गौतम बुद्ध और अंगुलिमाल
मगध देश के जंगलों में एक खूंखार डाकू का राज हुआ करता था। वह डाकू जितने भी लोगों की हत्या करता था, उनकी एक-एक उंगली काटकर माला की तरह गले में पहन लेता। इसी वजह से डाकू को सभी अंगुलिमाल के नाम से जानते थे।
मगध देश के आसपास के सभी गांवों में अंगुलिमाल का आतंक था। एक दिन उसी जंगल के पास के ही एक गांव में महात्मा बुद्ध पहुंचे। साधु के रूप में उन्हें देखकर हर किसी ने उनका अच्छी तरह स्वागत किया। कुछ देर उस गांव में रुकते ही महात्मा बुद्ध को थोड़ा अजीब-सा लगा। तभी उन्होंने लोगों से पूछा, ‘आप सभी लोग इतने डरे और सहमे-सहमे से क्यों लग रहे हैं?’
सबने एक-एक करके अंगुलिमाल डाकू द्वारा की जा रही हत्याओं और उंगुली काटने के बारे में बताया। सभी दुखी होकर बोले कि जो भी उस जंगल की तरफ जाता है, उसे पकड़कर वो डाकू मार देता है। अब तक वो 99 लोगों को मार चुका है और उनकी उंगुली को काटकर उन्हें गले में माला की तरह पहनकर घूमता है। अंगुलीमाल के आतंक की वजह से हर कोई अब उस जंगल के पास से गुजरने से डरता है।
इन सभी बातों को सुनने के बाद भगवान बुद्ध ने उसी जंगल के पास जाने का फैसला ले लिया। जैसे ही भगवान बुद्ध जंगल की ओर जाने लगे, तो लोगों ने कहा कि वहां जाना खतरनाक हो सकता है। वो डाकू किसी को भी नहीं छोड़ता। आप बिना जंगल गए ही हमें किसी तरह से उस डाकू से छुटकारा दिला दीजिए।
भगवान बुद्ध सारी बातें सुनने के बाद भी जंगल की ओर बढ़ते रहे। कुछ ही देर में बुद्ध भगवान जंगल पहुंच गए। जंगल में महात्मा के भेष में एक अकेले व्यक्ति को देखकर अंगुलिमाल को बड़ी हैरानी हुई। उसने सोचा कि इस जंगल में लोग आने से पहले कई बार सोचते हैं। आ भी जाते हैं, तो अकेले नहीं आते और डरे हुए होते हैं। ये महात्मा तो बिना किसी डर के अकेले ही जंगल में घूम रहा है। अंगुलिमाल के मन में हुआ कि अभी इसे भी खत्म करके इसकी उंगली काट लेता हूं।
तभी अंगुलिमाल ने कहा, ‘अरे! आगे कि ओर बढ़ते हुए कहां जा रहा है। ठहर भी जा अब।’ भगवान बुद्ध ने उसकी बातों को अनसुना कर दिया। फिर गुस्से में डाकू बोला, ‘मैंने कहा रुक जाओ।’ तब भगवान ने उसे पलटकर देखा कि लंबा-चौड़ा, बड़ी-बड़ी आंखों वाला आदमी जिसके गले में उंगलियों की माला थी, वो उन्हें घूर रहा था।
उसकी तरफ देखने के बाद बुद्ध दोबारा से चलने लगे। गुस्से में तमतमाते हुए अंगुलिमाल डाकू उनके पीछे अपनी तलवार लेकर दौड़ने लगा। डाकू जितना भी दौड़ता, लेकिन उन्हें पकड़ नहीं पाता। दौड़-दौड़कर वो थक गया। उसने दोबारा कहा, ‘रुक जाओ, वरना मैं तुम्हें मार दूंगा और तुम्हारी उंगली काटकर मैं 100 लोगों को मारने की अपनी प्रतीज्ञा पूरी कर लूंगा।’
