।
            राजा ने उस हिरण से पूछा कि वह मनुष्यों की भाषा कैसे बोल लेता है। इस पर हिरण ने कहा कि यह सब आपके दर्शन करने और आपकी तपस्या की शक्ति के चलते हुआ है। इसके बाद राजा की जिज्ञासा और बढ़ गई। उन्होंने उस हिरण से पूछा कि इसकी वजह क्या है, तो उसने बताना शुरू किया।
            हिरण ने कहा, “मैं जन्म से हिरण नहीं हूं। मेरा जन्म एक राजा के घर हुआ था। अन्य राजकुमारों की तरह मुझे भी शिकार खेलने का शौक था। एक दिन मुझे जंगल में कुछ दूरी पर हिरण होने का अहसास हुआ और मैंने आवाज को लक्ष्य करते हुए बाण चला दिया, लेकिन यह आवाज एक योगी की थी जो बहुत धीमी आवाज में मंत्र उच्चारण कर रहे थे। वह तीर उन्हें तो नहीं लगा, लेकिन उनके कान को छूते हुए एक पेड़ में घुस गया। मैं अपने शिकार की खोज में जब वहां पहुंचा, तो पता चला कि मुझसे बड़ा पाप होते-होते रह गया। साधना में विघ्न पड़ने से वह योगी बहुत नाराज थे और मुझे सामने देखकर वह समझ गए कि यह बाण मैंने ही चलाया था। इससे पहले कि मैं कुछ कहता, उन्होंने मुझे श्राप दे दिया। उन्होंने कहा, “हिरण का शिकार करने वाले मूर्ख, आज से तू खुद हिरण बन जाएगा और शिकारियों से अपनी जान बचाने के लिए यहां से वहां भटकता रहेगा।” इसके बाद मैं उस योगी के पैरों में गिर पड़ा और श्राप से छुटकारा पाने की प्रार्थना करने लगा। मेरी आंखों में पश्चाताप के आंसू देखकर योगी को दया आ गई और उन्होंने मुझसे कहा कि श्राप तो वापस नहीं हो सकता, लेकिन इसका प्रभाव काम हो सकता है। तुम तब तक हिरण बनकर भटकते रहोगे, जब तक महान और तेजस्वी राजा विक्रमादित्य के दर्शन नहीं हो जाते। उनके दर्शन होते ही तुम मनुष्यों की तरह बोलने लगोगे।”
            राजा विक्रम ने जिज्ञासा से उस हिरण से पूछा, “तुम अब मनुष्य की तरह बोल तो रहे हो, लेकिन तुम्हें हिरण रूप से मुक्ति कब मिलेगी और कब तुम मनुष्य रूप में आओगे?” हिरण ने जवाब दिया, “इस रूप से भी मुझे जल्द ही मुक्ति मिल जाएगी। योगी ने कहा था कि अगर मैं आपको अपने साथ लेकर उस योगी के पास जाऊं, तो मैं अपने वास्तविक रूप में आ जाऊंगा।”
            यह कहकर हिरण आगे-आगे चलने लगा और राजा विक्रम उसके पीछे चलने लगे। थोड़ी दूर चलने के बाद उन्हें एक योगी पेड़ पर उल्टा लटकर साधना करता नजर आया। राजा समझ गए कि हिरण रूपी राजकुमार इसी योगी की बात कर रहा है। वे जब उसके पास आए, तो योगी पेड़ से उतरकर सीधा खड़ा हो गया। उसने राजा का अभिवादन किया। राजा विक्रमादित्य समझ गए कि यह योगी उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहा था। जिज्ञासावश राजा ने उससे पूछा, “आप मेरी प्रतिक्षा क्यों कर रहे थे?” इस पर उस योगी ने कहा, “सपने में एक दिन मुझे इंद्र देव ने दर्शन देकर कहा था कि राजा विक्रमादित्य ने अपने कर्मों से देवताओं-सा स्थान पा लिया है और उनके दर्शन करने वालों को इंद्र देव और अन्य देवताओं के दर्शन का फल प्राप्त होता है। इसलिए, मैं इतनी कठिन साधना आपके दर्शन के लिए कर रहा था।”
            राजा विक्रमादित्य ने उस योगी से कहा, “अब तो आपने मेरे दर्शन कर लिए हैं, क्या मुझसे कुछ और चाहते हैं।” इस पर योगी ने उनसे उनके गले में पड़ी इंद्रदेव की ओर से मिली मूंगे वाली माला मांगी। राजा ने खुशी-खुशी वह माला उस योगी को दे दी। योगी ने जैसे ही उनका आभार प्रकट किया वैसे ही श्रापित राजकुमार फिर से मानव शरीर में आ गया। उसने पहले राजा विक्रम के और फिर योगी के पांव छूए।
            इसके बाद राजा उस राजकुमार को लेकर अपने महल आ गए। अगले दिन वह उसे अपने रथ पर लेकर उसके राज्य के लिए निकले। दोनों जैसे ही राज्य में घुसे, तभी सैनिकों ने उनके रथ को चारों तरफ से घेर लिया व राज्य में प्रवेश करने की वजह पूछने लगे। राजकुमार ने अपना परिचय दिया और सैनिकों से रास्ता छोड़ने के लिए कहा, लेकिन सैनिकों ने बताया कि उसके माता-पिता को बंदी बनाकर जेल में डाल दिया गया है। अब यहां का राजा कोई और है। इस पर राजा विक्रमादित्य ने सैनिकों को अपना परिचय दिए बिना खुद को राजकुमार का दूत बताया और कहा कि नए राजा को यह संदेश देना कि उसके सामने दो विकल्प हैं या तो वह असली राजा-रानी को उनका राज्य वापस लौटा दे या फिर युद्ध की तैयारी करे।
            उस सेनानायक को यह सुनकर बड़ा अजीब लगा। उसने राजा विक्रमादित्य का मजाक उड़ाते हुए कहा,  “युद्ध कौन करेगा? क्या तुम दोनों युद्ध करोगे?” यह उपहास देखकर राजा विक्रमादित्य का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया, उन्होंने तलवार निकाली और उस सेनानायक का सिर धड़ से अलग कर दिया। सेना में भगदड़ मच गई। किसी ने दौड़कर नए राजा को यह खबर दी। यह सुनते ही राजा सेना लेकर वहां पहुंचा। राजा विक्रमादित्य इस हमले के लिए पहले से तैयार थे। उन्होंने तुरंत दोनों बेतालों को बेतालों को बुलाया। दोनों बेतालों ने राजा विक्रमादित्य का आदेश मिलते ही रथ को हवा में उठा दिया।
            इसके बाद उन्होंने गायब होने वाला तिलक लगाया और रथ से कूद गए। अदृश्य होकर उन्होंने दुश्मनों को गाजर-मूली की तरह काटना शुरू कर दिया। सैकड़ों सैनिकों के मारे जाने व दुश्मनों के नजर न आने से सैनिकों में भगदड़ मच गई। ज्यादातर सैनिक नए राजा को छोड़कर भाग गए। इसके बाद नए राजा का चेहरा देखने लायक था। वह हैरान, डरा हुआ और हताश था। यह देखकर राजा विक्रमादित्य अपने असली रूप में सामने आ गए। उन्होंने नए राजा को अपना परिचय देते हुए कहा, “या तो तुम इसी क्षण यह राज्य छोड़कर चले जाओ या प्राण दंड के लिए तैयार रहो।” वह राजा विक्रमादित्य की शक्ति से परिचित था, इसलिए वो उसी पल राज्य को छोड़कर भाग गया।
            इसके बाद राजा विक्रमादित्य उस राज्य के असली राजा-रानी को उनका राज्य वापस दिलाकर अपने राज्य की ओर चल दिए। रास्ते में एक जंगल पड़ा। वहां एक हिरण राजा विक्रमादित्य के पास आया और एक शेर से बचाने की गुहार करने लगा, लेकिन राजा विक्रमादित्य ने उसकी मदद नहीं की, क्योंकि वह भगवान के बनाए नियम के खिलाफ नहीं जा सकते थे। दरअसल, शेर भूखा था और हिरण जैसे जानवर ही उसकी भूख शांत कर सकते थे। यह सोचते हुए उन्होंने शेर को हिरण का शिकार करने दिया।
            कहानी समाप्त होते ही 30वीं पुतली जयलक्ष्मी ने राजा भोज को कहा कि अगर आप भी राजा विक्रमादित्य की तरह पराक्रमी हैं और आपके अंदर भी तपस्वी भाव है, तो ही सिंहासन पर बैठना वरना नहीं। इतना कहते ही 30वीं पुतली वहां से उड़ जाती है।

कहानी से शिक्षा :-

इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमें दूसरों की मदद करनी चाहिए और कभी हमसे अनजाने में गलती हो जाए, तो उसका पश्चाताप जरूर करना चाहिए।

कौशल्या पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की 31वीं कहानी

जब 30 बार असफल रहने के बाद एक बार फिर राजा भोज सिंहासन पर बैठने की कोशिश करते हैं, तो 31वीं पुतली कौशल्या वहां प्रकट होती है। वह राजा भोज से कहती है, “इस सिंहासन पर तुम तभी बैठ सकते हो, जब राजा विक्रमादित्य जैसे गुण तुम में हों।” इसके साथ ही 31वीं पुतली राजा भोज को राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाती है, जो इस प्रकार है-
            समय के साथ-साथ राजा विक्रमादित्य बूढ़े हो चले थे और उन्होंने अपनी शक्तियों से यह भी पता कर लिया था कि उनका अंत अब करीब है। अब राजा का ध्यान राज-पाठ और धर्म-कर्म के कामों में ज्यादा लगा रहता था। योग-साधना के लिए उन्होंने वन में एक आवास भी बना रखा था। एक दिन वन में साधना के दौरान उन्हें एक दिव्य रोशनी आती दिखाई दी। जब राजा ने ध्यान से देखा, तो पता चला कि यह दिव्य रोशनी सामने वाली पहाड़ियों से आ रही थी। अचानक से राजा को रोशनी के बीच चमचमाता हुआ सुंदर महल भी दिखाई पड़ा।
            इस सुंदर महल को दूर से देखने के बाद राजा को उस महल को पास से देखने की इच्छा हुई। अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए राजा ने अपने दोनों बेतालों को बुलाया। बेताल उन्हें पहाड़ी पर तो ले आए, लेकिन बैताल पहाड़ी से आगे महल में नहीं जा सकते थे। इस बात का कारण बताते हुए बेताल ने राजा से कहा, “इस दिव्य और सुंदर महल को एक योगी ने अपने मंत्रों से बांध रखा है। इसके अंदर वो ही जा सकता है, जिसने अपने अच्छे कर्मों से उस योगी से ज्यादा पुण्य कमाया हो।”
            बेताल की बातें सुनकर राजा विक्रमादित्य को यह जानने की इच्छा हुई कि उन्होंने योगी से ज्यादा पुण्य कमाया है या नहीं। राजा विक्रमादित्य सीधे महल के दरवाजे की ओर बढ़ते हैं। जैसे ही राजा के कदम प्रवेश द्वार पर पड़े, वहां एक आग का गोला आकर उनके पास रुक गया। इसके बाद महल के अंदर से आज्ञा भरी आवाज सुनाई पड़ी और वो आग का गोला राजा के पास से पीछे हट गया। जब राजा विक्रम ने महल के अंदर प्रवेश किया, तो उस आवाज ने राजा से उनका परिचय मांगते हुए कहा, “सब कुछ सच बताओ, वरना आने वाले को श्राप देकर भस्म कर दिया जाएगा।”
            उस योगी ने राजा से उनका परिचय मांगा। राजा ने कहा कि मैं विक्रमादित्य हूं। नाम सुनते ही योगी ने कहा, “मैं भाग्यशाली हूं, जो आपके दर्शन हुए।” योगी ने राजा का आदर-सत्कार किया और उनसे कुछ मांगने को कहा। राजा ने योगी की बात का मान रखते हुए उनसे वो अद्भुत महल मांग लिया।
            योगी ने राजा की इच्छा को जानते हुए वो महल राजा को सौंप दिया और वन में चले गए। योगी जब वन में भटक रहे थे, तब उनकी मुलाकात उनके अपने गुरु से हुई। गुरु ने योगी को इस हाल में देखकर वन में भटकने का कारण जानना चाहा, तो वह बोले कि, “मैंने अपना महल राजा विक्रमादित्य को दान कर दिया।”
            योगी की इस बात पर गुरु ने हंसते हुए कहा, “धरती के सबसे बड़े दानी को तुम क्या दान करोगे। ब्राह्मण के रूप में जाकर विक्रमादित्य से अपना महल फिर से मांग लो।” अपने गुरु की बात मानकर योगी ब्राह्मण वेश में राजा के साधना वाले स्थान पर पहुंच गया और उनसे रहने के लिए जगह देने की प्रार्थना की। राजा विक्रम समझ गए थे कि ब्राह्मण वेश में वो योगी है। राजा ने उनसे अपनी मन पसंद जगह मांगने के लिए कहा, तो योगी ने उनसे वही महल मांगा, जो उसने राजा को दान किया था। राजा विक्रम ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं वह महल वैसा का वैसा छोड़कर उसी समय आ गया था। मैंने तो बस तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए वह महल मांगा था।”
            इस कहानी के बाद भी इकत्तीसवीं पुतली ने अपनी कहानी खत्म नहीं की। वह आगे बोली, “राजा विक्रमादित्य में देवताओं से बढ़कर गुण थे। वे इन्द्रासन के अधिकारी माने जाते थे, लेकिन सच तो यह है कि वो देवता नहीं मानव थे, जिन्होंने मृत्यु लोक में जन्म लिया था।” पुतली ने आगे कहा कि राजा ने एक दिन अपना देह त्याग दिया। राजा की मृत्यु के बाद प्रजा में हाहाकार मच गया। उनकी प्रजा दुख से रोने लगी। जब राजा का अंतिम संस्कार होने वाला था, तब उनकी सारी रानियां चिता पर सती होने के लिए बैठ गईं। महाप्रतापी राजा के अंतिम संस्कार के दिन देवताओं ने फूलों की वर्षा कर राजा को आखिरी विदाई दी।
            राजा के बाद उनके बड़े पुत्र का राजतिलक हुआ और उसे राजा घोषित किया गया, मगर वह अपने पिता के सिंहासन पर नहीं बैठ पाया, जिसका कारण वो समझ नहीं पा रहा था। एक दिन अपने पुत्र के सपने में राजा विक्रम आए और कहा, “उस सिंहासन पर बैठने के लिए तुम्हें पुण्य, प्रताप और यश कमाना होगा और जिस दिन तुम इन गुणों की प्राप्ति कर लोगे, उस दिन मैं तुम्हारे सपने में आकर बताऊंगा।”
            काफी समय हो चला था, लेकिन राजा विक्रम अपने पुत्र के सपने में नहीं आए, तो पुत्र परेशान हो गया कि वो सिंहासन का क्या करे। पंडितों और विद्वानों की सलाह पर वह एक दिन अपने पिता का ध्यान करके सोया, तो राजा विक्रम सपने में आए और कहा कि सिंहासन को जमीन में गड़वा दिया जाए और अपने पुत्र को उज्जैन छोड़कर अम्बावती में अपनी नई राजधानी बनाने के लिए सलाह दी। राजा ने यह भी कहा कि जब भी धरती पर सर्वगुण सम्पन्न राजा पैदा होगा, वो सिंहासन खुद-ब-खुद उसके अधिकार में चला जाएगा। पुत्र ने अपने पिता के स्वप्न वाले आदेश को मानकर सिंहासन को जमीन में गड़वा दिया और खुद उज्जैन को छोड़कर अम्बावती को नई राजधानी बनाकर शासन करने लगा।
        इतना कहकर 31वीं पुतली कौशल्या वहां से उड़ जाती है और राजा भोज फिर से सोच में पड़ जाते हैं।

