संतुलित आहार Balanced Diet

दीर्घ जीवन एवं स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए दैनिक जीवन में संतुलित आहार का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है। भोजन—जीवन के लिए है, न कि जीवन भेाजन के लिए। भेाजन करने का उद्देश्य केवल क्षुधा की संतुष्टि ही नहीं हैं, वरन् शरीर को पूर्णत: स्वस्थ, सबल एवं नीरोग रखना है। स्वस्थ और सबल रहने के लिए पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है। स्वस्थ् रहने के लिए केवल पेट भर भोजन पर्याप्त नहीं होता, बल्कि हमारे भोजन में पोषक तत्वेां की उपयुक्त मात्रा होनी चाहिए। भेाजन क्या, कैसे, कितना और कब करना चाहिए। इन सभी प्रश्नों का ध्यान रखने पर ही मनुष्य स्वस्थ रहकर अपनी शारीरिक, क्रियायें, भली—भॉति कर सकता है। भोजन में सभी पोषक तत्वों—प्रोटीन, कार्बोहाइट्रेड, वसा, खनिज लबण, विटामिन एवं जल—को शारीरिक आवश्यकता के अनुसार उचित अनुपात में होना चाहिए। अगर हम केवल प्रोटीनयुक्त भोज्य पदार्थो कर सेवन करेंगे तो ऊतकों की मरम्मत एवं नई कोशिकाओं का निर्माण तो अवश्य होगा, परंतु कार्बोहाइड्रेट के अभाव में शरीर अपना उचित तापक्रम खो बैठेगा। अगर केवल वसायुक्त भोजन ही सेवन किया जाए तो मूत्र, पोषण एवं ह्दय—संबंधी रोगों के संभावना रहेगी। इसलिए यह आवश्यक है कि निश्चित अनुपात में आयु, व्यवसाय, मौसम,​ लिंग आदि के अनुकूल भोज्य तत्व वाले पदार्थ मे हों। भोजन ऐसा होना चाहिए जिससे हमारी सभाी शारीरिक आवश्यकताएँ पूरी हो।

संतुलित आहार की परिभाषा एवं विशेषता

वह आहार संतुलित होता है जिसमें सभी आहार वर्ग जैसे ऊर्जा देनेवाला, आहार, शरीर संवर्धन करनेवाला आहार और सुरक्षात्मक आहार, शरीर संवर्धन, करनेवाला आहार और सुरक्षात्मक आहार उचित परिमाण में हो, जिससे की व्यक्ति को सभी पोषक तत्व न्यूनतम मात्रा में प्राप्त हो जायें। उप​रोक्त परिभाषा से यह ज्ञात होता है कि वह आहार जिसमें शरीर की समस्त पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए सभी पोषक तत्व उचित एवं अनुपात में पाए जाते है। संतुलित आहार कहलाता है। व्यवसाय — अधिक शारीरिक परिश्रम करने वाले व्यक्तियेां (कुली, मजदूर, लकड़हारा, धोबी रिक्शाचालक) की शक्ति एवं गर्मी अधिक व्यय होती है। इसलिए उन्हें अधिक कैलोरी ताप की आवश्यकता होती है। ऐसे व्यक्तियों को भेाजन में अधिक कार्बोहाइड्रेट की आवश्यकता होती है। आराम से बैठकर एवं मस्तिष्क से काम करने वालों (डॉक्टर, व​कील, टाइपिस्ट) को प्रोटीन अधिक एवं कम कार्बोहाइड्रेट की आवश्यकता होती है। उन्हें अधिक परिश्रम करने वालों की अपेक्षा कम भोजन की आवश्यकता होती है।
शारीरिक बनावट या आकार — लम्बे या मोटे शरीर के लोगों को छोटे एवं दुबले लोगों की अपेक्षा अधिक भोजन की आवश्यकता होती है। शरीर भार पर भोजन की मात्रा अधिक निर्भर करती है। लम्बे व्यक्ति के शरीर से ताप का अपव्यय नाटे व्यक्ति की अपेक्षा अधिक होता है। इसलिए ऐसे व्यक्ति को अधिक भेाजन की आवश्यकता होती है। लिंग — स्त्रियों को पुरूषों की अपेक्षा कम भोजन की आवश्यकता होती है, क्योकि स्त्रियों की लंम्बाई एवं भार पुरूषों की अपेक्षा कम होता है। उन्हें शारीरिक परिश्रम कम करना पड़ता है ।परंतु गर्भावस्था एवं स्तनपान अवस्था में उन्हें अधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है । आयु—बच्चों को युवा एवं प्रौढ़ व्यक्तियों की अपेक्षा कम भोजन की आवश्यकता होती है, क्योकि वे अधिक क्रियाशील होते हैं एवं उनका शारीरिक विकास होता है। भेाजन से उन्हें केवल शक्ति् एवं गर्मी ही प्राप्त नहीं होती, बल्कि उनका शारीरिक विकास भी होता है। खेल—कूद में अधिक शक्ति का हा्स होता है। एक 14 वर्ष का बालक एक युवा के बराबर भोजन करता है। उनके भेाजन में निर्माणक तत्व (प्रोटीन) की अधिक आवश्यकता होती है। बाल्यावस्था एवं वृद्धावस्था में शारीरिक संवेदनशीलता बढ़ जाने के कारण सुरक्षात्मक तत्वों की आवश्यकता होती हैं, क्योकि शारीरिक परिश्रम कम होता है एवं पाचन—क्रिया कमजोर हो जाती है, इसलिए ऊर्जा की कम आवश्यकता होती है।
जलवायु — ठंडे प्रदेशो में रहनेवालो को गर्म प्रदेशो की अपेक्षा अधिक भोजन की आवश्यकता होती है, क्योकि शरीर ताप को बढ़ाने के लिए उन्हें अधिक कैलोरियों की आवश्यकता रहती है। उनके भेाजन में वसा प्रोटीन की मात्रा अधिक होनी चाहिए। ऊष्णता—प्रधान देशों में कार्बोहाइड्रेट अधिक प्रयोग किया जाता है। जाड़े के मौसम में भूख अधिक लगती है, अधिक भोजन किया जाता है एवं शरीर भार भी बढ़ जाता है। इसलिए ऐसे मौसम में घी, मक्खन, मेवे आदि अधिक खाने की इच्छा होती है। गर्मी के मौसम में ताप उत्पन्न करने वाले भोजन कम पचते है, भूख कम लगती है एवं शरीर का भार कम हो जाता है। सर्दियों में मौसम में ऊष्मा के रूप में ऊर्जा लेने के कारण ही अधिक भोजन की आवश्यकता होती है।