भगवान बुद्ध बोले कि तुम अपने आप को बहुत शक्तिशाली समझते हो न, तो पेड़ से कुछ पत्तियां और टहनियां तोड़कर ले आओ। अंगुलिमाल ने उनका साहस देखकर सोचा कि जैसा ये कह रहा है कर ही लेता हूं। वो थोड़ी देर में पत्तियां और टहनियां तोड़कर ले आया और कहा, ले आया मैं इन्हें।
फिर बुद्ध जी कहने लगे, ‘अब इन्हें दोबारा पेड़ से जोड़ दे।’
यह सुनकर अंगुलिमाल बोला, ‘तुम कैसे महात्मा हो, तुम्हें नहीं पता कि तोड़ी हुई चीज को दोबारा नहीं जोड़ सकते हैं।’
भगवान बुद्ध ने कहा कि मैं यही तो तुम्हें समझाना चाहता हूं कि जब तुम्हारे पास किसी चीज को जोड़ने की ताकत नहीं है, तो तुम्हें किसी वस्तु को तोड़ने का अधिकार भी नहीं है। किसी को जीवन देने की क्षमता नहीं, तो मारने का हक भी नहीं।’
यह सब सुनकर अंगुलिमाल के हाथों से हथियार छूट गया। भगवान आगे बोले, ‘तू मुझे रुक जा-रुक जा कह रहा था, मैं तो कबसे स्थिर हूं। वो तू ही है जो स्थिर नहीं है।’
अंगुलिमाल बोला, ‘मैं तो एक जगह पर खड़ा हूं, तो कैसे अस्थिर हुआ और आप तब से चल रहे हैं।’ बुद्ध भगवान बोले, ‘मैं लोगों को क्षमा करके स्थिर हूं और तू हर किसी के पीछे उसकी हत्या करते हुए भागने की वजह से अस्थिर है।’
यह सबकुछ सुनकर अंगुलिमाल डाकू की आंखें खुल गईं और उसने कहा, ’आज के बाद से मैं कोई अधर्म वाला कार्य नहीं करूंगा।’
रोते हुए अंगुलिमाल डाकू भगवान बुद्ध के चरणों पर गिर गया। उसी दिन अंगुलिमाल ने बुराई का रास्ता छोड़ा और वो बहुत बड़ा संन्यासी बन गया।
कहानी से शिक्षा
सही मार्गदर्शन मिलने पर व्यक्ति बुराई की राह को छोड़कर अच्छाई को चुन लेता है।
परीक्षा
जब रियासत देवगढ़ के दीवान सरदार सुजानसिंह बूढ़े हुए तो परमात्मा की याद आयी। जा कर महाराज से विनय की कि दीनबंधु ! दास ने श्रीमान् की सेवा चालीस साल तक की, अब मेरी अवस्था भी ढल गयी, राज-काज सँभालने की शक्ति नहीं रही। कहीं भूल-चूक हो जाय तो बुढ़ापे में दाग लगे। सारी जिंदगी की नेकनामी मिट्टी में मिल जाय।
राजा साहब अपने अनुभवशील नीतिकुशल दीवान का बड़ा आदर करते थे। बहुत समझाया, लेकिन जब दीवान साहब ने न माना, तो हार कर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली; पर शर्त यह लगा दी कि रियासत के लिए नया दीवान आप ही को खोजना पड़ेगा।
