विटामिन ए Vitamin A

मेक्काॅलम एवं डेविस ने सन् 1913 में विटामिन ‘ए‘ की खोज की। उन्होंने छोटे चूहों को शुद्ध आहार पर रखा, जिसमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, चर्बी के रूप् एवं खनिज लवण थे। परंतु उनका विकास उचित रूप से नहीं हुआ। लेकिन जब उन्हें मक्खन, वसा और अंडे की चर्बी आहार मेें दी गई तब उनका विकास आरंभ हो गया। इससे यह स्पष्ट हो गया कि मक्खन और अंडे की चर्बी में कुछ ऐसा पदार्थ है जो अन्य में नहीं पाया जाता और यह वृद्धि के लिए अत्यन्त आवष्यक है। उन्होंने इस तत्व को वसा में घुलनषील ‘ए‘ कहा। स्टीनवाक ने अपने अध्ययन (1991) में चूहों को जड़ युक्त सब्जियाॅ वसा-विलेय-बिटामिन के स्त्रोत के रूप में खिलाया। पीले रतालू और गाजर खिलाने से सामान्य वृद्धि हुई और प्रजनन के लिए अज्ञात पदार्थ का भी संररण हुआ। इस तरह उन्होंने केरोटनाॅइड्स की विटाामिन ‘ए‘ की क्रियाषीलता का पता लगाया। 1920 ई. में इसी वैज्ञानिक ने बताया कि मछली के यकृत के तेल में एक ऐसा अंष होता है जिसका साबुनीकरण नहीं किया जा सकता है। 1930 में मूर ने यह खोजा कि जब विटामिन ‘ए‘ की कमी वाले चूहों को केरोटीन खिलाया गया तो उनके यकृत में विटामिन ‘ए‘ पाया गया। 1929 ई. में जर्मन वैज्ञानिक हैनवान चूले चेपलिन ने रवेदार कैराटिन में विटामिन ‘ए‘ की उपस्थिति को बताया। कैरीट ने 1931 ई. में अत्यधिक संतृप्त रूप् में विटामिन ‘ए‘ प्राप्त किया और उसकी संरचना का पता लगाया।

रासायनिक संरचना -

विटामिन ‘ए‘ एक हल्का पीला पदार्थ है जो कार्बन हाइड्रोजन और आँक्सीजन से बना होता है। यह वसा में विलेय और पानी में अविलेय होता है तथा ऊष्मा में स्थायी है, अर्थात् साधारण पकाने के ताप को सह सकता है। आँक्सीकरण के समय यह बहुत आसानी से नष्ट हो जाता है। कैरोटिनयुक्त वर्णक वे यौगिक हैं जो केवल कार्बन और हाइड्रोजन से मिलकर बने हैं। कैरोटिन युक्त वर्णकों कके रबे गहरे लाल रंग के होते है, परन्तु घोल में बहुत पीले हो जाते हैं। कैरोटिन की रासायनिक संरचना ऐसी होती है जिससे विटामिन ‘ए‘ का निर्माण हो जाता है।
विटामिन ‘ए‘ दो रूप मे पहचान लिए गए है -
    विटामिन ‘ए‘ - यह खारे पानी की मछली के यकृत में होता है।
    विटामिन ‘ए‘ - यह ताजे पानी की मछलियों के यकृत में पाया जाता है ।
रासायनिक संरचना में ये दोनों एक दूसरे से बहुत कम भिन्न है, परन्तु शरीर में दोनों समान रूप से कार्य करते है।

विटामिन ‘ए‘ के कार्य -

वृद्धि के विभिन्न अध्ययनों में यह देखा गया है कि विटामिन ‘ए‘ शारीरिक वृद्धि के लिए नितांत आवष्यक हैं। इसके अभाव में वृद्धि में अवरोध होता है। अस्थियों के सामान्य निर्माण के लिए यह आवश्यक है।
    शरीर के उपकला ऊतकों का स्वास्थ्य - शरीर की बाह्य सतह उपकला ऊतकों से आवरित होती है और शरीर की आंतरिक गुहाओं में भी इसका स्तर होता है। विटामिन ‘ए‘ की कमी से उपकला ऊतक कठोर हो जाते है। त्वचा में अत्यधिक सूखापन अपर्याप्त अंतग्र्रहण के कारण हो सकता है। श्लेग्र्रमा झिल्ली समान्य रूप से स्त्राव नहीं कर पाती है और जीवाणुओं के प्रति कम प्रतिरोधी हो जाती है।
    त्वचा का स्वास्थ्य - विटामिन ‘ए‘ की कमी से त्वचा भी प्रभावित हो जाती है। यह शुष्क एवं खुरदरी हो जाती है। चेहरे की त्वचा भी शुष्क हो जाती है। विटामिन ‘ए‘त्वग्वसीय ग्रंथियाॅ को सुचारू रूप से कार्य करने में सहायता करता है। इससे त्वचा चिकनी एवं साफ रहती है।
    नेत्र को स्वस्थ रखना - मन्द प्रकाष में देखने की क्षमता रक्त में विटामिन ‘ए‘ की उपस्थिति के कारण ही होती है। आँखों के दृष्टि पटल के रंजक तत्व रोडोप्सिन और आयोडाप्सिन विटामिन ‘ए‘ एल्उिहाइड और एक विषिष्ट प्रोटीन से बने होते हैं। ये हल्के गुलाबी रंग के होते हैं। दिन की तेज रोषनी में इनका रंग मंद हो जाता है और मंद प्रकाष में गुलाबी हो जाता है। रक्त मे विटामिन ‘ए‘ होने पर ही इस वर्णक का निर्माण होता है। नेत्रों में रोगाणुओं के संक्रमण से बचने की क्षमता भी विटामिन ‘ए‘ द्वारा ही प्राप्त होती है।
    संक्रमण से बचाव - उचित मात्रा में विटामिन ‘ए‘ के प्रयोग से शरीर में रोग-रोधन क्षमता आ जाती है। शरीर को बल, शक्ति एवं स्फूर्ति देने में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहता है। 
  • यह कुछ हार्मोन विषेषकर कोर्टीकोस्टीराॅन बनाने में सहायक होता है। 
  • प्रोटीन को विभक्त करने वाले एन्जाइम की उत्पत्ति में सहायक होता है। 
  • यह श्वेतसार के चयापचय में सहायता करता है। 
  • यह श्वेतसार के चयापचय में सहायता करता है। 
  • यह वृक्क एवं मूत्रनली पर लाभदायक प्रभाव डालता है। 
  • इससे घाव भरने में सुविधा होती है।
  • यह पाचन-क्रिया को ठीक रखना है।