संतुलित भोजन नहीं लेने से हानियॉ —

संतुलित आहार नहीं लेने से निम्नलिखित हानियॉ होती है —
1. शरीर में रोगरोधन — क्षमता क्षीण हो जाती है जिस कारण अनेक प्रकार के रोगों के होने की संभावना रहती है।
2. शरीर की मांसपेशियॉ उचित रूप से विकसित नहीं हो पाती हैं।
3. भूख कम लगती है। हर समय आलस्य, थकान एवं नींद आती है।
4. शरीर दुर्बल एवं पीला दिखाई देने लगता है ।
5. थोड़ा भी शारीरिक परिश्रम करने के बाद अधिक थकान का अनुभव होने लगता है।
6. आँखे पीली—पीली दिखाई देती है एवं कमजोरी का अनुभव होने लगता है।
7. शरीर का पूर्ण विकास नहीं हो पाता हे।
8. संतुलित आहार के आभाव में बच्चों का मानसिक विकास अवरूद्ध हो जाता है।
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401 से 500 तक गिनती

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विटामिन ए Vitamin A

मेक्काॅलम एवं डेविस ने सन् 1913 में विटामिन ‘ए‘ की खोज की। उन्होंने छोटे चूहों को शुद्ध आहार पर रखा, जिसमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, चर्बी के रूप् एवं खनिज लवण थे। परंतु उनका विकास उचित रूप से नहीं हुआ। लेकिन जब उन्हें मक्खन, वसा और अंडे की चर्बी आहार मेें दी गई तब उनका विकास आरंभ हो गया। इससे यह स्पष्ट हो गया कि मक्खन और अंडे की चर्बी में कुछ ऐसा पदार्थ है जो अन्य में नहीं पाया जाता और यह वृद्धि के लिए अत्यन्त आवष्यक है। उन्होंने इस तत्व को वसा में घुलनषील ‘ए‘ कहा। स्टीनवाक ने अपने अध्ययन (1991) में चूहों को जड़ युक्त सब्जियाॅ वसा-विलेय-बिटामिन के स्त्रोत के रूप में खिलाया। पीले रतालू और गाजर खिलाने से सामान्य वृद्धि हुई और प्रजनन के लिए अज्ञात पदार्थ का भी संररण हुआ। इस तरह उन्होंने केरोटनाॅइड्स की विटाामिन ‘ए‘ की क्रियाषीलता का पता लगाया। 1920 ई. में इसी वैज्ञानिक ने बताया कि मछली के यकृत के तेल में एक ऐसा अंष होता है जिसका साबुनीकरण नहीं किया जा सकता है। 1930 में मूर ने यह खोजा कि जब विटामिन ‘ए‘ की कमी वाले चूहों को केरोटीन खिलाया गया तो उनके यकृत में विटामिन ‘ए‘ पाया गया। 1929 ई. में जर्मन वैज्ञानिक हैनवान चूले चेपलिन ने रवेदार कैराटिन में विटामिन ‘ए‘ की उपस्थिति को बताया। कैरीट ने 1931 ई. में अत्यधिक संतृप्त रूप् में विटामिन ‘ए‘ प्राप्त किया और उसकी संरचना का पता लगाया।