दूसरे दिन देश के प्रसिद्ध पत्रों में यह विज्ञापन निकला कि देवगढ़ के लिए एक सुयोग्य दीवान की जरूरत है। जो सज्जन अपने को इस पद के योग्य समझें वे वर्तमान सरकार सुजानसिंह की सेवा में उपस्थित हों। यह जरूरी नहीं है कि वे ग्रेजुएट हों, मगर हृष्ट-पुष्ट होना आवश्यक है, मंदाग्नि के मरीज को यहाँ तक कष्ट उठाने की कोई जरूरत नहीं। एक महीने तक उम्मीदवारों के रहन-सहन, आचार-विचार की देखभाल की जायगी। विद्या का कम, परन्तु कर्तव्य का अधिक विचार किया जायगा। जो महाशय इस परीक्षा में पूरे उतरेंगे, वे इस उच्च पद पर सुशोभित होंगे।
इस विज्ञापन ने सारे मुल्क में तहलका मचा दिया। ऐसा ऊँचा पद और किसी प्रकार की कैद नहीं ? केवल नसीब का खेल है। सैकड़ों आदमी अपना-अपना भाग्य परखने के लिए चल खड़े हुए। देवगढ़ में नये-नये और रंग-बिरंगे मनुष्य दिखायी देने लगे। प्रत्येक रेलगाड़ी से उम्मीदवारों का एक मेला-सा उतरता। कोई पंजाब से चला आता था, कोई मद्रास से, कोई नई फैशन का प्रेमी, कोई पुरानी सादगी पर मिटा हुआ। पंडितों और मौलवियों को भी अपने-अपने भाग्य की परीक्षा करने का अवसर मिला। बेचारे सनद के नाम रोया करते थे, यहाँ उसकी कोई जरूरत नहीं थी। रंगीन एमामे, चोगे और नाना प्रकार के अंगरखे और कंटोप देवगढ़ में अपनी सज-धज दिखाने लगे। लेकिन सबसे विशेष संख्या ग्रेजुएटों की थी, क्योंकि सनद की कैद न होने पर भी सनद से परदा तो ढँका रहता है।
सरदार सुजानसिंह ने इन महानुभावों के आदर-सत्कार का बड़ा अच्छा प्रबंध कर दिया था। लोग अपने-अपने कमरों में बैठे हुए रोजेदार मुसलमानों की तरह महीने के दिन गिना करते थे। हर एक मनुष्य अपने जीवन को अपनी बुद्धि के अनुसार अच्छे रूप में दिखाने की कोशिश करता था। मिस्टर अ नौ बजे दिन तक सोया करते थे, आजकल वे बगीचे में टहलते हुए ऊषा का दर्शन करते थे। मि. ब को हुक्का पीने की लत थी, आजकल बहुत रात गये किवाड़ बन्द करके अँधेरे में सिगार पीते थे। मि. द स और ज से उनके घरों पर नौकरों की नाक में दम था, लेकिन ये सज्जन आजकल ‘आप’ और ‘जनाब’ के बगैर नौकरों से बातचीत नहीं करते थे। महाशय क नास्तिक थे, हक्सले के उपासक, मगर आजकल उनकी धर्मनिष्ठा देख कर मन्दिर के पुजारी को पदच्युत हो जाने की शंका लगी रहती थी ! मि. ल को किताब से घृणा थी, परन्तु आजकल वे बड़े-बड़े ग्रन्थ देखने-पढ़ने में डूबे रहते थे। जिससे बात कीजिए, वह नम्रता और सदाचार का देवता बना मालूम देता था। शर्मा जी घड़ी रात से ही वेद-मंत्रा पढ़ने में लगते थे और मौलवी साहब को नमाज और तलावत के सिवा और कोई काम न था। लोग समझते थे कि एक महीने का झंझट है, किसी तरह काट लें, कहीं कार्य सिद्ध हो गया तो कौन पूछता है।
लेकिन मनुष्यों का वह बूढ़ा जौहरी आड़ में बैठा हुआ देख रहा था कि इन बगुलों में हंस कहाँ छिपा हुआ है।