कहानी से शिक्षा :-

इस कहानी से यह सीख मिलती है कि इंसान को हमेशा अच्छे कर्म करने चाहिए, ताकि पूरी दुनिया आपके अच्छे कर्मों से आपको याद करे।

रूपवती पुतली की कहानी  - सिंहासन बत्तीसी की 32वीं कहानी

सिंहासन पर बैठने के लिए हमेशा उतावले रहने वाले राजा भोज इस बार सिंहासन के लिए थोड़े से भी उत्साहित नहीं थे। यह देख 32वीं पुतली रानी रूपवती वहां प्रकट हुई और राजा भोज से कारण पूछा। राजा भोज ने जवाब दिया, “मैं यह समझ चुका हूं कि राजा विक्रमादित्य में देवताओं वाले गुण थे, जो किसी सामान्य मनुष्य में होना असंभव है। साथ ही मैं यह भी जानता हूं कि मेरे में कई कमियां हैं। इसलिए, मैंने सोचा है कि सिंहासन को इसके पहले स्थान में ही गड़वा दिया जाए, जहां से कोई इसे निकाल न सके।”
            राजा भोज का जवाब सुनते ही सिंहासन की सभी पुतली अपनी रानी के पास आ गईं और राजा भोज को उनके इस फैसले के लिए धन्यवाद कहा। पुतलियों ने कहा कि आज वे मुक्त हो गई हैं और यह सिंहासन अब बिना पुतलियों का हो जाएगा। पुतलियों ने राजा भोज को बताया कि उनमें भी राजा विक्रमादित्य जैसे थोड़े गुण दिखाई देते हैं और इसी वजह से उन्हें राजा विक्रमादित्य का यह सिंहासन दिखाई दिया।
            पुतलियों ने राजा भोज से यह भी कहा कि आज से सिंहासन के गुण फीके पड़ जाएंगे और यह भी धरती की अन्य वस्तुओं की तरह पुराना होकर नष्ट हो जाएगा। इसके बाद सभी पुतलियों ने राजा भोज से जाने की आज्ञा ली और आकाश में विलीन हो गईं।
            इसके बाद राजा भोज ने मजदूरों को बुलाकर एक बड़ा गड्ढा खुदवाया और मंत्रों का पाठ करके सिंहासन को जमीन में गड़वा दिया। उस स्थान पर फिर वैसा ही टीला बनवाया गया, जिस पर बैठकर चरवाहा अपने फैसले सुनाया करता था, लेकिन अब यह टीला पहले वाले की तरह चमत्कारी नहीं रहा।

कहानी की समाप्ति से जुड़ी एक अन्य कहानी

सिंहासन बत्तीसी को गड़वाने के बाद सिंहासन का क्या हुआ, इसका जिक्र कहानी की समाप्ति से जुड़ी एक कहानी में मिलता है, जो इस प्रकार है –

            राजा विक्रमादित्य के सिंहासन को गाड़कर और उस पर टीला बनवाए काफी वर्ष बीत चुके थे। टीले को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। इस बात को सभी लोग जानते थे कि इस टीले के नीचे चमत्कारी सिंहासन दबा हुआ है। इस बात के बारे में चोरों को भी पता चल गया था। चोरों ने एक दिन सिंहासन को चोरी करके उसे बेचने की योजना बनाई। योजना के तहत कई महीनों तक उन्होंने टीले से कुछ ही दूरी पर एक सुरंग बनाई, जो सीधे सिंहासन तक जाती थी। चोर सिंहासन तक पहुंच गए और वहां से सिंहासन को बाहर निकालकर एक सुनसान जगह पर ले गए। चोरों ने सिंहासन को तोड़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन तोड़ नहीं पाए। सिंहासन को हथौड़े से भी तोड़ने की कोशिश की गई, लेकिन प्रहार करते ही सिंहासन में से चिंगारी निकली और तोड़ने वाले के हाथ जख्मी हो गए। चोर फिर भी लगातार सिंहासन को तोड़ने की कोशिश करते रहें, क्योंकि सिंहासन में जड़ें कीमती हीरों का लालच वो छोड़ नहीं पा रहे थे।
            सिंहासन पर लगे सोने की चमक को देख कर चोरों ने सोचा कि अगर वो इस सोने को बेच देंगे, तो उनके पास बहुत सारा धन आ जाएगा और उनकी आने वाली पीढ़ी को कुछ काम करने की जरूरत नहीं पड़ेगी, लेकिन सिंहासन को नुकसान पहुंचाने की चोरों की हर कोशिश नाकाम रही। सिंहासन को तोड़ने के चक्कर में उनके हाथ चिंगारी से जल गए। चोर थकान के कारण चुपचाप बैठ कर सोचने लगे और सोचने के बाद उन्हें लगने लगा कि सिंहासन में भूत है। चोर आपस में बात करते हुए कहने लगे कि सिंहासन में भूत होने की वजह से ही राजा भोज ने इसे अपने पास नहीं रखा और इतनी कीमती चीज को जमीन में गाड़ दिया। चोरों ने सिंहासन को छोड़ने का सोचा, तभी चोरों के सरदार ने कहा,  “अगर सिंहासन को तोड़ नहीं पा रहे हो, तो इसे दूसरी जगह ले जाकर बेचा जाएगा।”
            अपने सरदार की बात सुनकर चोरों ने सिंहासन को कपड़े से ढक दिया और दूर राज्य के लिए रवाना हो गए। वे सिंहासन को लेकर एक ऐसे राज्य में पहुंचे, जहां कोई राजा विक्रमादित्य के सिंहासन को बारे में जानता नहीं था। चोर जौहरी के वेश में राज्य के राजा से मिलने गए और राजा को हीरे-मोती से जड़ित सिंहासन को दिखाते हुए कहा कि वे बहुत दूर रहते हैं और उन्होंने अपना सारा धन इस सिंहासन को तैयार करने में लगा दिया।
            राजा ने उनकी बात सुनने के बाद हीरे के व्यापारी को इस सिंहासन की जांच करने के लिए कहा। राजा के आदेश के बाद सुनारों और जौहरियों ने सिंहासन की जांच करने के बाद राजा को इसे खरीदने के लिए कहा। राजा ने सिंहासन का अच्छा-खासा मूल्य देकर खरीद लिया। जैसे ही सिंहासन को दरबार में लगाया गया, तो पूरा दरबार  सिंहासन से निकल रही चमत्कारी रोशनी से जगमगा उठा। राजा यह देखकर बहुत खुश हुआ। राजा ने शुभ मुहूर्त निकाल कर सिंहासन का शुद्धीकरण करवाया और इस पर रोज बैठने लगे।
            हर तरफ सिंहासन के बारे में बात होने लगी। कई राज्यों के राजाओं ने सिंहासन के दर्शन किए। यह बात राजा भोज के राज्य में भी पहुंची। राजा भोज को शक हुआ कि कहीं ये सिंहासन वो तो नहीं है, जिसे उन्होंने दबा दिया था। राजा भोज ने तुरंत अपने सैनिकों के साथ इस बारे में बात की और मजदूर बुलाकर टीले को खुदवाने का आदेश दिया। आखिरकार राजा भोज को जिस बात का शक था वही हुआ, सिंहासन चोरी हो चुका था। अब राजा भोज मन ही मन यह सोचने लगे कि कोई और राजा इस सिंहासन पर विराजमान कैसे हो गया। क्या उस राजा में विक्रमादित्य के जैसे गुण हैं?
            अपने सवालों का जवाब जानने के लिए राजा भोज उस राज्य की ओर रवाना हुए। राजा भोज लंबी यात्रा तय करने के बाद उस राज्य के राजा से मिले। राजा भोज का खूब आदर-सत्कार किया गया और यहां आने का कारण पूछा गया।
            राजा भोज ने सारी बातें राजा को सच-सच बताई। राजा भोज की बातों को सुनकर राजा सोच में पड़ गए और कहा  “मुझे किसी भी तरह की तकलीफ नहीं हुई इस सिंहासन पर बैठने में।”
            राजा भोज ने ज्योतिषियों से सलाह ली और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि शायद अब सिंहासन का चमत्कार खत्म हो चुका है और सिंहासन में अब सोने की जगह कांच के टुकड़े रह गए हैं।
            सिंहासन खरीदने वाले राजा को ज्योतिषियों की बात पर भरोसा नहीं हुआ। राजा ने कहा, “सिंहासन लेने से पहले जौहरियों से इसकी अच्छे से जांच की गई थी।” फिर, जब दोबारा इस सिंहासन की जांच करवाई गई, तो पता चला कि सिंहासन की चमक फीकी पड़ चुकी है और सिंहासन में हीरे-मोती नहीं बल्कि अब कांच के टुकड़े लगे हैं। राजा ने अपने पंडितों से सिंहासन को ठीक से देखने के लिए कहा। सिंहासन को देखने के बाद पंडितों का कहना था कि इस सिंहासन का चमत्कार अब खत्म हो चुका है, क्योंकि यह सिंहासन शुद्ध नहीं रहा। पंडितों ने कहा कि अब इस अपवित्र सिंहासन का शास्त्रों के अनुसार विधि-विधान के साथ अंतिम संस्कार कर देना चाहिए। इस सिंहासन का समापन जल में कर देना चाहिए। राजा के आदेश पर सिंहासन को कावेरी नदी में प्रवाहित कर दिया गया।
            इसके बाद कई राजाओं ने सिंहासन तक पहुंचने की कोशिश की, लेकिन सिंहासन किसी के हाथ न आया। वहीं, कई लोगों का विश्वास है कि यह सिंहासन उसी को मिलेगा जिसके अंदर राजा विक्रमादित्य जैसी खूबियों होंगी।
कहानी से शिक्षा :-
इस कहानी से यह सीख मिलती है कि इंसान को उसके कर्म के अनुसार ही फल की प्राप्ति होती है। इसलिए, अच्छे फल के लिए अच्छे कर्म करना जरूरी है।