रासायनिक संरचना -

विटामिन ‘ए‘ एक हल्का पीला पदार्थ है जो कार्बन हाइड्रोजन और आँक्सीजन से बना होता है। यह वसा में विलेय और पानी में अविलेय होता है तथा ऊष्मा में स्थायी है, अर्थात् साधारण पकाने के ताप को सह सकता है। आँक्सीकरण के समय यह बहुत आसानी से नष्ट हो जाता है। कैरोटिनयुक्त वर्णक वे यौगिक हैं जो केवल कार्बन और हाइड्रोजन से मिलकर बने हैं। कैरोटिन युक्त वर्णकों कके रबे गहरे लाल रंग के होते है, परन्तु घोल में बहुत पीले हो जाते हैं। कैरोटिन की रासायनिक संरचना ऐसी होती है जिससे विटामिन ‘ए‘ का निर्माण हो जाता है।
विटामिन ‘ए‘ दो रूप मे पहचान लिए गए है -
    विटामिन ‘ए‘ - यह खारे पानी की मछली के यकृत में होता है।
    विटामिन ‘ए‘ - यह ताजे पानी की मछलियों के यकृत में पाया जाता है ।
रासायनिक संरचना में ये दोनों एक दूसरे से बहुत कम भिन्न है, परन्तु शरीर में दोनों समान रूप से कार्य करते है।

विटामिन ‘ए‘ के कार्य -

वृद्धि के विभिन्न अध्ययनों में यह देखा गया है कि विटामिन ‘ए‘ शारीरिक वृद्धि के लिए नितांत आवष्यक हैं। इसके अभाव में वृद्धि में अवरोध होता है। अस्थियों के सामान्य निर्माण के लिए यह आवश्यक है।
    शरीर के उपकला ऊतकों का स्वास्थ्य - शरीर की बाह्य सतह उपकला ऊतकों से आवरित होती है और शरीर की आंतरिक गुहाओं में भी इसका स्तर होता है। विटामिन ‘ए‘ की कमी से उपकला ऊतक कठोर हो जाते है। त्वचा में अत्यधिक सूखापन अपर्याप्त अंतग्र्रहण के कारण हो सकता है। श्लेग्र्रमा झिल्ली समान्य रूप से स्त्राव नहीं कर पाती है और जीवाणुओं के प्रति कम प्रतिरोधी हो जाती है।
    त्वचा का स्वास्थ्य - विटामिन ‘ए‘ की कमी से त्वचा भी प्रभावित हो जाती है। यह शुष्क एवं खुरदरी हो जाती है। चेहरे की त्वचा भी शुष्क हो जाती है। विटामिन ‘ए‘त्वग्वसीय ग्रंथियाॅ को सुचारू रूप से कार्य करने में सहायता करता है। इससे त्वचा चिकनी एवं साफ रहती है।
    नेत्र को स्वस्थ रखना - मन्द प्रकाष में देखने की क्षमता रक्त में विटामिन ‘ए‘ की उपस्थिति के कारण ही होती है। आँखों के दृष्टि पटल के रंजक तत्व रोडोप्सिन और आयोडाप्सिन विटामिन ‘ए‘ एल्उिहाइड और एक विषिष्ट प्रोटीन से बने होते हैं। ये हल्के गुलाबी रंग के होते हैं। दिन की तेज रोषनी में इनका रंग मंद हो जाता है और मंद प्रकाष में गुलाबी हो जाता है। रक्त मे विटामिन ‘ए‘ होने पर ही इस वर्णक का निर्माण होता है। नेत्रों में रोगाणुओं के संक्रमण से बचने की क्षमता भी विटामिन ‘ए‘ द्वारा ही प्राप्त होती है।
    संक्रमण से बचाव - उचित मात्रा में विटामिन ‘ए‘ के प्रयोग से शरीर में रोग-रोधन क्षमता आ जाती है। शरीर को बल, शक्ति एवं स्फूर्ति देने में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहता है। 
  • यह कुछ हार्मोन विषेषकर कोर्टीकोस्टीराॅन बनाने में सहायक होता है। 
  • प्रोटीन को विभक्त करने वाले एन्जाइम की उत्पत्ति में सहायक होता है। 
  • यह श्वेतसार के चयापचय में सहायता करता है। 
  • यह श्वेतसार के चयापचय में सहायता करता है। 
  • यह वृक्क एवं मूत्रनली पर लाभदायक प्रभाव डालता है। 
  • इससे घाव भरने में सुविधा होती है।
  • यह पाचन-क्रिया को ठीक रखना है।