एक दिन नये फैशनवालों को सूझी कि आपस में हाकी का खेल हो जाय। यह प्रस्ताव हाकी के मँजे हुए खिलाड़ियों ने पेश किया। यह भी तो आखिर एक विद्या है। इसे क्यों छिपा रखें। संभव है, कुछ हाथों की सफाई ही काम कर जाय। चलिए तय हो गया, फील्ड बन गयी, खेल शुरू हो गया और गेंद किसी दफ्तर के अप्रेंटिस की तरह ठोकरें खाने लगा।
रियासत देवगढ़ में यह खेल बिलकुल निराली बात थी। पढ़े-लिखे भलेमानुस लोग शतरंज और ताश जैसे गंभीर खेल खेलते थे। दौड़-कूद के खेल बच्चों के खेल समझे जाते थे।
खेल बड़े उत्साह से जारी था। धावे के लोग जब गेंद को ले कर तेजी से उड़ते तो ऐसा जान पड़ता था कि कोई लहर बढ़ती चली आती है। लेकिन दूसरी ओर के खिलाड़ी इस बढ़ती हुई लहर को इस तरह रोक लेते थे कि मानो लोहे की दीवार है।
संध्या तक यही धूमधाम रही। लोग पसीने से तर हो गये। खून की गर्मी आँख और चेहरे से झलक रही थी। हाँफते-हाँफते बेदम हो गये, लेकिन हार-जीत का निर्णय न हो सका।
अँधेरा हो गया था। इस मैदान से जरा दूर हट कर एक नाला था। उस पर कोई पुल न था। पथिकों को नाले में से चल कर आना पड़ता था। खेल अभी बन्द ही हुआ था और खिलाड़ी लोग बैठे दम ले रहे थे कि एक किसान अनाज से भरी हुई गाड़ी लिये हुए उस नाले में आया। लेकिन कुछ तो नाले में कीचड़ था और कुछ उसकी चढ़ाई इतनी ऊँची थी कि गाड़ी ऊपर न चढ़ सकती थी। वह कभी बैलों को ललकारता, कभी पहियों को हाथ से ढकेलता लेकिन बोझ अधिक था और बैल कमजोर। गाड़ी ऊपर को न चढ़ती और चढ़ती भी तो कुछ दूर चढ़कर फिर खिसक कर नीचे पहुँच जाती। किसान बार-बार जोर लगाता और बार-बार झुँझला कर बैलों को मारता, लेकिन गाड़ी उभरने का नाम न लेती। बेचारा इधर-उधर निराश हो कर ताकता मगर वहाँ कोई सहायक नजर न आता। गाड़ी को अकेले छोड़कर कहीं जा भी नहीं सकता। बड़ी आपत्ति में फँसा हुआ था। इसी बीच में खिलाड़ी हाथों में डंडे लिये घूमते-घामते उधर से निकले। किसान ने उनकी तरफ सहमी हुई आँखों से देखा, परंतु किसी से मदद माँगने का साहस न हुआ। खिलाड़ियों ने भी उसको देखा मगर बन्द आँखों से, जिनमें सहानुभूति न थी। उनमें स्वार्थ था, मद था, मगर उदारता और वात्सल्य का नाम भी न था।
लेकिन उसी समूह में एक ऐसा मनुष्य था जिसके हृदय में दया थी और साहस था। आज हाकी खेलते हुए उसके पैरों में चोट लग गयी थी। लँगड़ाता हुआ धीरे-धीरे चला आता था। अकस्मात् उसकी निगाह गाड़ी पर पड़ी। ठिठक गया। उसे किसान की सूरत देखते ही सब बातें ज्ञात हो गयीं। डंडा एक किनारे रख दिया। कोट उतार डाला और किसान के पास जा कर बोला मैं तुम्हारी गाड़ी निकाल दूँ ?