बत्तीस पुतलियों के नाम :-

  1. रत्नमंजरी  
  2. चित्रलेखा  
  3. चन्द्रकला  
  4. कामकंदला  
  5. लीलावती  
  6. रविभामा  
  7. कौमुदी  
  8. पुष्पवती  
  9. मधुमालती  
  10. प्रभावती  
  11. त्रिलोचना  
  12. पद्मावती  
  13. कीर्तिमती  
  14. सुनयना  
  15. सुन्दरवती  
  16. सत्यवती  
  17. विद्यावती  
  18. तारावती  
  19. रुपरेखा  
  20. ज्ञानवती  
  21. चन्द्रज्योति  
  22. अनुरोधवती  
  23. धर्मवती  
  24. करुणावती  
  25. त्रिनेत्री  
  26. मृगनयनी  
  27. मलयवती  
  28. वैदेही  
  29. मानवती  
  30. जयलक्ष्मी  
  31. कौशल्या  
  32. रानी रुपवती  

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सिंहासन बत्तीसी की कहानी भाग-2

 त्रिलोचनी पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की ग्यारहवीं कहानी

हर बार की तरह इस बार भी राजा भोज सिंहासन पर बैठने के लिए राज दरबार पहुंचते हैं। इस बार सिंहासन की ग्यारहवीं पुतली त्रिलोचना उन्हें रोक देती है। फिर वह राजा विक्रमादित्य के गुणों के बारे में बताने के लिए महायज्ञ का एक किस्सा सुनाने लगती है।
            एक बार राजा विक्रमादित्य ने राज्य की खुशहाली के लिए महायज्ञ करने की घोषणा की। इसमें उन्होंने सभी राजा-महाराजा, पंडित-ब्राह्मण, देवी-देवताओं और ऋषी-मुनियों को आमंत्रित करने का फैसला लिया। सभी को आमंत्रण भेजने के बाद राजा विक्रमादित्य ने पवन देव को खुद जाकर निमंत्रण देने की ठानी और समुद्र देव को आमंत्रित करने के लिए एक ब्राह्मण का चयन किया।
            राजा का आदेश मिलते ही ब्राह्मण देव निमंत्रण पत्र लेकर समुद्र देवता के पास जाने के लिए निकल पड़े। साथ ही राजा विक्रमादित्य भी पवन देव की खोज के लिए एक जंगल पहुंचे। यहां उन्होंने कुछ दिनों तक ध्यान लगाया, ताकि उन्हें पवन देव के बारे में कुछ जानकारी मिल सके। मां काली ने उनके ध्यान से खुश होकर राजा विक्रमादित्य को बताया कि पवन देव सुमेरू पर्वत पर रहते हैं।
            पवन देव के बारे में पता चलते ही राजा ने बेताल को बुलाया। बेताल कुछ ही देर में उन्हें लेकर सुमेरू पर्वत पर पहुंचा दिया। पर्वत पर तेज हवाएं चल रही थीं, लेकिन पवन देव कहीं नहीं दिखे। फिर राजा विक्रमादित्य ने पवन देव का ध्यान लगाया। उनकी साधना से खुश होकर पवन देव वहां प्रकट हुए और कहा, “हे राजन! बताओ, मुझे क्यों याद किया।” जवाब देते हुए महाराज ने कहा, “हे देव, मेरी इच्छा है कि आप मेरे राज्य में होने वाले महायज्ञ में आएं। यज्ञ का निमंत्रण देने के लिए ही मैंने आपका ध्यान किया था।”
            राजा विक्रमादित्य की बातें सुनने के बाद पवन देव ने मुस्कुराते हुए कहा कि वह यज्ञ में नहीं आ सकते। राज्य में उनके आने से भयंकर तूफान आएगा, जिससे सब कुछ तबाह हो सकता है। पवन देव ने विक्रमादित्य को समझाते हुए कहा कि वो संसार के हर कोने में मौजूद हैं। उनके यज्ञ में भी वो उपस्थित रहेंगे, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से।
            पवन देव ने इतना कहने के बाद राजा विक्रमादित्य को आशीर्वाद दिया कि उनके राज्य में कभी सूखा और अकाल नहीं पड़ेगा। साथ ही इच्छाओं को पूरा करने वाली एक कामधेनु गाय भी उन्हें दी और वहां से चले गए। उसके बाद राजा भी बेताल की मदद से राज्य वापस आ गए।
            इधर, राजा पवन देव से मिलकर लौट आए। उधर, समुद्र देवता से मिलने के लिए ब्राह्मण कई मुसीबतों का सामना कर रहे थे। जैसे-तैसे वह सागर के पास पहुंचे और समुद्र देवता को कई बार बुलाया, लेकिन समुद्र देवता प्रकट नहीं हुए। ब्राह्मण देव भी थकने वालों में से नहीं थे, वो बार-बार समुद्र देवता को बुलाते रहे। उनकी पुकार से खुश होकर समुद्र देवता प्रकट हुए और ब्राह्मण ने विक्रमादित्य के महायज्ञ के बारे में उन्हें बताया।
            निमंत्रण मिलने के बाद समुद्र देव ने कहा कि उन्हें पवन देव से इस महायज्ञ के बारे में पता चल गया था, लेकिन वो यज्ञ में नहीं आ सकते। उन्होंने बताया कि अगर वो प्रत्यक्ष रूप से वहां आएंगे, तो पूरा राज्य बह जाएगा। इसी वजह से वो यज्ञ के दौरान जल की हर बूंद में अप्रत्यक्ष रूप से मौजूद रहेंगे।
            इतना कहकर समुद्र देवता ने ब्राह्मण को पांच रत्न और एक घोड़ा देते हुए कहा कि ये सब उपहार महाराज विक्रमादित्य को दे देना। इतना कहने के बाद समुद्र देवता अदृश्य हो गए। अब ब्राह्मण तेजी से सारे उपहार लेकर राज्य की ओर चलने लगे। ब्राह्मण को पैदल चलता देखकर समुद्र देवता से मिले घोड़े ने ब्राह्मण से पूछा कि आप पैदल जाने की जगह मुझे अपनी सवारी क्यों नहीं बना लेते? ब्राह्मण चलते रहे, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। इस पर घोड़े ने उन्हें समझाया कि वह राजा के दूत हैं, इसलिए उपहार का इस्तेमाल कर सकते हैं। यह सुनकर ब्राह्मण घोड़े पर बैठे और कुछ ही देर में राजमहल पहुंच गए।
            राज दरबार पहुंचते ही ब्राह्मण ने सारी बातें महाराज विक्रमादित्य को बताई। साथ ही समुद्र देवता द्वारा दिए गए उपहार भी उनको दे दिए। राजा ने खुश होकर कहा कि आपने अपना काम बहुत अच्छे से किया है, इसलिए इन सभी भेंट को आप रख लें। ब्राह्मण घोड़ा और रत्न लेकर खुशी-खुशी अपने घर को लौट गए।
            इस कहानी को सुनाने के बाद ग्यारहवीं पुतली सिंहासन से उड़ गई।
कहानी से शिक्षा :-
कोशिश करने से हर काम पूरा हो जाता है। राजा विक्रमादित्य ने भी अंतिम समय तक कोशिश नहीं छोड़ी और आखिरकार पवन देव को उनके सामने आना ही पड़ा। इसलिए, बच्चों आपको भी जब तक सफलता न मिले, प्रयास करते रहना चाहिए।

 

पद्मावती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की बारहवीं कहानी

विक्रमादित्य की खूबियों के बारे में बताने के लिए इस बार बारहवीं पुतली सिंहासन से निकलती है। वह राजाभोज को राजा विक्रमादित्य और एक राक्षस की कहानी सुनाती है।
            एक दिन राजा विक्रमादित्य अपने राज-पाठ का काम खत्म करके सुहाने मौसम का आनंद उठा रहे थे। तभी उन्हें एक महिला की चीख सुनाई दी। वह मदद के लिए के लिए लोगों को पुकार रही थी। उसकी आवाज सुनते ही राजा तलवार लेकर घोड़े पर सवार हुए और तेजी से आगे बढ़ने लगे। कुछ समय बाद राजा उस जगह पहुंच गए, जहां से महिला के चीखने की आवाज आ रही थी।
            राजा ने देखा कि उस महिला के पीछे एक भयानक राक्षस पड़ा हुआ है। विक्रमादित्य बिना देरी किए अपने घोड़े से कूद गए। महाराज को अपने सामने देखकर महिला बिलखते हुए उनसे मदद मांगने लगी। तब राजा विक्रमादित्य ने कहा, “बहन, अब तुम्हारी जान मैं बचाऊंगा। तुम चिंता मत करो।”
            इतने में वहां राक्षस पहुंच गया और राजा विक्रमादित्य से कहने लगा कि एक साधारण इंसान उससे युद्ध में जीत नहीं सकता है। फिर जोर-जोर से हंसते हुए राक्षस कहता है कि मैं पल भर में तुम्हें मार सकता हूं। इतना कहते ही राक्षस, तुरंत महाराज पर हमला करने के लिए आगे बढ़ता है।
            राजा विक्रमादित्य राक्षस को चेतावनी देते हैं, लेकिन राक्षस ने उनकी एक नहीं सुनी। तभी विक्रमादित्य तलवार से राक्षस पर हमला कर देते हैं। राक्षस ने खुद को तलवार के हमले से बचाया और युद्ध करना शुरू किया। महाराज विक्रमादित्य काफी चतुर थे, इसलिए उन्होंने पहले राक्षस को थकाया। उसके बाद राक्षस का सिर काट दिया।
            सिर कटने के बाद राजा को लगा कि राक्षस मर गया, लेकिन तभी उसके शरीर पर दोबारा कटा हुआ सिर जुड़ गया। साथ ही जहां उस राक्षस का रक्त गिरा था, वहां से दूसरा राक्षस पैदा हो गया। यह देखकर राजा विक्रमादित्य हैरान हो गए। फिर दोनों राक्षसों ने महाराज से लड़ाई करना शुरू कर दिया।
            सबसे पहले रक्त से जन्मा हुआ राक्षस राजा पर हमला करता है। राजा चतुराई से उसके प्रहार से बचते हुए अपनी तलवार से उसके दोनों हाथ और पैर काट देते हैं। अपने साथी राक्षस को दर्द से तड़पता हुआ देखकर दूसरा राक्षस उसे लेकर वहां से भाग जाता है। राजा के पास उस दूसरे राक्षस पर हमला करने का मौका था, लेकिन राजा ने सोचा पीठ दिखाकर भागते हुए राक्षस पर हमला नहीं किया जाना चाहिए।
            इसके बाद राजा सीधे उस महिला के पास चले गए। विक्रमादित्य ने उससे कहा “राक्षस डर कर भाग गया है, तुम मेरे साथ चलो। मैं तुम्हें तुम्हारे माता-पिता के पास पहुंचा दूंगा।” तभी वह महिला कहती है “अभी खतरा टला नहीं है, क्योंकि राक्षस मरा नहीं सिर्फ भागा है। वो दोबारा से आएगा।” उसकी बातें सुनकर राजा ने उसका नाम पूछा।
            महिला बताती है “वह सिंहुल द्वीप में रहने वाले एक ब्राह्मण की बेटी है। एक दिन वो तालाब में अपनी सहेलियों के साथ नहाने गई थी। उसी दिन इस राक्षस की नजर मुझ पर पड़ी और वो मुझे उठाकर यहां अपने साथ ले आया। वह मुझसे शादी करना चाहता है, लेकिन मुझे उस राक्षस की पत्नी नहीं बनना।”
            यह सुनकर राजा उस ब्राह्मण पुत्री से कहते हैं “मैं उस राक्षस को मारकर तुम्हें उससे आजाद करा दूंगा।” फिर विक्रमादित्य ने उससे राक्षस के बारे में पूछा कि वो दोबारा जिंदा कैसे हो रहा है। तब उस महिला ने बताया “राक्षस के पेट में एक मोहिनी रहती है, जो तुरंत उसके मुंह में अमृत डाल देती है। इसलिए, वह दोबारा जीवित हो जाता है, लेकिन वह रक्त से जन्मे दूसरे राक्षस को अमृत नहीं दे सकती है। इसलिए, उसके रक्त से जन्मा राक्षस दर्द से तड़प रहा था।”
            फिर राजा ने स्त्री से मोहिनी के संबंध में पूछा, लेकिन ब्राह्मण पुत्री को उसके बारे में कुछ मालूम नहीं था। मोहिनी के बारे में सोचते हुए विक्रमादित्य पास के पेड़ के नीचे आराम करने लगे। तभी उन पर एक शेर ने हमला कर दिया। शेर के पहले हमले से राजा के हाथ पर चोट लग गई।
            जैसे ही शेर ने राजा पर दूसरा हमला किया, महाराज विक्रमादित्य ने उस शेर के पैरों को पकड़कर उसे दूर फेंक दिया। तभी शेर अपने राक्षस रूप में आ गया। यह देखकर राजा समझ जाते हैं कि यह मायावी राक्षस है, जो छल से मुझसे हराने की कोशिश कर रहा है।
            राजा तेजी से राक्षस के पीछे भागे और उससे युद्ध शुरू कर दिया। लड़ते-लड़ते जब राक्षस थक गया, तब राजा ने अपनी तलवार से उसके पेट पर हमला किया। राक्षस दर्द के कारण चिल्लाने लगा। इसके बाद विक्रमादित्य ने उसके पेट को तलवार से काट दिया। पेट के फटते ही मोहनी उससे बाहर निकलती है और अमृत लाने के लिए भागने लगती है।
            इस देखकर विक्रम अपने बेतालों को बुलाकर मोहिनी को पकड़ने का आदेश देते हैं। काफी देर तक अमृत न मिलने की वजह से राक्षस तड़पकर मर जाता है। फिर महाराज विक्रमादित्य उस मोहिनी से पूछते हैं कि तुम कौन हो? मोहिनी बताती है “वह भगवान शिव की एक भक्त है, जिसे उसकी गलती के वजह से राक्षस की सेवा करनी पड़ रही थी। अब वह श्राप मुक्त हो गई है।”
            इतना सुनते ही राजा अपने साथ मोहिनी और उस ब्राह्मण पुत्री को महल लेकर आते हैं। महिला के माता-पिता का पता लगाकर महाराज उसे उसके घर सकुशल पहुंचा देते हैं। उसके बाद राजा मोहिनी से शादी करके खुशी-खुशी अपने महल में रहने लगते हैं।
            यह कहानी सुनाने के बाद बारहवीं पुतली राजा भोज से पूछती है कि क्या आप में हैं राजा विक्रमादित्य जैसे गुण और फिर वहां से उड़ जाती है।
कहानी से शिक्षा :-