विटामिन ‘ए‘ की कमी से हानि एवं इसके लक्षण -

  • आँखों के रोग - विटामिन ‘ए‘ की कमी से निम्नलिखित आँखों के रोग हो जाते है - 
  • रतौंधी - विटामिन ‘ए‘ की अधिक कमी होने से हल्की रोषनी में स्पष्ट दिखाई नहीं पड़ता है।  
  • जीरोससि कन्जक्टाइवा - इस रोग में आँखो के भीतरी भाग की झिल्ली मोटी, सूखी, रंगीन एवं झुरींदार हो जाती है जिसका मुख्य कारण एपिथीलियल ऊतको का कठोर होना होता है।  
  • जीरोसिस कार्निया - इस रोग में अश्रुगं्रथियाॅ तथा झिल्लियों से आँसू का निकलना बंद हो जाता है जिससे कार्निया शुष्क, प्रकाषहीन, निष्क्रिय एवं धुॅधली हो जाती है।
कन्जक्टासइवा तथा कार्निया में जीरोसिस हो जाने पर अगर उसकी दवा अच्छी तरह नहीं की जाय तो आँखों में एक और परिवर्तन हो जाता है जिसे कीरैटोमेलेषिया कहते है। इससे कर्निया अपारदर्षक हो जाती है, फूल जाती है और उसमें घाव हो जाता है जिससे आँखों की रोषनी समाप्त हो जाती है।

अन्य रोग -

  विटाॅट्स स्पाॅटस - बच्चों में विटामिन ‘ए‘ की कमी से यह होता है। विटाॅट ने इसके लक्षण 1863 ई. में बताये थे। इसमें त्वचा पर भूरे एवं चमकदार धब्बे हो जाते हैं जो परत उतरी हुई कन्जक्टाइवा एपिथीलियम से बने होते है।
    फ्राइनेडर्मा - विटामिन ‘ए‘ की कमी से त्वचा की स्वेद ग्रंथियाॅ अपना काम सुचारू रूप  से नहीं कर पाती है, फलस्वरूप त्वचा खुरदरी एवं रूखी हो जाती है और उस पर छोटे-छोटे दाने निकल जाते हैं जिसे टोड त्वचा कहते है।
    वृक्क में पथरी - विटामिन ‘ए‘ की कमी से वृक्क में पथरी बनने लगती है जिससे मूत्र रूक-रूक कर आने लगता है।
    दाॅतो का कमजोर होना - विटामिन ‘ए‘ की कमी से दाॅतों के एनामेल कमजोर हो जाते है जिससे दाॅतों में गरम या ठंडा पदार्थ लगने से टीम होती है।

विटामिन 'ए' प्राप्ति के साधन -

मछली का तेल, मक्खन, घी एवं दूध इसकी प्राप्ति के अच्छे साधन हैं। हरी पत्तीदार सब्जियाॅ, पीले रंग एवं लाल फल विटामिन ‘ए‘ के अच्छे स्त्रोत है। प्रोविटामिन ‘ए‘ के सबसे महत्वपूर्ण स्त्रोत पीली और पीले रंग की तथा हरे रंग की सब्जियाॅ एवं फल हैं। हरे पदार्थो में पीला कैरोटिन क्लोरोफिल की उपस्थिति से उत्पन्न होता है। कैरोटिन के स्त्रोत गाजर, रतालू, खूबानी, पालक, केले, और टमाटर है। अधिक हरी पत्तेदार सब्जियों में कैरोटिन की मात्रा अधिक रहती है। अधिकतर खाद्यों का आधा या कम कैरोटिन विटामिन ‘ए‘ में रूपान्तरित हो जाता है।
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कैल्शियम Calcium