किसान ने देखा एक गठे हुए बदन का लम्बा आदमी सामने खड़ा है। झुक कर बोला- हुजूर, मैं आपसे कैसे कहूँ ? युवक ने कहा मालूम होता है, तुम यहाँ बड़ी देर से फँसे हो। अच्छा, तुम गाड़ी पर जा कर बैलों को साधो, मैं पहियों को ढकेलता हूँ, अभी गाड़ी ऊपर चढ़ जाती है।
किसान गाड़ी पर जा बैठा। युवक ने पहिये को जोर लगा कर उकसाया। कीचड़ बहुत ज्यादा था। वह घुटने तक जमीन में गड़ गया, लेकिन हिम्मत न हारी। उसने फिर जोर किया, उधर किसान ने बैलों को ललकारा। बैलों को सहारा मिला, हिम्मत बँध गयी, उन्होंने कंधे झुका कर एक बार जोर किया तो गाड़ी नाले के ऊपर थी।
किसान युवक के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। बोला- महाराज, आपने आज मुझे उबार लिया, नहीं तो सारी रात मुझे यहाँ बैठना पड़ता।
युवक ने हँस कर कहा- अब मुझे कुछ इनाम देते हो ? किसान ने गम्भीर भाव से कहा नारायण चाहेंगे तो दीवानी आपको ही मिलेगी।
युवक ने किसान की तरफ गौर से देखा। उसके मन में एक संदेह हुआ, क्या यह सुजानसिंह तो नहीं हैं ? आवाज़ मिलती है, चेहरा-मोहरा भी वही। किसान ने भी उसकी ओर तीव्र दृष्टि से देखा। शायद उसके दिल के संदेह को भाँप गया। मुस्करा कर बोला- गहरे पानी में पैठने से ही मोती मिलता है।
निदान महीना पूरा हुआ। चुनाव का दिन आ पहुँचा। उम्मीदवार लोग प्रातःकाल ही से अपनी किस्मतों का फैसला सुनने के लिए उत्सुक थे। दिन काटना पहाड़ हो गया। प्रत्येक के चेहरे पर आशा और निराशा के रंग आते थे। नहीं मालूम, आज किसके नसीब जागेंगे ! न जाने किस पर लक्ष्मी की कृपादृष्टि होगी।
संध्या समय राजा साहब का दरबार सजाया गया। शहर के रईस और धनाढ्य लोग, राज्य के कर्मचारी और दरबारी तथा दीवानी के उम्मीदवारों का समूह, सब रंग-बिरंगी सज-धज बनाये दरबार में आ विराजे ! उम्मीदवारों के कलेजे धड़क रहे थे।
जब सरदार सुजानसिंह ने खड़े हो कर कहा- मेरे दीवानी के उम्मीदवार महाशयो ! मैंने आप लोगों को जो कष्ट दिया है, उसके लिए मुझे क्षमा कीजिए। इस पद के लिए ऐसे पुरुष की आवश्यकता थी जिसके हृदय में दया हो और साथ-साथ आत्मबल। हृदय वह जो उदार हो, आत्मबल वह जो आपत्ति का वीरता के साथ सामना करे और इस रियासत के सौभाग्य से हमें ऐसा पुरुष मिल गया। ऐसे गुणवाले संसार में कम हैं और जो हैं, वे कीर्ति और मान के शिखर पर बैठे हुए हैं, उन तक हमारी पहुँच नहीं। मैं रियासत के पंडित जानकीनाथ-सा दीवान पाने पर बधाई देता हूँ।
रियासत के कर्मचारियों और रईसों ने जानकीनाथ की तरफ देखा। उम्मीदवार दल की आँखें उधर उठीं, मगर उन आँखों में सत्कार था, इन आँखों में ईर्ष्या।
सरदार साहब ने फिर फरमाया- आप लोगों को यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति न होगी कि जो पुरुष स्वयं जख्मी होकर भी एक गरीब किसान की भरी हुई गाड़ी को दलदल से निकाल कर नाले के ऊपर चढ़ा दे उसके हृदय में साहस, आत्मबल और उदारता का वास है। ऐसा आदमी गरीबों को कभी न सतावेगा। उसका संकल्प दृढ़ है जो उसके चित्त को स्थिर रखेगा। वह चाहे धोखा खा जाये, परन्तु दया और धर्म से कभी न हटेगा।
हरपालसिंह की पाँच बातें
शिक्षित और युवा व्यक्ति के पास कोई काम का न होना सचमुच दुखद है. हरपाल सिंह के साथ भी कुछ ऐसा ही था.गांव में थोड़ी बहुत जमीन थी पर उससे परिवार का गुजारा होना बड़ा कठिन था.वह अपनी बूढ़ी माँ,पत्नी-बच्चों के लिए आवश्यक वस्तुएँ नहीं जुटा पाता था.इसलिए आज उसने विचार कर लिया था कि वह किसी राजा के पास जाकर कोई चाकरी ही कर लेगा.