लोगों की मदद करने से बड़ा कोई धर्म नहीं होता है और किसी तरह का काम मुश्किल नहीं होता। बस थोड़ा सोच-विचार कर कदम उठाना पड़ता है। 

कीर्तिमती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की तेरहवीं कहानी

बारहवीं पुतली की कहानी को सुनकर जैसे ही राजा भोज महाराज विक्रमादित्य के सिंहासन की ओर बढ़े तभी वहां पर तेरहवीं पुतली आ गई। तेरहवीं पुतली का नाम कीर्तिमती था। उसने राजा भोज को यह पूछते हुए रोक लिया कि क्या राजा विक्रमादित्य में मौजूद सभी खूबियां आपके अंदर है? राजा भोज ने हाथ जोड़ते हुए निवेदन किया कि हे देवी! क्या आप उस खूबी के बारे में मुझे बता सकती हैं। तब कीर्तिमती ने महाराज विक्रमादित्य की कहानी कहना शुरू की।
            बहुत समय पहले की बात है राजा विक्रमादित्य ने बड़े-बड़े विद्वानों को अपने दरबार में मंत्रणा के लिए बुलाया और निमंत्रण के तौर पर उन्हें खूब सारा धन दान में दिया। जब राजा विक्रमादित्य का दरबार लगा था, तो सभी विद्वान एक स्वर में बोलने लगे कि इस धरती पर महाराज विक्रमादित्य सबसे बड़े दानी है।
            वहीं, महाराज ने एक ब्राह्मण को देखा जो शांत बैठा था। महाराज ने जब ब्राह्मण से उसके शांत होने का कारण पूछा, ताे ब्राह्मण ने कहा कि यदि राजा उसे अभय दान दें, तो वह कुछ बोलने की हिम्मत करेगा। तब राजा ने उसे वचन दिया। इसके बाद ब्राह्मण ने कहा कि महाराज बेशक आप बहुत बड़े दानी हैं, लेकिन सबसे बड़े दानी नहीं हैं।
            ब्राह्मण के वचनों को सुनकर सभी दरबारी ब्राह्मण की ओर देखने लगे और महाराज ने ब्राह्मण की निडरता की तारीफ की। इसके बाद विक्रमादित्य ने पूछा कि तो फिर इस धरती पर सबसे बड़ा दानी कौन है? तब ब्राह्मण ने कहा कि समुद्र की दूसरी ओर बहुत सम्पन्न राज्य है, जिसके राजा कीर्कित्तध्वज सबसे बड़े दानी हैं। वे राेजाना जब तक एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दान नहीं करते, तब तक वह कुछ भी ग्रहण नहीं करते हैं। मैंने भी कुछ दिन तक उनके दरबार में जाकर दान ग्रहण किया था।
            महाराज विक्रमादित्य ने ब्राह्मण की यह बात सुनकर उन्हें बहुत सारा धन देकर विदा किया और स्वयं बेताल की मदद से समुद्र के पार राजा कीर्कित्तध्वज के राज्य पहुंच गए। वे सीधा कीर्कित्तध्वज के दरबार में पहुंचे और उनसे अपने लिए एक नौकरी की मांग की।
            कीर्कित्तध्वज ने महाराज से उनका परिचय पूछा, तो विक्रमादित्य ने कहा कि वे एक साधारण नागरिक हैं और नौकरी की तलाश कर रहे हैं। तब कीर्कित्तध्वज ने उनसे पूछा कि आप क्या काम कर सकते हैं। तब राजा विक्रमादित्य ने कहा कि जो काम कोई नहीं कर सकता, वह मैं कर सकता हूं।
            राजा कीर्कित्तध्वज ने महाराज की यह बात सुनकर उन्हें अंगरक्षक के रूप में नियुक्त कर दिया। महाराज ने देखा कि राजा कीर्कित्तध्वज सच में रोजाना एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दान करता है, लेकिन इतनी स्वर्ण मुद्राएं राजा कीर्कित्तध्वज कहां से लाता है, यह जानने की विक्रमादित्य के मन में लालसा हुई।
            महाराज विक्रमादित्य ने देखा था कि राजा कीर्कित्तध्वज रोज शाम को कहीं जाता है और लौटते समय एक थैली में स्वर्ण मुद्राएं लेकर आता है। आखिर कीर्कित्तध्वज स्वर्ण मुद्राओं से भरी थैली कहां से लाता है, यह जानने के लिए एक दिन विक्रमादित्य कीर्कित्तध्वज का पीछा करते हैं।
            विक्रमादित्य नें देखा कि कीर्कित्तध्वज एक मंदिर में जाता है और नहा धोकर वहां पर मौजूद देवी की मूर्ति के सामने बड़े कड़ाहे में तेल डालकर उसमें कूद जाता है। महाराज यह देखकर चौंक जाते हैं। विक्रमादित्य आगे बढ़ने वाले होते ही हैं, लेकिन यह देखकर रूक जाते हैं कि वहां पर दो जोगनियां आती हैं और कीर्कित्तध्वज के शरीर को नोच-नोच कर खा जाती हैं।
            जब जोगनियां चली जाती हैं, तो देवी प्रकट होती है और अमृत की बूंद से कीर्कित्तध्वज को जीवित कर देती हैं। कीर्कित्तध्वज के जीवित होने के बाद देवी कीर्कित्तध्वज को एक लाख स्वर्ण मुद्राएं देती हैं। उसके बाद राजा कीर्कित्तध्वज उन मुद्राएं को पाकर खुश होता है और वहां से चला जाता है।
            राजा कीर्कित्तध्वज के जाने के बाद महाराज विक्रमादित्य ने भी स्नान करके वही प्रक्रिया दोहराई, जो राजा कीर्कित्तध्वज ने की थी। इसके बाद देवी ने प्रकट होकर महाराज विक्रमादित्य को भी जीवित कर दिया और उन्हें स्वर्ण मुद्राएं देनी चाही, लेकिन विक्रमादित्य ने यह कह कर मना कर दिया कि देवी की कृपा ही उनके लिए सब कुछ है।
            इस प्रकार से विक्रमादित्य ने 7 बार इस क्रिया को लगातार दोहराया और सातवीं बार देवी ने उनसे बहुत प्रसन्न होकर उन्हें वरदान मांगने के लिए कहा। तब महाराज ने देवी से उस थैली को मांग लिया, जिसमें से वह एक लाख स्वर्ण मुद्राएं निकाल कर कीर्कित्तध्वज को देती थीं।
            देवी वह थैली महाराज विक्रमादित्य को दे देती हैं, इसके बाद पूरा मंदिर वहां से गायब हो जाता है। दूसरे दिन जब राजा कीर्कित्तध्वज वहां जाता है, तो उसे वहां सिर्फ मैदान ही दिखाई देता है। मंदिर न मिलने पर कीर्कित्तध्वज दुखी हो जाता है। वह सोचता है कि उसकी रोजाना एक लाख स्वर्ण मुद्राएं देने का नियम अब टूट जाएगा। इस विचार के साथ वह अपने महल वापस आ जाता है और उदास होकर बैठ जाता है।
            तभी विक्रमादित्य वहां पहुंच जाते हैं और कीर्कित्तध्वज से उनकी उदासी का कारण पूछते हैं। तब राजा कीर्कित्तध्वज उन्हें सारी बात बताते हैं। राजा कीर्कित्तध्वज की बात सुनकर महाराज विक्रमादित्य उनके हाथों में वह जादूई थैली रख देते हैं, जो उन्होंने देवी से हासिल की थी।
            थैली को पाकर राजा कीर्कित्तध्वज को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ और उन्होंने विक्रमादित्य से उनकी सच्चाई जाननी चाही और पूछा कि आखिर देवी की यह थैली उन्हें कैसे मिली। तब महाराज विक्रमादित्य ने राजा कीर्कित्तध्वज को सारी बात बताई।
            राजा कीर्कित्तध्वज को जब विक्रमादित्य की असलियत पता चली, तो उन्होंने विक्रमादित्य को गले से लगा लिया और कहा कि आप ही इस धरा पर सबसे बड़े दानी है। राजा कीर्कित्तध्वज से विदा लेकर महाराज विक्रमादित्य अपने राज्य वापस आ गए।
            तेरहवीं पुतली से महाराज विक्रमादित्य के दान की बात सुनकर राजा भोज गदगद हो गए और इस कहानी को सुनाकर कीर्तिमती भी पहले वाली पुतलियों की तरह उड़ गई।
कहानी से शिक्षा :-
बच्चों इस कहानी से यही सीख मिलती है कि आप जितनी संयम और दयावान होंगे, आप विश्व में उतने ही ज्यादा प्रसिद्ध होंगे।