यह अकार्बनिक खनिज पदार्थ है। साधारण शब्दों में इसे चूना भी कहते हैं। कैल्शियम की मात्रा शारीरिक वजन की 1.5 से 2 प्रतिशत तक होती है जिसमें 99 प्रतिशत अस्थियों एवं दॉतों में और शेष 1 प्रतिशत रक्त, विभिन्न द्रव एवं ऊतको में रहता है। कुछ खनिज तत्वों का 1/2 भाग कैल्शियम ही रहता है। नवजात शिशु के शरीर में इसकी मात्रा बहुत ही कम होती है क्योकि उनकी कोमल अस्थियॉ खनिज लवणों को अवशोषित नहीं कर पाती हैं। अवस्था बढ़ने के साथ—साथ इनका संग्रह भी शरीर में अधिक होता है। एक औसत व्यक्ति के शरीर 1000 — 1200 ग्राम तक कैल्श्यिम रहता है जबकि शिशु के शरीर में जन्म के समय लगभग 27.5 ग्राम रहता है। 

कैल्श्यिम के कार्य या उपयोगिता

कैल्शियम फॉस्फोरस के साथ हमारी अस्थ्यिों, दॉतों, एवं अन्य अंगों में पाया जाता है। यह दॉतों को स्वस्थ, शक्तिशाली और मांसपेशियों को क्रियाशील बनाए रखता है। अस्थियों में 60 — 70 प्रतिशत कैल्शियम फॉस्फोरस पाया जाता है। यह सोडियम पोटाशियम एवं मैग्नीशियम के साथ मांसपेशियों में संकुचन पैदा करता है जिससे हमारे हाथ, पॉव, गर्दन कमर एवं अन्य सभी अंगों में हरकत हो पाती है।

  • यह हृदय की मांसपेशियों में भी संकुचन के कार्य में सहायक होता हैं 
  • यह रक्त को थक्का (Coagulation) के रूप में जमाने में सहायता करता है।  
  • आंतरिक ग्रंथियों के स्त्राव निर्माण में उत्प्रेरक का कार्य करता है और एन्जाइम निर्माण में भी सहायता करता है । 
  • यह अम्ल और क्षार की मात्रा को शरीर में संतुलित रखता है।  
  • यह कोशिका झिल्ली की पारगम्यता (Permeability) बनाये रखने में सहायक होता है।

अभी परीक्षणों से यह ज्ञात हुआ है कि शरीर में पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम रहने से परमाणु परीक्षण के रेडियेशन (Radiation) से निकले स्ट्रोनियम (Strontium) अस्थियेां में जमने नहीं पाता। सट्रोनियम रेडियेशन अस्थियों को कमजोर बना देता है।

    कैल्शियम अस्थियों में संग्रहित रहता है और उसकी अतिरिक्त मात्रा अस्थियों के अंतिम सिरों में एकत्रित हो जाती है जो रक्त में कैल्शियम की कमी होने पर पहुॅच जाती है।

    यह शरीर वृद्धि करता है। अस्थियों में वृद्धि कैल्शियम से है और अस्थियों में वृद्धि होने से शरीर में वृद्धि होती है।
    यह रक्त शिराओं में रक्त के अभिसरंचरण (Permeation) के लिए आवश्यक है।

कैल्शियम प्राप्ति के साधन —

कैल्शियम दूध में अकार्बनिक लवण के रूप में विद्यमान रहता है। दूध और उससे बनी वस्तुएँ यथा मक्खन निकाला दूध, पाउडर दूध, सूखा दूध, मट्ठा कैल्शियम प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है। दूध में कैल्शियम और फॉस्फोरस का ठीक अनुपात रहता है, फलत: कैल्शियम का शोषण अच्छी तरह होता रहता है। दूध में लैक्टोज की मात्रा रहती है जो कैल्शियम को शोषण में मदद करता है। बच्चों को अधिक दूध की आवश्यकता पड़ती है। आ​हार के साथ दूध लेने से ही कैल्शियम की पूर्ति शरीर में होती है। इसके अतिरिक्त पालक, हरी पत्तीदार सब्जियॉ मेथी साग, बथुआ, पत्तागोभी, फूलगोभी, शलजम, मछली तिल, सूखा नारियल एवं रागी इसकी प्राप्ति के अच्छे साधन है।