उसे अपने परिवार से बहुत प्यार था. पर उनकी बेहतरी के लिए अपने मन को कठोर करके आज वह किसी को बिना बताए चांदनी रात में चुपचाप घर से निकल पड़ा.गांव में सन्नाटा पसरा हुआ था.कुछ कुत्तों के भौंकने का स्वर सुनाई दे रहा था.
रात के अंधकार में तारे टिमटिमा रहे थे.
गांव से थोड़ी ही दूर एक बूढ़ा व्यक्ति अपनी झोपड़ी में रहता था.लोग उसे पागल कहा करते थे.पर वह जब भी कोई बात कहता,ज्ञान की बात ही कहता.हरपाल ने सोचा कि क्यों न उस बूढ़े बाबा से ज्ञान की कुछ बातें सुनता चलूँ.परदेस जा रहा हूं,न जाने कौन सा संकट आन पड़े.
सो वह उस बूढ़े की कुटिया में पहुंच गया और अपनी बात कही.
बूढ़े ने कहा बेटा परदेस जा रहे हो तो मेरी ये पांच बातें सदैव याद रखना-
1.जो तुम्हारी मदद करे, तुम भी उसकी मदद करो।
2.किसी का दिल दुखाने वाली बात मत कहो।
3. हर काम मेहनत और ईमानदारी से करो।
4.बड़ो से बराबरी का दावा मत करो।
और
5.जहां भी ज्ञान की दो बातें मिले ध्यान से सुनो.
हरपाल सिंह ने उस वृद्ध की पांचों बातें गाठ बांधली और निकल पड़ा एक बड़े से नगर की ओर....|
प्रातः काल वह एक बड़े से नगर में पहुंचा.महाराज की दरबार पहुँचकर उसने प्रधान सेवक से विनय की.
प्रधान सेवक ने उसकी दिन था और सरलता से प्रभावित होकर उसने भृत्य का कार्य मिल गया.हरपालसिंह ने प्रधान सेवक का बहुत आभार माना.
एक बार राजा साजो-सामान सहित किसी यात्रा पर निकला.रास्ता लंबा था, गर्मी के दिन थे.यात्रा दल के पीने योग्य पानी समाप्त हो गया.राजा और प्रजा दोनों व्यास से व्याकुल हो उठे.
राजा ने प्रधान सेवक को आदेश दिया कि-अविलंब मेरे और सबके लिए पेयजल का प्रबंध करो अन्यथा तुम बुरे परिणाम के लिए तैयार रहो.
भयभीत प्रधान सेवक अपने साथियों के साथ वन में जल की तलाश करने निकल पड़ा पर,उनका सारा प्रयास व्यर्थ रहा.
वह यात्रा दल के पास निराश होकर वापस लौटा.
हरपाल सिंह भी निकट ही खड़ा था.उनसे उसकी यह दशा देखी न गई. क्योंकि उसी के कारण ही तो आज वह
राज दरबार की सेवा कर रहा है.
उसी बूढ़े की पहली बात याद आई-जो भी तुम्हारी मदद करें तुम भी उसकी मदद करो.
उसने प्रधान सेवक से प्रश्न किया प्रधान जी क्या आसपास कहीं पर भी जल का पता नहीं चला?
प्रधान ने कहा-हाँ हरपाल.सभी ताल नदी सूखे हुए हैं.जल का नामोनिशान तक नहीं है हां एक बावड़ी है लेकिन....|"
लेकिन क्या?-हरपाल सिंह ने पूछा.
"आसपास के लोगों ने बताया कि वहां एक भूत रहता है.आज तक जो भी उस कुएं में उतरा वो कभी वापस नहीं लौट सका.इसलिए हम में से कोई भी वहां जाने की हिम्मत न कर सका." प्रधान सेवक ने अपनी बात पूरी की.
हरपाल सिंह ने कहा-"मित्र तुमने मेरी सहायता की है तुम्हारा मुझ पर बड़ा एहसान है इसलिए मैं अवश्य जल लेने जाऊंगा."