सुनयना पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की चौदहवीं कहानी

तेरहवीं पुतली कीर्तिमती की कहानी को सुनकर राजा भोज कुछ देर सोचने लगे और फिर वापस से सिंहासन पर बैठने के लिए आतुर हो गए। तभी उन्हें चौदहवीं पुतली जिसका नाम सुनयना था, उसने राेक लिया। उसने कहा कि राजा क्या आप में भी वो गुण है, जो आपको इस सिंहासन के योग्य बनाता है? जब राजा ने पूछा कि वो कौन-सा गुण है, जो महाराज विक्रमादित्य में था और मुझमें नहीं है। तब चौदहवीं पुतली ने उसे महाराज विक्रमादित्य की कहानी सुनाई।
            महाराज विक्रमादित्य एक सर्व गुण सम्पन्न राजा थे। उनके राज्य में कोई भी दुखी नहीं था और वे छोटे-छोटे नागरिक की समस्या का समाधान भी करते थे। एक दिन उनके दरबार में कुछ किसान आए और प्रार्थना करने लगे कि महाराज हमारे राज्य में जंगल से निकल कर एक शेर आ गया है। वो राेजाना हमारे पशुओं को मारकर खा जाता है। कृप्या आप हमें इस मुसीबत से बचाइए। तब राजा ने उनसे कहा कि चिंता न करें हम कल ही उस शेर को इस राज्य से दूर किसी जंगल की ओर भगा देंगे।
            चूंकि, महाराज विक्रमादित्य बहुत पराक्रमी थे, लेकिन वे किसी भी निहत्थे प्राणी को नहीं मारते थे, इसलिए उन्होंने सोचा कि वे कल उस शेर को किसी दूर जंगल में छोड़ आएंगे। अगले ही दिन वो कुछ सैनिकों के साथ उस शेर की तलाश में निकल पड़े। वह किसी खेत के पास वाली झाड़ियों में छुपा हुआ था। राजा ने देखते ही उसके पीछे अपना घोड़ा दौड़ा दिया। शेर ने जैसे ही घोड़े की टापों को सुना वह जंगल की ओर भागने लगा।
            राजा विक्रमादित्य भी तेजी से उसका पीछा करने लगे और शेर का पीछा करते-करते वह अपने सभी सैनिकों को बहुत पीछे छोड़ देते हैं। वहीं, घना जंगल होने के कारण राजा रास्ता भी भटक जाते हैं। फिर भी वह शेर को ढूंढने का पूरा प्रयास करते हैं और एक जगह रूक कर अनुमान लगाने लगते हैं कि शेर किस ओर गया होगा।
            तभी अचानक शेर ने झाड़ियों के पीछे से छलांग लगाई और राजा के घोड़े को घायल कर दिया। राजा ने शेर के इस वार को अपनी तलवार से रोक लिया और शेर को घायल कर दिया। शेर घायल होकर जंगल में कहीं दूर चला गया।
            अब जबकि विक्रमादित्य का घोड़ा घायल हो गया था और वह रास्ता भी भटक गए थे, इसलिए वो चलते-चलते एक नदी के किनारे पर पहुंचे, जहां पर पानी पीते-पीते घोड़े ने दम तोड़ दिया। राजा को यह देखकर बहुत दुख हुआ। बहुत थका होने के कारण राजा वहीं एक पेड़ के नीचे बैठकर आराम करने लगे। तभी नदी में उन्हें एक शव बहता हुआ दिखाई दिया, जिसे दोनों ओर से कोई पकड़े हुए था। राजा ने गौर से देखा तो उसे पता चला कि शव को एक ओर से बेताल और दूसरी ओर से कापालिक ने पकड़ा हुआ है और दोनों शव पर अपना अधिकार जमा रहे हैं।
            दोनों लड़ते हुए शव को किनारे पर ले आते हैं और राजा को देखकर उससे ही न्याय करने को बोलने लगते हैं और साथ ही शर्त रखते है कि यदि सही न्याय नहीं किया, तो वो राजा का वध कर देंगे। कापालिक ने कहा कि मैं इस शव के द्वारा अपनी साधना करना चाहता हूं और बेताल ने कहा कि मैं इससे अपनी भूख मिटाऊंगा। दोनों की बात सुनकर राजा ने भी कहा कि मैं जो कहूंगा दोनों उस बात को मानेंगे और न्याय के लिए आपको शुल्क देना होगा।
            दोनों ने राजा की बात मान ली और बेताल ने राजा को एक मोहिनी काष्ठ का टुकड़ा दिया, जिसका चंदन घिसकर लगाकर राजा गायब हो सकते थे। कापालिक ने एक बटुआ दिया, जिससे कुछ भी मांगने पर वह दे सकता था। तब राजा ने बेताल से कहा कि तुम मेरे घोड़े से अपनी भूख मिटा सकते हो और कापालिक को उसने शव दे दिया। दोनों ने राजा के न्याय की प्रसंशा की और वहां से चले गए।
            राजा को भूख लगी, तो उसने बटुए से भोजन मांग लिया और जंगली जानवरों से बचने के लिए अदृश्य हो गया। अगली सुबह वह बेतालों का स्मरण कर राज्य की सीमा पर पहुंच गए। रास्ते में राजा को एक भिखारी मिला, तो उन्होंने उसे कापालिक वाला बटुआ दे दिया, ताकि जिससे उसे कभी भोजन की कमी न रहे।
कहानी से शिक्षा:-

हमें इस कहानी से यह सीख मिलती है कि मुसीबत आने पर भी हमको कभी नहीं डरना चाहिए और अपनी बुद्धि का उपयोग करना चाहिए।

सुंदरवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की पन्द्रहवीं कहानी

जब राजा भोज फिर से सिंहासन की ओर बढ़ने लगे, तो पंद्रहवीं पुतली सुंदरवती ने उन्हें रोक दिया। उसने पूछा कि क्या आपके अंदर भी महाराज विक्रमादित्य जैसे ही प्रजा प्रेमी हैं? इतना कहकर पंद्रहवीं पुतली ने एक किस्सा सुनाना शुरू किया।
            राजा विक्रमादित्य के शासन से उज्जैन की पूरी प्रजा खुश थी। सभी को राजा की दानवीरता और दयालुता पर गर्व था। उसी राज्य में महाराज विक्रमादित्य जैसा ही एक दयालु व्यापारी पन्नालाल भी रहता था। वो बिना किसी लालच के लोगों की हर दम मदद करता था। पन्नालाल का एक बेटा भी उसी के जैसा गुणवान था। दोनों बाप-बेटे की अच्छाई के बारे में पूरा उज्जैन जानता था।
            कुछ समय बाद व्यापारी अपने बेटे की शादी के लिए लड़की ढूंढने लगे। तभी एक पंडित ने उन्हें बताया कि समुद्र के दूसरी ओर धनी राम नाम का एक व्यापारी रहता है, जो अपनी सुंदर और गुणवान बेटी के लिए लड़का ढूंढ रहा है। यदि आप कहें, तो उनसे विवाह की बात कर सकता हूं।
            यह सुनते ही पन्नालाल ने पंडित को खर्च के लिए मुद्राएं देकर उसे धनी राम व्यापारी के पास भेज दिया। धनी राम को पंडित का प्रस्ताव अच्छा लगा और उन्होंने शादी के लिए हां कर दी। दोनों परिवार की सहमति के बाद शादी का शुभ मुहूर्त भी तय हो गया।
            विवाह होने के कुछ दिन पहले उज्जैन में बहुत तेज बारिश होने लगी। तब पन्नालाल सेठ ने सोचा कि अगर इसी तरह बारिश होती रही, तो दूसरे राज्य जाकर बेटे की शादी कैसे कराएंगे? अगर वहां नहीं पहुंच पाए, तो बदनामी भी होगी। वह ऐसा सोच ही रहे थे कि पंडित ने पन्नालाल के चेहरे को देखकर उनकी चिंता समझ ली। पंडित से कहा, “सेठ जी, चिंता मत कीजिए। बस आप अपनी सारी समस्या महाराज विक्रमादित्य को जाकर बता दीजिए। उनके पास हवा से भी तेज चलने वाले रथ और घोड़े हैं। वो जरूर आपकी मदद करेंगे।”
            सेठ सीधे महाराज विक्रमादित्य के दरबार पहुंचा और अपने मन की बात हिचकिचाते हुए कही। व्यापारी की परेशानी सुनकर महाराज ने कहा कि हर राजा की असली संपत्ति उसकी प्रजा ही होती है। आप राजमहल से रथ और घोड़े ले जा सकते हैं। व्यापारी के जाते ही विक्रमादित्य ने बेतालों को बुलाया और कहा कि बारिश बहुत तेज है, जाओ जाकर व्यापारी और उसके परिवार की रक्षा करो।
            तभी व्यापारी अपने बेटे की शादी के लिए पूरे परिवार और रिश्तेदारों के साथ रथ लेकर दूसरे राज्य के लिए निकल गए। चलते-चलते वो समुद्र के किनारे पहुंच गए। गहरा पानी देखते ही व्यापारी के मन में हुआ कि अब रथ से समुद्र कैसे पार हो पाएगा। पन्नालाल यह सोच ही रहा था कि देखते ही देखते रथ पानी पर दौड़ने लगा। व्यापारी समय रहते ही पूरे परिवार के साथ विवाह स्थल पर पहुंच गए और धूमधाम से बेटे की शादी करके अपने नगर वापस आ गए।
            नगर पहुंचते ही सबसे पहले पन्नालाल अपने बेटे और बहू को लेकर राज महल पहुंचे और राजा से मुलाकात की। राजा ने उन दोनों को आशीर्वाद देते हुए पन्नालाल को कहा कि आप रथ और घोड़े बच्चों को दे देना। ये सब मेरी तरफ से उनके लिए शादी का तोहफा है।
            इतनी कहानी सुनाकर पंद्रहवीं पुतली भी उड़ गई और राजा भोज महाराज विक्रमादित्य का प्रजा प्रेम का किस्सा सुनकर खुश हो गए।
कहानी से शिक्षा:-
जरूरत पड़ने पर हमेशा दूसरों की मदद करनी चाहिए।

सत्यवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की सोलहवीं कहानी

राजा भोज दोबारा सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़े। तभी 16वीं पुतली सत्यवती सिंहासन से बाहर आई और राजा भोज को गद्दी पर बैठने से रोकते हुए कहा, “ हे राजन, मैं आपको राजा विक्रमादित्य का एक किस्सा सुनाऊंगी। अगर आपको लगता है कि आप भी उतने ही महान हैं, तो इस सिंहासन पर बैठ जाना।” इतना कहकर 16वीं पुलती सत्यवती ने कहानी सुनाना शुरू किया।
            उज्जैन शहर में राजा विक्रमादित्य के शासन काल में उनके न्याय और महानता की चर्चा दूर-दूर तक थी। राजा ने अपने बड़े- बड़े फैसलों और सुझावों के लिए 9 लोगों की समिति बना रखी थी। इन लोगों से ही राजा विक्रमादित्य राज-काज संबंधित सुझाव भी लेते थे। एक बार धन-संपत्ति को लेकर कुछ बात शुरू हुई। तभी पाताल लोक की बात भी सामने आई और एक जानकार ने पाताल लोक के राजा शेषनाग की तारीफ की। उन्होंने बताया कि उनके लोक में सारी सुख-सुविधाएं हैं, क्योंकि वो भगवान विष्णु के खास सेवकों में से एक हैं। शेषनाग का स्थान भगवान के बराबर माना गया है और जो भी उनके दर्शन करता है उसका जीवन धन्य हो जाता है।
            इतना सुनते ही राजा विक्रमादित्य ने पाताल लोक जाकर उनसे मिलने का मन बना लिया। तभी राजा विक्रमादित्य ने अपने बेतालों को याद किया और उनके साथ पाताल लोक पहुंच गए। वहां उन्होंने जानकारों की कही सारी बातों को सही पाया। जब शेषनाग को राजा विक्रमादित्य के आने की खबर मिली, तो वो उनसे मिलने पहुंच गए। राजा विक्रमादित्य ने शेषनाग को नमस्ते करते हुए अपना नाम और पाताल लोक आने का कारण बताया। राजा विक्रमादित्य की बातें सुनकर और उनके व्यवहार से शेषनाग इतने खुश हुए कि राजा विक्रमादित्य को जाते-जाते उपहार के तौर पर चार चमत्कारी रत्न दिए।
            चारों रत्न की अपनी-अपनी खूबी थी। पहले रत्न से मनचाहा धन, दूसरे रत्न से मनचाहे कपड़े व गहने, तीसरे रत्न से किसी भी तरह की पालकी, घोड़ा या रथ और चौथे रत्न से मान-सम्मान मिल सकता था। रत्न मिलने के बाद राजा विक्रमादित्य ने शेषनाग को प्रणाम किया और अपने बेतालों के साथ राज्य लौट गए।
            चारों रत्न लेकर राजा विक्रमादित्य अपने राज्य में प्रवेश कर ही रहे थे कि रास्ते में उनकी मुलाकात एक ब्राह्मण से हुई। ब्राह्मण ने राजा से पाताल लोक की यात्रा के बारे में पूछा। राजा ने वहां हुई सारी बातें बता दी। सब कुछ जानने के बाद अचानक ब्राह्मण ने राजा से कहा कि आपकी हर सफलता में प्रजा का भी सहयोग होता है। ब्राह्मण की इस बात को सुनते ही राजा विक्रमादित्य उनके मन की बात को समझ गए और तुरंत उन्होंने ब्राह्मण को अपनी इच्छा से एक रत्न लेने को कहा। यह देखकर ब्राह्मण थोड़ी उलझन में पड़ गए और उन्होंने कहा कि वो अपने परिवार के हर सदस्य की राय लेने के बाद ही रत्न लेंगे। राजा विक्रमादित्य उनकी बात मान गए।
            फिर ब्राह्मण अपने घर पहुंचे और अपने परिवार में पत्नी, बेटे और बेटी को सारी बात बताई। तीनों ने ही तीन अलग-अलग रत्न लेने की इच्छा जताई। ब्राह्मण की उलझन अब और बढ़ गई थी। परिवार वालों की बात सुनकर ब्राह्मण दोबारा राजा विक्रमादित्य के पास पहुंचे और उन्हें अपनी दुविधा बताई। ब्राह्मण की बात सुनते ही राजा विक्रमादित्य ने हंसते हुए ब्राह्मण को चारों रत्न उपहार के रूप में दे दिए।
            इतना कहते ही 16वीं पुतली सत्यवती ने कहा, “क्या तुम भी इतने दानी हो? अगर तुम्हारा दिल भी राजा विक्रमादित्य जितना बड़ा है, तो सिंहासन पर बैठ जाओ। अगर यह गुण तुम में नहीं है, तो इस सिंहासन पर बैठने के लायक बनकर आओ।” इतना कहकर 16वीं पुतली सिंहासन से उड़ गई और एक बार फिर राजा भोज सिंहासन पर नहीं बैठ पाए।
कहानी से शिक्षा:-
सच्चा राजा, राजनेता या संचालक वही होता है, जो धन-दौलत का लालच न करते हुए अपनी प्रजा और अपने साथ कार्य करने वालों को प्राथमिकता दे।