विटामिन ‘ए‘ की कमी से हानि एवं इसके लक्षण -

  • आँखों के रोग - विटामिन ‘ए‘ की कमी से निम्नलिखित आँखों के रोग हो जाते है - 
  • रतौंधी - विटामिन ‘ए‘ की अधिक कमी होने से हल्की रोषनी में स्पष्ट दिखाई नहीं पड़ता है।  
  • जीरोससि कन्जक्टाइवा - इस रोग में आँखो के भीतरी भाग की झिल्ली मोटी, सूखी, रंगीन एवं झुरींदार हो जाती है जिसका मुख्य कारण एपिथीलियल ऊतको का कठोर होना होता है।  
  • जीरोसिस कार्निया - इस रोग में अश्रुगं्रथियाॅ तथा झिल्लियों से आँसू का निकलना बंद हो जाता है जिससे कार्निया शुष्क, प्रकाषहीन, निष्क्रिय एवं धुॅधली हो जाती है।
कन्जक्टासइवा तथा कार्निया में जीरोसिस हो जाने पर अगर उसकी दवा अच्छी तरह नहीं की जाय तो आँखों में एक और परिवर्तन हो जाता है जिसे कीरैटोमेलेषिया कहते है। इससे कर्निया अपारदर्षक हो जाती है, फूल जाती है और उसमें घाव हो जाता है जिससे आँखों की रोषनी समाप्त हो जाती है।

अन्य रोग -

  विटाॅट्स स्पाॅटस - बच्चों में विटामिन ‘ए‘ की कमी से यह होता है। विटाॅट ने इसके लक्षण 1863 ई. में बताये थे। इसमें त्वचा पर भूरे एवं चमकदार धब्बे हो जाते हैं जो परत उतरी हुई कन्जक्टाइवा एपिथीलियम से बने होते है।
    फ्राइनेडर्मा - विटामिन ‘ए‘ की कमी से त्वचा की स्वेद ग्रंथियाॅ अपना काम सुचारू रूप  से नहीं कर पाती है, फलस्वरूप त्वचा खुरदरी एवं रूखी हो जाती है और उस पर छोटे-छोटे दाने निकल जाते हैं जिसे टोड त्वचा कहते है।
    वृक्क में पथरी - विटामिन ‘ए‘ की कमी से वृक्क में पथरी बनने लगती है जिससे मूत्र रूक-रूक कर आने लगता है।
    दाॅतो का कमजोर होना - विटामिन ‘ए‘ की कमी से दाॅतों के एनामेल कमजोर हो जाते है जिससे दाॅतों में गरम या ठंडा पदार्थ लगने से टीम होती है।

विटामिन 'ए' प्राप्ति के साधन -

मछली का तेल, मक्खन, घी एवं दूध इसकी प्राप्ति के अच्छे साधन हैं। हरी पत्तीदार सब्जियाॅ, पीले रंग एवं लाल फल विटामिन ‘ए‘ के अच्छे स्त्रोत है। प्रोविटामिन ‘ए‘ के सबसे महत्वपूर्ण स्त्रोत पीली और पीले रंग की तथा हरे रंग की सब्जियाॅ एवं फल हैं। हरे पदार्थो में पीला कैरोटिन क्लोरोफिल की उपस्थिति से उत्पन्न होता है। कैरोटिन के स्त्रोत गाजर, रतालू, खूबानी, पालक, केले, और टमाटर है। अधिक हरी पत्तेदार सब्जियों में कैरोटिन की मात्रा अधिक रहती है। अधिकतर खाद्यों का आधा या कम कैरोटिन विटामिन ‘ए‘ में रूपान्तरित हो जाता है।
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