सभी ने हरपाल सिंह को रोकना चाहा, पर हरपाल सिंह अपने दोनों हाथों में मटका लेकर निडर होकर चल पड़ा,उसी भूतिया बावड़ी की ओर.
हरपाल सिंह चलते-चलते बावड़ी के पास पहुंचा. बड़े-बड़े और ऊंचे पेड़ों के बीच घिरा हुआ वह कुआँ सचमुच डरावना लग रहा था.ऐसा प्रतीत होता था की वर्षों से यहां कोई नहीं आया है.
कुएँ से नीचे तक जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थी,और नीचे बिल्कुल अंधेरा था. एक बार तो हरपाल सिंह का हृदय भी काँप गया. पर वह हिम्मत करके धीमी कदमों से कुएँ से जल लेने उतरा.
बावड़ी के जल स्तर तक पहुंच कर और झुककर उसने दोनों अपने मटके पानी से भर लिए.दोनों हाथों में जल से भरे घड़े लिए वह जैसे ही ऊपर सीढ़ियां चढ़ने को तैयार हुआ. उससे ठीक सामने एक भयानक सा आदमी खड़ा था. बिल्कुल काला कलूटा बाल बड़े बड़े और बिखरे हुए.कमर से ऊपर का भाग नग्न था.और उसने किसी नर कंकाल को अपने सीने से लगाए रखा था.
हरपाल सिंह स्तंभित रह गया.
उस डरावने आदमी ने हरपाल से प्रश्न किया ओ नौजवान!मेरी पत्नी के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है?
हरपाल कुछ कह नहीं जा रहा था कि उसे वृद्धि की दूसरी बात याद आई किसी के दिल दुखाने वाली बात मत करो.
उसने जवाब दिया-''ऐसी सुंदर स्त्री तो मैंने जीवन में कभी नहीं देखा."
हरपाल सिंह का उत्तर सुनकर वह व्यक्ति बहुत प्रसन्न हुआ उसने कहा-" नौजवान मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं.
मैं अपनी पत्नी से इतना प्रेम करता था कि आज तक उसे लेकर यहां वहां फिर रहा हूं.आज तक जो भी इस कुएँ में आया उन सब से मैंने यही प्रश्न किया.पर उन्होंने इसे हड्डी का ढांचा कह दिया इसलिए मैंने उन सब को मार डाला. पर तुमने मेरी पत्नी की प्रशंसा करके मुझे खुश कर दिया है.बोलो नौजवान तुम क्या चाहते हो?"
हरपाल सिंह ने कहा-"मान्यवर आसपास के लोगों को आपके भय के कारण पानी नहीं मिल पाता है.
यदि आप मुझसे सचमुच प्रसन्न हैं तो कृपा करके आप इस बावड़ी को छोड़कर चले जाइए."
उस आदमी ने कहा बिल्कुल ऐसा ही होगा और तुरंत वह सदा सदा के लिए उस कुएँ को छोड़कर चला गया.
हरपाल सिंह जब मटके में पानी लेकर वापस पहुंचा तो सबके खुशी का ठिकाना न रहा. राजा प्रजा सब को भरपूर पानी मिला.
राजा ने हरपाल सिंह से प्रसन्न होकर उसके पद और वेतन में वृद्धि कर दी.
अब हरपाल सिंह को राज्य का खजांची बना दिया गया. यानी कि राजकोष के देखरेख का जिम्मा अब उसके ही हाथों में था. अपना काम करते हुए उसे बूढ़े की तीसरी बात हमेशा याद आती थी कि-हर काम इमानदारी से करो.
हरपालसिंह की ईमानदारी से काम करने और पाई-पाई के हिसाब रखने की वजह से भ्रष्ट कर्मचारी उससे नाराज रहने लगे क्योंकि अब उनके अतिरिक्त आय का रास्ता बंद हो गया.