विद्यावती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की सत्रहवीं कहानी

राजा भोज एक बार फिर सिंहासन पर बैठने की इच्छा लेकर राजमहल पहुंचे। इस बार सिंहासन से 17वीं पुतली विद्यावती बाहर निकली और राजा भोज को सिंहासन पर बैठने से रोक दिया। 17वीं पुतली विद्यावती ने कहा, “सिंहासन पर बैठने से पहले राजा विक्रमादित्य की यह कहानी सुन लो।” इतना कहकर 17वीं पुतली ने विक्रमादित्य का किस्सा सुनाना शुरू किया।
            राजा विक्रमादित्य के राज्य में उनकी प्रजा को किसी बात की कमी नहीं थी। राजा अपनी प्रजा को खूब खुश रखते थे, जब भी उनके दरबार में कोई अपनी परेशानी लेकर आता, तो राजा उसे तुरंत हल कर देते थे। अगर उनकी प्रजा को कोई तंग करता था, तो उसे वो कठोर सजा देते थे। इतना ही नहीं राजा विक्रमादित्य एक आदमी बनकर राज्य का दौरा भी करते थे, इसलिए उनकी प्रजा हमेशा खुश, निडर और संतुष्ट रहती थी।
            एक बार राजा विक्रमादित्य वेश बदलकर अपने राज्य में घूम रहे थे। तभी उन्हें एक झोपड़ी से दो लोगों की आवाज सुनाई दी। उन्होंने सुना कि एक महिला राजा को जाकर कुछ बताने को कह रही थी, लेकिन वो व्यक्ति कह रहा था कि वो अपने स्वार्थ के लिए राजा की जान खतरे में नहीं डाल सकता है।
            इन बातों को सुनते ही राजा समझ गए कि उन्हें कोई समस्या है और राजा भी इससे जुड़े हुए हैं। राजा विक्रमादित्य हमेशा अपनी प्रजा की परेशानियों को हल करना अपना कर्तव्य मानते थे। ऐसे में राजा विक्रमादित्य से रहा नहीं गया और उन्होंने झोपड़ी का दरवाजा खटखटाया। दरवाजे पर आवाज सुनकर ब्राह्मण दंपत्ति ने दरवाजा खोला। उनके दरवाजा खोलते ही राजा विक्रमादित्य ने अपने बारे में बताया और उनकी परेशानी पूछी।
            राजा घर आए हैं जानते ही, दोनों पति-पत्नी डर गए। राजा ने उन्हें हिम्मत और भरोसा दिलाते हुए कहा कि आप अपनी बात बिना डरे कह सकते हैं। तब उन्होंने बताया कि उनकी शादी को बारह साल हो गए हैं, लेकिन उन्हें कोई बच्चा नहीं हुआ।
            इन बारह सालों में उन्होंने संतान सुख के लिए कई व्रत-उपवास, पूजा-पाठ किए, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। फिर एक दिन ब्राह्मण की पत्नी ने सपना देखा कि एक देवी ने उन्हें कहा है कि तीस कोस दूर पूर्व दिशा में एक घने जंगल में कुछ साधु-संन्यासी शिव की आराधना करते हुए भगवान शिव को खुश करने के लिए वो हवन कुंड में अपने अंगों को काटकर डाल रहे हैं। उनकी तरह ही अगर राजा विक्रमादित्य भी वहां जाकर हवन कुंड में अपने अंग काटकर डाल दे, तो भगवान शिव उनसे खुश होकर उनकी इच्छा पूछेंगे। फिर राजा विक्रमादित्य भगवान शिव से उनके लिए बच्चे की मांग करेंगे। ऐसा करने से उन्हें संतान सुख मिल जाएगा।
            इतना सुनते ही राजा विक्रमादित्य ने ब्राह्मण पति-पत्नी को भरोसा दिलाते हुए कहा कि वो ये सब जरूर करेंगे। इतना कहते ही राजा विक्रमादित्य वहां से निकल गए और रास्ते में बेतालों को याद किया। बेताल उनके सामने प्रकट हुए, तो राजा विक्रमादित्य ने उन्हें हवन की जगह पहुंचाने को कहा। राजा जैसे ही उस जगह पहुंचे, तो उन्होंने पाया कि वहां सच में कुछ साधु बैठकर हवन करते हुए अपने अंगों को काटकर हवन में डाल रहा था।
            ये देखते ही राजा विक्रमादित्य भी वहां संन्यासी के बगल में बैठकर उनकी तरह ही अपने अंगों को काटकर हवन कुंड में डालने लगे। जब राजा विक्रमादित्य और साधु सारे जल गए, तो वहां एक शिवगण पहुंचा और सभी साधुओं को अमृत देकर जिंदा कर दिया, लेकिन गलती से उसने राजा विक्रमादित्य को अमृत नहीं दिया।
            जब सारे साधु जिंदा हो गए, तो उनका ध्यान विक्रम पर गया, जो राख बन चुके थे। फिर सभी संन्यासियों ने मिलकर शिव की पूजा की और विक्रम को जिंदा करने की प्रार्थना की। भगवान शिव ने उनकी प्रार्थना सुन ली और राजा विक्रमादित्य को अमृत डालकर जिंदा कर दिया।
            राजा विक्रमादित्य जैसे ही जीवित हुए, तो उन्होंने भगवान शिव के सामने हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर ब्राह्मण दंपत्ति के लिए संतान मांगी। भगवान शिव, राजा विक्रमादित्य के त्याग से खुश हुए और उनकी प्रार्थना सुन ली। इसके कुछ वक्त बाद ही ब्राह्मण दंपत्ति को संतान सुख प्राप्त हुआ।
            ये कहानी सुनाते ही 17वीं पुतली विद्यावती ने राजा भोज से कहा, “क्या तुम में भी है ऐसी हिम्मत और त्याग की भावना? अगर हां, तो तुम इस सिंहासन के योग्य हो।” इतना कहने के बाद 17वीं पुतली विद्यावती उस सिंहासन से उड़ गई।
कहानी से शिक्षा :-
अगर कोई बिना किसी स्वार्थ के त्याग करता है, तो उसका कभी कुछ बुरा नहीं होता।

तारामती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की अठारहवीं कहानी

18वीं बार फिर राजा भोज सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ें। उन्होंने सोचा कि इस बार चाहे कुछ भी हो जाए, वो सिंहासन पर बैठकर ही रहेंगे। तभी सिंहासन से 18वीं पुतली तारामती बाहर निकली और राजा भोज को रोकते हुए बोली, “सिंहासन पर बैठने से पहले राजा विक्रमादित्य का यह किस्सा सुनिए।” उसके बाद पुतली तारामती ने कहानी सुनाना शुरू किया।
            राजा विक्रमादित्य कलाकारों और विद्वानों का खूब सम्मान किया करते थे। उनके दरबार में कई महान कलाकार थे। अन्य राज्यों से भी योग्य कलाकार उनके दरबार आते-जाते रहते थे। एक दिन राजा विक्रमादित्य के दरबार में दक्षिण भारत से एक विद्वान पहुंचे। उनका मानना था कि किसी को धोखा देना सबसे बुरा और गिरा हुआ काम होता है। अपनी बात सही साबित करने के लिए उस विद्वान ने राजा विक्रमादित्य को एक कहानी सुनाई।
            उस विद्वान ने कहा कि सालों पहले आर्यावर्त राज्य में एक राजा राज करता था। उसका भरा-पूरा और सुखी परिवार था। उस राजा ने सत्तर साल की उम्र में एक लड़की से शादी कर ली। वो नई रानी की खूबसूरती से इतना आकर्षित था कि उससे एक पल भी अलग नहीं होता था। राजा चाहता था कि हर वक्त रानी का चेहरा उसके सामने रहे। यहां तक कि राज दरबार में भी वो अपने बगल में नई रानी को बैठाने लगा।
            नई रानी को बगल में बैठा देख कई लोग राजा के पीठ पीछे उनका मजाक बनाने लगे। राजा के महामंत्री को इस बात का बहुत बुरा लगता। एक दिन अकेले में महामंत्री ने राजा को इस बात की जानकारी दी। उसने राजा को कहा कि अगर वो हर पल रानी को अपने सामने देखना चाहते हैं, तो उनकी एक सुंदर तस्वीर बनवाकर राज दरबार में सिंहासन के सामने लगवा लें। जैसे कि राज दरबार में राजा के अकेले बैठने की ही परंपरा सालों से चली आ रही है। ऐसे में रानी को राज दरबार ले जाना उन्हें शोभा नहीं देता है।
            महामंत्री राजा का खास था, इसलिए राजा ने उसकी बात को गंभीरता से लेते हुए अच्छे चित्रकार से रानी की तस्वीर बनाने को कहा। चित्रकार ने भी राजा का आदेश मिलने के बाद जल्दी रानी की तस्वीर बनाई और उसे राज दरबार लेकर चला गया। राज दरबार में जब लोगों ने रानी का चित्र देखा, तो हर कोई चित्रकार की तारीफ करने लगा। उस चित्रकार ने रानी की तस्वीर ऐसी बनाई थी कि वो तस्वीर एकदम असली लगती थी। राजा को भी रानी की तस्वीर बहुत पसंद आई।
            तस्वीर को निहारते हुए राजा की नजर चित्र में रानी की जंघा पर गई। उस जगह पर चित्रकार ने एक तिल बनाया था। राजा को इस बात पर काफी गुस्सा आया। उन्हें लगा कि चित्रकार ने जांघों में तिल कैसे बना दिया। यह सोचकर राजा को बहुत गुस्सा आया और उसने चित्रकार से इसको लेकर सवाल पूछा। जवाब देते हुए चित्रकार ने कहा कि प्रकृति से उसे ऐसा गुण मिला है कि वो छिपी हुई बातें भी जान सकता है। इसी गुण की वजह से उसने यह तिल बनाया। साथ ही तिल से तस्वीर की सुंदरता भी बढ़ती है, इसलिए उसने तिल बनाया है।
            राजा को उसकी बात पर भरोसा नहीं हुआ। उसने बिना देर किए जल्लादों को बुलाया और चित्रकार को जंगल ले जाकर मारने का आदेश दे दिया। साथ ही उसकी आंखें निकालकर राजमहल लाने को भी कहा। भले ही राजा को चित्रकार की बात पर भरोसा नहीं था, लेकिन महामंत्री को चित्रकार की विश्वास था। ऐसे में जंगल ले जाने के बाद मंत्री ने जल्लादों को धन का लालच देकर चित्रकार को रिहा करवा दिया। साथ ही उन्हें यह सुझाव दिया कि सबूत के तौर पर वो किसी हिरण की आंखें ले जाकर राजा को दे दें। इसी बीच महामंत्री चित्रकार को अपने घर ले आया और वो रूप बदलकर महामंत्री के घर में रहने लगा।
            इतना सब होने के कुछ दिनों बाद राजा का बेटा शिकार करने के लिए जंगल गया। तभी उसके पीछे एक शेर पड़ गया। राजकुमार अपनी जान बचाने के लिए एक पेड़ पर जा चढ़ा। पेड़ पर वह बैठा ही था कि उसकी नजर वहां पहले से ही बैठे भालू पर पड़ी। राजकुमार और डर गया। उसको डरा हुआ देखकर भालू ने कहा, “ तुम डरो मत, मैं भी तुम्हारी तरह ही पेड़ पर शेर को देखकर चढ़ा हूं।” इसी बीच भूखा शेर उसी पेड़ के नीचे उन दोनों पर नजरें जमाकर बैठ गया। काफी देर तक पेड़ पर बैठे-बैठे राजकुमार को नींद आने लगी।
            यह देखकर भालू ने राजकुमार को अपनी तरफ आने का इशारा किया और कहा कि वो थोड़ी देर उसका सहारा लेकर सो सकता है। भालू ने राजकुमार से कहा कि जबतक तुम सोओगे मैं तुम्हारी रखवाली करूंगा। फिर तुम जागने के बाद मेरी रखवाली करना और मैं सो जाऊंगा।”
            राजकुमार ने भालू की बात मान ली और वो सो गया। इसी बीच शेर ने भालू को फुसलाते हुए कहा कि वो और भालू जंगल के जानवर हैं और उन दोनों को एक दूसरे का साथ देना चाहिए। मनुष्य कभी जंगल के जानवर के दोस्त नहीं हो सकते हैं। यह सब कहते हुए शेर ने राजकुमार को नीचे गिरा देने की बात कही, लेकिन भालू ने शेर की बात नहीं मानी और कहा कि वो राजकुमार के साथ धोखा नहीं कर सकता है।
            शेर दुखी होकर चुपचाप वहीं बैठा रहा। इतने में कुछ घंटों की नींद पूरी करके राजकुमार उठ गया। उसके उठने के बाद अब भालू की सोने की बारी आई। जैसे ही भालू सोया, तो शेर ने राजकुमार को बहलाने-फुसलाने की कोशिश की। उसने राजकुमार से कहा कि वो भालू को नीचे गिरा दे, तो शेर उसे खाकर अपनी भूख मिटा लेगा और राजकुमार आराम से राजमहल लौट सकेगा।
            राजकुमार शेर की बातों में आ गया और भालू को पेड़ से गिराने की कोशिश करने लगा। इसी बीच भालू की नींद खुल गई और भालू ने राजकुमार को विश्वासघाती बोलकर खूब खरी-खोटी सुनाई। राजकुमार को मन ही मन बहुत बुरा लगा। तभी उसकी आवाज चली गई और वो गूंगा हो गया।
            इसी बीच शेर थक-हारकर जंगल की ओर अन्य शिकार ढूंढ़ने के लिए वहां से चला गया। फिर राजकुमार वापस अपने महल पहुंचा। उसकी आवाज जाने की वजह से वो कुछ नहीं बोल पा रहा था। राजकुमार की आवाज जाने से हर कोई परेशान हो गया। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि और वैद्य राजकुमार को देखने के लिए आएं, लेकिन राजकुमार की इस अवस्था का वो पता नहीं लगा पाएं।
            इतने में महामंत्री अपने घर में छुपे उस चित्रकार को चिकित्सक बनाकर वहां ले आएं। चिकित्सक बने चित्रकार ने राजकुमार के चेहरे के हाव-भाव से सारी बात जान ली। उसने इशारों-इशारों में राजकुमार से पूछा कि क्या मन ही मन वो खुद को दोषी समझकर अपनी आवाज खो बैठा है?
            इशारों में राजकुमार उसकी बात समझ गया और फिर फूट-फूट कर रोने लगा। रोती ही उसकी आवाज वापस आ गई। राजा बहुत हैरान हो गए और उन्होंने सोचा कि यह चिकित्सक राजकुमार का चेहरे देखकर सारी कैसे जान सकता है। तब उस चित्रकार ने कहा कि जैसे एक चित्रकार ने रानी का तिल देख लिया था, वैसे ही मैंने आपके बेटे का चेहरा देखकर ही सब कुछ जान लिया।
            यह सुनते ही राजा को समझ आ गया कि वो कोई चिकित्सक नहीं, बल्कि कलाकार है। राजा ने चित्रकार से अपनी गलती की माफी मांगी और उसे कुछ उपहार देकर सम्मानित किया।
            इतनी कहानी राजा विक्रमादित्य को सुनाकर विद्वान चुप हो गया। राजा विक्रमादित्य इस कहानी को सुनकर बहुत खुश हुए और उनकी बात मान ली कि धोखा देना सबसे बुरा काम है। इसके बाद राजा ने विद्वान को एक लाख सोने के सिक्कों से सम्मानित किया।
            इतना कहते ही अठारहवीं पुतली तारामती ने कहा कि अगर तुम में भी दूसरों की बातों से सहमत होने और दूसरों की बातों का सम्मान करने का गुण है, तो तुम इस सिंहासन पर बैठ सकते हो। इतना कहकर अठारहवीं पुतली तारामती सिंहासन से उड़ गई और राजा भोज एक बार फिर सिंहासन पर बैठते-बैठते रह गए।
कहानी से शिक्षा : –
किसी के साथ कभी धोखा नहीं करना चाहिए। विश्वासघात का अंजाम बहुत बुरा होता है।