कैल्शियम की कमी के लक्षण

कैल्शियम की कमी से अस्थियों एवं दॉतों में कैल्शियम जमने की क्रिया नहीं हो पाती है, फलत: इनके बढ़ने, मजबूत होने एवं ठोस होने में कमी आ जाती है। अस्थियॉ निर्बल हो जाने से टूटने एवं विकृत होने की संभावना रहती है।
    शरीर में फॉस्फोरस एवं विटामिन 'डी' की कमी होने से भी कैल्शियम की कमी हो जाती है, जिससे बच्चों में रिकेट्स नामक रोग हो जाता है। इस रोग में बच्चों के शरीर की वृद्धि रूक जाती है, मांसपेशियॉ ढीली हो जाती है, टांगो की अस्थियॉ टेढी हो जाती है एवं शीघ्र टूटने वाली हो जाती है। बच्चों का माथा ललाट के पास बाहर निकला मालूम होता है।

  • वृद्धावस्था में कैल्शियम की कमी से जोड़ो में दर्द होना शुरू हो जाता हैं कैल्शियम की कमी से अस्थियॉ दुर्बल हो जाती है। इस रोग को आस्टोपोरोसिस कहते है। इसमें कैल्शियम की कमी हो जाती है। जिससे अस्थियॉ दुर्बल हो जाती है और साधारण सी दुर्घटना होने पर चटक जाती है। 
  • प्रौढ़ावस्था में कैल्शियम की कमी से आँस्टोमलेशिया नामक रोग हो जाता हैं । 
  • कैल्शियम की कमी से रक्त जमने में काफी समय लगता है और रक्तस्त्राव शीघ्र नहीं रूकता।  
  • रक्त में कैल्शियम की कमी से मांसपेशियॉ के संकुचन लगते हैं और उनमें ऐंठन होने लगती है जिसे टिटैनी रोग कहते है। 
  • कैल्शियम की कमी से बच्चों को कभी — कभी दौरे पड़ने लगते हैं।

कैल्शियम की अधिकता से हानियॉ —

बच्चों में कैल्शियम की अधिकता होने से भूख कम हो जाती है, वमन होने लगती है, कब्ज हो जाती है, मांसपेशियॉ ढीली हो जाती है एवं रक्त में कैल्शियम की मात्रा बढ़ जाती है एवं रक्त में कैल्शियम की मात्रा बढ़ जाने से रक्त में यूरिया, प्लाज्मा एवं कॉलेस्ट्राल की मात्रा बढ़ जाती है। जो बच्चे विटामिन 'डी' अधिक लेते है उनमें कैल्शियम की अधिकता हो जाती है। प्रौढावस्था में क्षारीय तत्वों का अधिक सेवन करने से शरीर में कैल्शियम की मात्रा बढ़ जाती है। इसस तीव्र रक्तचाप, अमाशय एवं आँतों में रक्तस्त्राव हो जाता है। कैल्श्यिाम की अधिकता से गुर्दे में पथरी होने की संभावना रहती है।

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301 से 400 तक गिनती

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301 से 350 तक गिनती

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201 से 300 तक गिनती

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101 से 200 तक गिनती

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251 से 300 तक गिनती


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 274
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 279
289
299
260
 270
280
 290
300
Share:

201 से 250 तक गिनती


201
211
221 
231
 241
202
212
222
 232
242
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 219
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239
249
210
 220
230
 240
250
Share:

151 से 200 तक गिनती


 151
161
171 
181
 191
152
162
172
 182
192
 153
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183
193
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 174
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 155
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 175
185
 195
 156
 166
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196
157
167
 177
 187
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198
159
 169
 179
189
199
160
 170
180
 190
 200
Share:

101 से 150 तक गिनती


 101
111 
121 
131
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102
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122
 132
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110
 120
130
 140
 150
Share:

51 से 100 तक गिनती


 51
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 90
 100
Share:

1 से 50 तक गिनती


 1
11 
21 
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 41
 2
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 10
 20
 30
 40
 50
Share:

1 से 100 तक सीधी गिनती

 111 21 31 41 51 61 71 81 91 
 2 12 22 32 42 52 62 72 82 92
 3 13 23 33 43 53 63 73 83 93
 4 14 24 34 44 54 64 74 84 94
 5 15 25 35 45 55 65 75 85 95
 6 16 26 36 46 56 66 76 86 96
 7 17 27 37 47 57 67 77 87 97
 8 18 28 38 48 58 68 78 88 98
 9 19 29 39 49 59 69 79 89 99
 10 20 30 40 50 60 70 80 90 100
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