प्रधानमंत्री ने हरपालसिंह को लालच देकर कहा कि यदि तुम हमसे मिलकर रहोगे तो मैं और हमारे साथी मिलकर तुम्हें एक प्रतिष्ठित पद दिलवा देंगे.जिससे तुम्हारे सम्मान और यश में वृद्धि होगी.
पर हरपाल ने बूढ़े की चौथी बात का स्मरण किया-बिना योग्यता के किसी से बराबरी का दावा मत करो.
उसने प्रधानमंत्री का अनुचित प्रस्ताव ठुकरा दिया.
इससे नाराज होकर दूसरे ही दिन सुबह चापलूस मंत्रियों ने राजा के पास जाकर शिकायत की,कि हरपालसिंह अपने कार्य में हेरा-फेरी करता है.और मना करने पर उसने हमें खरी-खोटी सुनाई और उसने राजपरिवार को भी अपमानजनक शब्द कहे हैं.
राजा यह सुनकर आगबबूला हो गया.उसने कहा-"हरपालसिंह का यह दुस्साहस?कि हमारे ही टुकड़ों पर पलकर हमें ही अपशब्द कहे.हम जब तक हरपालसिंह का कटा सिर नहीं देख लें,हमारे परिवार का कोई भी सदस्य पानी तक नहीं पिएगा."
राजा ने तुरंत एक सैनिक को बुलाकर उससे कहा-"सैनिक हमारे नगर से कुछ दूर के गाँव में एक भवन निर्माण का कार्य चल रहा है.आज एक व्यक्ति तुमसे आकर यह पूछेगा कि काम कितना बाकी है? यह सुनते ही तुम उसकी गर्दन काटकर मेरे पास ले आना."
राजा की आज्ञा पाकर वह सैनिक चला गया.
कुछ देर बाद राजा ने हरपाल से को अपने पास बुला कर कहा-"हरपाल सिंह पास के एक गांव में बहुत बड़ा भवन बन रहा है तुम शीघ्र जाओ और वहां के कारीगर से पूछकर आओ कि काम कितना बाकी है?
"जो आज्ञा महाराज!"
हरपाल सिंह एक घोड़े पर सवार होकर अनजाने में अपने ही मृत्यु की ओर बढ़ चला.
हरपाल सिंह अश्व पर सवार हो कुछ विचार करते हुए यात्रा में मग्न था.
उसने देखा कि रास्ते पर ही एक बड़ा सा आयोजन हो रहा था जिसमें ज्ञान की चर्चा हो रही थी. हरपाल आगे बढ़ जाना चाहता था पर उसे बूढ़े की पांचवी बात याद आई-जहां भी ज्ञान की दो बातें मिले ध्यान से सुनो.
वह घोड़े को एक वृक्ष से बांधकर कथा सुनने में रम गया. चर्चा जब ज्ञान की हो तो समय कैसे बीत जाता है,पता ही नहीं चलता. हरपाल सिंह के साथ भी ऐसा ही हुआ.कैसे दिन डूबने को आई,पता ही न चला.
इधर राज परिवार के सदस्य भूख प्यास से तड़पने लगे. क्योंकि उन्होंने हरपाल सिंह के मरने के बाद ही अन्य जल ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की थी. राजा का बेटा भूख-प्यास सहन नहीं कर सका.वह जानना चाहता था कि हरपालसिंह का सिर अब तक क्यों नहीं पहुंचा?
वास्तविकता जानने के लिए राजकुमार एक साधारण पुरुष का वेश बनाकर उसी सैनिक के पास जा पहुंचा जिसे राजा ने हरपाल सिंह का सिर काटने की आज्ञा दी थी.
वहां जाकर उसने सैनिक से पूछा-" काम अब तक पूरा क्यों नहीं हुआ?
वह सैनिक वेश बदले हुए राजकुमार को नहीं पहचान पाया. उसने समझा कि यही वो व्यक्ति है जिसका सिर काटने के लिए मुझे महराज ने यहाँ भेजा है.
उसने झट राजकुमार का सिर काट दिया.
यदि हरपालसिंह बूढ़े की पांच बातें नहीं मानता तो क्या होता?