रूपरेखा पुतली की कथा - सिंहासन बत्तीसी की उन्नीसवी कहानी

हर बार की तरह इस बार भी राज भोज फिर से सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ते हैं, लेकिन तभी सिंहासन की उन्नीसवीं पुतली रूपरेखा उन्हें रोकती है और राजा विक्रमादित्य के गुणों की चर्चा करते हुए एक कहानी सुनाती है। अब पढ़ें आगे –
            एक समय की बात है, राजा विक्रमादित्य के दरबार में दो तपस्वी अपने सवाल लेकर आए। राजा ने उनसे कहा, “हे साधु! बताइए आप दोनों के मन में कौन-से सवाल हैं।” इस पर एक तपस्वी ने कहा, “हे राजन! मेरा मानना है कि मनुष्य के मन का नियंत्रण उसके सभी कामों पर रहता है। वह कभी भी उसके खिलाफ नहीं जा सकता है।” जबकि, साथ आए दूसरे तपस्वी ने कहा, “नहीं राजन, मेरा मानना है कि मनुष्य का ज्ञान ही उसके सभी कामों को नियंत्रित करता है और मन भी
            ज्ञान के अनुसार ही चलता है।”
राजा विक्रमादित्य ने दोनों तपस्वियों की बातें सुनी और उन्हें कुछ दिन बाद दरबार में आने को कहा। तपस्वियों के जाने के बाद राजा विक्रमादित्य दोनों सवालों के बारे में सोचने लगे और उन्हें ये सवाल बड़े अटपटे लगे।
            एक पल के लिए उन्होंने सोचा कि पहले तपस्वी का कथन सही है। मन सच में चंचल होता है और इंसान उसके वश में आसानी से आ जाता है। दूसरे ही पल राजा ने ज्ञान के बारे में सोचा। उन्हें लगा कि दूसरे तपस्वी की बातें भी सही है। इंसान अपने मन की करने से पहले जरूर सोचता है और तभी निर्णय लेता है, ऐसे तो ज्ञान मन से ज्यादा प्रभावी है।
            इन दोनों उलझे सवालों का जवाब ढूंढने के लिए राजा वेश बदलकर राज्य में निकल पड़े। कुछ दिनों तक घुमने के बाद उनकी नजर एक गरीब युवक पर पड़ी, जो एक पेड़ के नीचे बैठकर आराम कर रहा था। उस युवक के बगल में उसकी बैलगाड़ी खड़ी थी। राजा विक्रमादित्य उस युवक के पास गए और उन्होंने उस युवक को पहचान लिया। पेड़ के नीचे बैठा वह युवक उनके दोस्त सेठ गोपाल दास का छोटा बेटा था।
            राजा को याद आया कि उनका दोस्त तो एक बहुत बड़ा व्यापारी था, जिसने खूब सारा धन कमाया था, लेकिन उनके छोटे बेटे की हालत देखकर महाराजा विक्रमादित्य सोच में पड़ गए। उन्होंने उस युवक से पूछा, “बालक तुम्हारा यह हाल कैसे हो गया? तुम्हारे पिता ने तो मरने से पहले सारा धन तुम दोनों भाइयों में बांट दिया था। तुम्हें तो इतना धन मिला होगा कि तुम्हारी जिंदगी आसानी से कट सकती थी, लेकिन तुम तो गरीब नजर आ रहे हो।”
            इस पर युवक ने कहा, “पिता द्वारा धन बांटने के बाद उसके भाई ने बड़ी समझदारी के साथ धन का उपयोग किया। उसने अपने मन की चंचलता को शांत रखकर जरूरतों के हिसाब से पैसे खर्च किए। साथ ही दिन-रात मेहनत की और अपने व्यापार को आगे बढ़ाया, लेकिन मैंने धन को केवल बुरी आदतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया। मैंने जरा-सी भी सूझबूझ नहीं दिखाई। धन के नशे में मैं इतना चूर हो गया था कि अपने भाई के दिए हुए ज्ञान को समझ न पाया और आज मेरी यह हालत है।”
            युवक ने आगे कहा, “अपने चंचल मन को नियंत्रित न कर पाने के कारण मैं एक साल के अंदर ही कंगाल हो गया। आज मैं दर-दर की ठोकरें खाता फिर रहा हूं, लेकिन मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है।”
            पूरी बात सुनकर राजा विक्रमादित्य ने युवक से पूछा, “क्या दोबारा धन मिलने पर तुम फिर से अपने मन का ही सुनोगे?” युवक ने कहा, “नहीं, अब ऐसा कभी नहीं करूंगा। इन ठोकरों को खाने के बाद यह ज्ञान मुझे मिल गया है कि इंसान ज्ञान के बल पर अपने मन को भी वश में कर सकता है।”
            युवक की बातों को सुनने के बाद राजा ने उसे अपना परिचय दिया। साथ ही कई स्वर्ण मुद्राएं देकर सद्बुद्धि के साथ व्यापार शुरू करने की सलाह दी। इसके बाद राजा वापस अपने महल लौट आए।
            उस युवक से मिलने के बाद राजा विक्रमादित्य को दोनों तपस्वियों द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब मिल गए थे। इसलिए, उन्होंने अगले दिन दोनों को दरबार में बुलवाया। दोनों तपस्वी जब राजा के सामने पेश हुए, तो उन्होंने उन सवालों के जवाब दिए।
            राजा ने कहा, “इंसान का मन बार-बार उसके शरीर पर नियंत्रण पाने की कोशिश करता है, लेकिन उसका ज्ञान उसे कभी हावी होने नहीं देता है। एक ज्ञानी व्यक्ति कभी भी मन के आगे नहीं हारता है और वह हमेशा अपने ज्ञान से ही चलता है।”
            राजा ने उन दोनों तपस्वियों को उस गरीब युवक की कहानी सुनाई और कहा, “अगर मन रथ है, तो ज्ञान उसका सारथी होता है। बिना सारथी के रथ कुछ नहीं है।” राजा की बातें सुनने के बाद दोनों तपस्वियों को अपने सवालों के जवाब मिल गए थे।
            राजा की बातों से प्रसन्न होकर दोनों तपस्वियों ने उन्हें एक खड़िया उपहार में दिया। इस खड़िया की एक खासियत थी कि इससे बनाए गए चित्र रात में जीवित हो सकते थे और उनकी बातों को भी सुना जा सकता है।
            राजा विक्रमादित्य ने यह जानने के लिए कि खड़िया सच्चा है या नहीं, उन्होंने कई चित्र बनाए। खड़िया सचमुच वैसा ही निकला जैसा तपस्वी ने कहा था।
            धीरे-धीरे राजा उसमें मग्न होते चले गए। यहां तक कि उन्हें अपनी रानियों की भी चिंता नहीं थी। कई दिनों बाद जब रानियां उनसे मिलने आईं, तो राजा का ध्यान बंटा। राजा ने जब खुद को देखा, तो जोर से हंस पड़े। इसपर रानियों ने पूछा, ” महाराज आप हंस क्यों रहे हैं?” तब राजा ने कहा, “दूसरों को शिक्षा देने वाला मैं खुद भी मन के आगे विवश हो गया था, लेकिन अब मुझे अपने कर्तव्य का पूरा ज्ञान है।”
            इस कहानी को सुनाने के बाद उन्नीसवीं पुतली रूपरेखा राजा भोज से कहती है, “अगर तुम्हारे पास भी राजा विक्रमादित्य जैसी काबिलियत है, तो ही सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ना।” इतना कहकर पुतली वहां से उड़ जाती है और राजा भोज भी वहां से चले जाते हैं।
कहानी से शिक्षा :-

इस कहानी को पढ़ने के बाद बच्चों हमें यह सीख मिलती है कि इंसान को अपने मन को नियंत्रण में रखना चाहिए और सद्बुद्धि से काम लेना चाहिए। ऐसा नहीं करने वाला इंसान बर्बादी की तरफ ही बढ़ता है।

ज्ञानवती पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की बीसवीं कहानी

उन्नीसवीं पुतली की कहानी सुनने के बाद राजा भोज अगले दिन फिर से सिंहासन बत्तीसी पर बैठने आते हैं, तभी बीसवीं पुतली ज्ञानवती प्रकट होती है और उन्हें रोकती है। ज्ञानवती कहती है, “रुको राजन! इसपर बैठने से पहले राजा विक्रमादित्य के इस गुण के बारे में तो जान लो। इतना कहने के बाद बीसवीं पुतली ज्ञानवती कहानी सुनाना शुरू करती है, जो इस प्रकार है –
            एक समय की बात है, राजा विक्रमादित्य जंगल में भ्रमण के लिए निकले थे। इसी दौरान उन्होंने दो लोगों को आपस में बातें करते सुना, जिनमें से एक ज्योतिषी था। ज्योतिषी ने वहां मौजूद अपने दोस्त से कहा, “मुझे ज्योतिष विद्या का पूरा ज्ञान प्राप्त है। मैं तुम्हारे भूत, वर्तमान और भविष्य के बारे में सब कुछ बता सकता हूं।” लेकिन, उसके दोस्त को उसकी बातों में कोई रुचि नहीं थी। इसलिए, उसने ज्योतिषी से कहा, “तुम्हें मेरे भूत और वर्तमान के बारे में पूरी जानकारी है, इसलिए तुम ये सब बता सकते हो और भविष्य के बारे में जानने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। इसलिए, अच्छा होगा अगर तुम अपने ज्ञान का बखान न करो।”
            ज्योतिषी इतने पर भी नहीं चुप हुआ। उसने आगे कहा, “जंगल में बिखरी हुई इन हड्डियों को देखकर मैं यह बता सकता हूं कि यह कौन से जानवर की है और उसकी मृत्यु कैसे हुई।” इस बात में भी उसके दोस्त ने रुचि नहीं ली।
            इसी दौरान उस ज्योतिषी की नजर जमीन पर छपे पंजों के निशानों पर पड़ी। यह देख उसने कहा, “ये पंजों के निशान किसी राजा के हैं, तुम चाहो तो इसकी जांच कर सकते हो।” ज्योतिषी ने बताया, “राजा-महाराजा के पैरों पर कमल के निशान होते हैं, जो यहां भी हैं। ये बात बिल्कुल सत्य है।” इस पर उसके दोस्त ने सोचा कि क्यों ने इस बार ज्योतिषी की बात की जांच कर ली जाए, नहीं तो वो अपने ज्ञान का बखान ऐसे ही करता रहेगा।
            इसके बाद दोनों दोस्तों ने उन निशानों का पीछा करना शुरू किया और चलते-चलते उसकी समाप्ति तक पहुंचे। वहां उन्होंने एक लकड़हारे को देखा। ज्योतिषी ने उसे अपने पैरों को दिखाने को कहा। जब लकड़हारे ने अपना पैर दिखाया, तो ज्योतिषी चौंक गया। उसके पैरों पर वो कमल के निशान मौजूद थे। ज्योतिषी को लगा कि वह किसी राजा का ही पुत्र होगा, लेकिन शायद वो किसी कारण वश इस काम को करने के लिए मजबूर होगा। इसलिए, उसने लकड़हारे से उसका परिचय पूछा। तब लकड़हारे में बताया कि उसका जन्म लकड़हारे के घर में ही हुआ है। सदियों से उसके यहां यही काम चलता आ रहा है।
            यह सुनने के बाद ज्योतिषी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसका भरोसा ज्योतिष विद्या से उठने लगा। उसका दोस्त भी उसकी इस विद्या का मजाक उड़ाने लगा। इसपर ज्योतिषी ने कहा, “ऐसा कैसे हो सकता है, चलो एक बार चलकर राजा विक्रमादित्य के पैरों को देखते हैं। अगर उनके पैरों पर ये निशान नहीं हुए, तो मैं अपनी हार स्वीकार कर लूंगा और समझूंगा कि ये सब बेकार है।” इस पर उसका दोस्त भी राजी हो गया और दोनों राजमहल की ओर चल दिए।
            राज दरबार पहुंचकर उन्होंने महाराजा विक्रमादित्य से मिलने की इच्छा जताई। राजा ने दोनों को अंदर आने का आदेश दिया। यहां उस ज्योतिष ने राजा से अपना पैर दिखाने का आग्रह किया। राजा विक्रमादित्य ने जब अपने पैर दिखाए, तो ज्योतिषी फिर चकित हुआ। उसके बताए अनुसार राजा के पैरों पर किसी प्रकार के कोई चिन्ह नहीं थे, बल्कि उनका पैर भी आम लोगों जैसा ही था।
            यह देखने बाद उस ज्योतिषी का भरोसा पूरे ज्योतिष विज्ञान से उठ गया। उसने राजा को बताया, “ज्योतिष विद्या के अनुसार, राजा-महाराजा के पैरों पर कमल का निशान होता है, लेकिन यहां ऐसा नहीं है। जबकि जंगल में एक लकड़हारे के पैरों पर ऐसा निशान मौजूद है, जिसका संबंध किसी भी राजघराने से नहीं है।”
            ज्योतिषी की बातों को सुनने के बाद राजा विक्रमादित्य को बहुत हंसी आई। उन्होंने उससे पूछा, “ये सब देखने के बाद क्या तुम्हारा विश्वास ज्योतिष विद्या से उठ गया?” ज्योतिषी ने कहा, “जी महाराज, ये सब कुछ अपनी आंखों से देखने के बाद मेरा अब ज्योतिष विद्या पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं रहा।” इतना कहकर उसने राजा को प्रणाम किया और अपने दोस्त के साथ जाने की आज्ञा ली।
            तभी राजा विक्रमादित्य ने दोनों को रुकने का आदेश दिया। फिर उन्होंने अपने सेवक से एक चाकू मंगवाया और अपने पैरों को कुरेदने लगे। जैसे-जैसे उनके पैरों की नकली चमड़ी हटती गई, कमल का निशान दिखने लगा। यह देखकर ज्योतिषी और उसका दोस्त चकित रह गए। उन्होंने राजा से पूछा, “हे राजन ये सब क्या है।” इस पर राजा ने कहा, “आप बहुत बड़े ज्ञानी हैं। आपके ज्ञान की सीमा बहुत बड़ी है, लेकिन यह तब तक अधूरी रहेगी जब तक आप इसका बखान करते रहेंगे।”
            राजा ने बताया, “जंगल में आप दोनों की बातें मैंने सुन ली थी। वन में आपने जिस लकड़हारे से मुलाकात की वह मैं ही था। यह सब मैंने इसलिए किया ताकि आपको यह समझा सकूं कि एक ज्ञानी को कभी अपने ज्ञान का बखान करने की आवश्यकता नहीं होती।”
            इस कहानी को सुनाने के बाद बीसवीं पुतली ज्ञानवती ने राजा भोज से कहा कि अगर आप भी राजा विक्रमादित्य की तरह गुणवान हैं, तो ही सिंहासन की ओर बढ़ें। इतना कहकर बीसवीं पुतली ज्ञानवती वहां से उड़ जाती है।

कहानी से शिक्षा :-
इस कहानी को पढ़ने के बाद बच्चों हमें यह सीख मिलती है कि इंसान को कभी भी अपने ज्ञान का बखान नहीं करना चाहिए। जिसके पास ज्ञान होता है, वह कभी उसका प्रचार नहीं करता है, बल्कि समय आने पर अपने ज्ञान का इस्तेमाल करता है।

चन्द्रज्योति पुतली की कहानी - सिंहासन बत्तीसी की इक्कीसवीं कहानी

इस बार भी राजा भोज सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ते हैं और तभी इक्कीसवीं पुतली चन्द्रज्योति वहां प्रकट होती है। चन्द्रज्योति राजा भोज को रोकती है और साथ ही उन्हें राजा विक्रमादित्य के गुणों से जुड़ी एक कहानी सुनाती है, जो इस प्रकार है –
            एक बार राजा विक्रमादित्य ने राज्य में एक यज्ञ कराने का सोचा। वह उस यज्ञ में चंद्र देव को भी बुलाना चाहते थे, लेकिन वो इस सोच में पड़ गए कि आखिर चंद्र देव को बुलाने कौन जाएगा। कुछ देर तक सोचने के बाद उन्होंने इस काम के लिए अपने महामंत्री को चुना।
            राजा ने महामंत्री को अपने पास बुलाया और अपने विचार प्रकट किए। तभी एक नौकर दौड़ते-दौड़ते वहां पहुंचा। नौकर को देखकर महामंत्री उसके पास गए। नौकर ने उनके कान में धीरे से कुछ कहा, जिसे सुनने के बाद महामंत्री दुखी हो गए और राजा से विदा लेकर वहां से चले गए।
            महामंत्री के यूं अचानक जाने से राजा को लगा कि कुछ परेशानी की बात है। इस बारे में उन्होंने उस नौकर से पूछा। तब नौकर ने बताया, “महामंत्री की एक ही बेटी है, जो लंबे समय से बीमार है। उसका इलाज कई वैद्य-हकीमों से कराया गया, पर वो ठीक नहीं हुई। दुनिया की हर दवाई और औषधि उसे दी गई, पर उसकी तबीयत और खराब होते जा रही है। आज तो उसकी हालत इतनी खराब हो गई कि वह हिल भी नहीं पा रही है, उसका बचना मुश्किल लग रहा है।”
            इन बातों को सुनकर राजा बहुत दुखी हुए। उन्होंने तुरंत राजवैद्य को बुलवाया और पूछा, “क्या उन्होंने महामंत्री की बेटी का इलाज किया है?” इसपर राजवैद्य ने कहा, “महामंत्री की बेटी को अब बस ख्वांग बूटी से ही बचाया जा सकता है। इसके अलावा, उसका इलाज किसी और चीजों से नहीं हो सकता है। लेकिन यह बूटी बहुत मुश्किल से मिलती है। उसे खोजने में कई महीने लग जाएंगे।”
            यह सुनने के बाद राजा ने वैद्य से पूछा, “वो जगह कौन सी है, जहां यह बूटी मिलती है?” तब राजवैद्य ने बताया, “नील रत्नागिरी की घाटियों में यह बूटी मिलती है, लेकिन इसे खोजना बहुत मुश्किल है। इसका रास्ता बहुत ही कठिन है।” लेकिन राजा इससे डरे नहीं। उन्होंने राज वैद्य से उस बूटी की पहचान पूछी, ताकि वो उसे पहचान सके। राज वैद्य ने बताया, “उस पौधे में आधे नीले और आधे पीले रंग का फूल खिलता है। उसकी पत्तियां लाजवन्ती नामक पौधे की तरह ही होती हैं और छूने से वे सिकुड़ जाती हैं।
            इतना सुनने के बाद राजा यज्ञ को छोड़कर बूटी लाने के लिए निकल गए। उन्होंने तुरंत दोनों बैतालों को याद किया। बैताल उन्हें लेकर नील रत्नागिरी पहुंचे। राजा यहां से अकेले बूटी खोजने के लिए आगे बढ़ गए। तभी उन पर एक शेर ने हमला कर दिया। लेकिन राजा इतने ताकतवर थे कि उन्होंने शेर को मार दिया।
            इसके बाद वो और आगे बढ़े, तभी एक बड़े से सांप ने उन्हें खा लिया। लेकिन राजा ने उसके पेट में चाकू मार कर खुद को बचा लिया। बूटी खोजते-खोजते शाम हो गई। राज ने सोचा कि थोड़ा आराम कर लिया जाए, फिर बूटी खोजेंगे। रात में उन्होंने सोचा कि काश चंद्र देव बूटी खोजने में उनकी मदद कर दें। तभी एक चमत्कार हुआ और चारों तरफ रोशनी फैल गई।
            राजा ने जब उठकर देखा, तो उन्हें वो नीले और पीले रंग का फूल लगा पौधा दिखाई दिया। जब उन्होंने उसकी पत्तियों को छूआ, तो वो सिकुड़ गईं। राजा को समझ आ गया कि यह वही बूटी है, जिसे वो ढूंढने आए थे। उन्होंने तुरंत उस बूटी को अपने झोले में भर लिया। जैसे ही वो जाने लगे, तभी चंद्र देव उनके सामने आ गए और उन्होंने राजा को अमृत दिया। साथ ही कहा कि अब यह अमृत ही महामंत्री की बेटी को ठीक कर सकता है।
            चंद्र देव ने राजा को कहा कि तुम्हारी मदद की भावना देख मैं बहुत खुश हूं। उन्होंने राजा को यह भी बताया कि अगर वो यज्ञ में आएंगे, तो दुनिया के कई भागों में अंधेरा छा जाएगा। इसलिए, वो वहां नहीं आ सकते। इसके बाद उन्होंने राजा को आशीर्वाद दिया और वहां से चले गए। इसके बाद राज तुरंत अपने महामंत्री के घर पहुंचे और अमृत पिलाकर उनकी बेटी को ठीक कर दिया। इसके बाद महामंत्री खुश हो गए और उन्होंने राजा को धन्यवाद दिया।
            कहानी समाप्त होते ही इक्कीसवीं पुतली चन्द्रज्योति ने राजा भोज से कहा कि अगर आप में भी राजा विक्रमादित्य की तरह हिम्मत और अपनी प्रजा के लिए प्रेम की भावना है, तो ही सिंहासन की ओर आगे बढ़ें। यह कहकर चन्द्रज्योति वहां से उड़ जाती है और राजा भोज सोच में पड़ जाते हैं।
कहानी से शिक्षा :-

इस कहानी को पढ़ने के बाद बच्चों हमें यह सीख मिलती है कि हमें हमेशा दूसरों की मदद करनी चाहिए। जैसा इस कहानी में राजा ने मंत्री की बेटी के लिए किया।

बत्तीस पुतलियों के नाम :-

  1. रत्नमंजरी  
  2. चित्रलेखा  
  3. चन्द्रकला  
  4. कामकंदला  
  5. लीलावती  
  6. रविभामा  
  7. कौमुदी  
  8. पुष्पवती  
  9. मधुमालती  
  10. प्रभावती  
  11. त्रिलोचना  
  12. पद्मावती  
  13. कीर्तिमती  
  14. सुनयना  
  15. सुन्दरवती  
  16. सत्यवती  
  17. विद्यावती  
  18. तारावती  
  19. रुपरेखा  
  20. ज्ञानवती  
  21. चन्द्रज्योति  
  22. अनुरोधवती  
  23. धर्मवती  
  24. करुणावती  
  25. त्रिनेत्री  
  26. मृगनयनी  
  27. मलयवती  
  28. वैदेही  
  29. मानवती  
  30. जयलक्ष्मी  
  31. कौशल्या  
  32. रानी रुपवती  

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